राष्ट्रीय राजनीति के आज के स्वरूप पर हम समग्र दृष्टि डालें तो पाएंगे कि एक्शन दूरदराज़ के दो स्थानों पर हो रहा है. राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अभी दक्षिण से गुजर रही है, तो आम आदमी पार्टी (आप) गुजरात में सक्रिय है. इस सप्ताह हम ‘आप’ पर फोकस कर रहे हैं. यह जिस तरह आगे बढ़ रही थी उस पर दो साल पहले मैंने इस स्तंभ में लिखा था और इसे इस दशक की भारतीय राजनीति का ‘स्टार्ट-अप’ या कहें एक ‘यूनिकॉर्न’ बताया था.
यह एक सच्चाई है कि राजनीति शून्य को कभी स्वीकार नहीं करती. वैसे, भाजपा के प्रति वफादार लोग सवाल कर सकते हैं कि यह तो मान लिया लेकिन भारतीय राजनीति में शून्य पर बहस का क्या मतलब है? नरेंद्र मोदी का विशाल व्यक्तित्व तो इस कथित शून्य को न केवल भर रहा है बल्कि उससे बाहर भी काफी फैल रहा है. इसलिए आप जिस शून्य की बात कर रहे हैं वह विपक्ष में ही है.
मोदी, अमित शाह और जे.पी. नड्डा के नेतृत्व में भाजपा चाहे जितनी भी सर्वव्यापी, सर्वविजेता क्यों न हो, वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है और भारत चीन की तरह कोई एकदलीय व्यवस्था वाला देश नहीं है. भारत पुतिन का रूस भी नहीं है. भारत में विपक्ष के लिए हमेशा खुली जगह बनी रहेगी.
कई क्षेत्रों और राज्यों में मजबूत दावेदारों ने विपक्ष की जगह पर कब्जा कर लिया है और मोदी-भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोक दिया है. पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी या दिल्ली के अरविंद केजरीवाल जैसे नेता मौजूद हैं, जिन्हें भाजपा तमाम तरह के अच्छे-बुरे जुगत करके भी प्रादेशिक चुनावों में परास्त नहीं कर पाई है. लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर आठ साल से उसे कोई चुनौती नहीं दे पाया है. और ‘आप’ उसके लिए इसी स्थिति को बदलने का खतरा पैदा कर रही है.
‘अखिल भारतीय’ की परिभाषा अभी हम बहुत विस्तृत रूप में नहीं कर रहे हैं. इसमें हम वैसी किसी भी पार्टी को शामिल कर रहे हैं जो या तो सत्ता में मजबूती से जमी हो या एक से ज्यादा राज्यों में मुख्य प्रतिद्वंद्वी हो. भारत के राजनीतिक नक्शे पर नज़र डालें. आपको कांग्रेस के अलावा ऐसी कोई गैर-भाजपा पार्टी नहीं नज़र आएगी जिसकी एक से ज्यादा राज्यों में कोई अच्छी-खासी मौजूदगी हो.
इनमें से कांग्रेस एक ही दिशा में बढ़ रही है— पतन की ओर. करीब चार साल से इसका आधार सिकुड़ रहा है. अंतिम बार इसका आधार 2018 में फैला था जब उसने छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान को जीता था. लेकिन जल्दी ही वह फिसलने लगी. अब हम देखेंगे कि इसकी पदयात्रा और इसके अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद क्या होता है. लेकिन फिलहाल तो यह तेजी से गिरावट की ओर ही जा रही है, विपक्ष में अपनी जगह तेजी से गंवा रही है और एक शून्य पैदा कर रही है. इसके लिए मोदी को दोष मत दीजिए. इस खाली जगह को भरने के लिए ‘आप’ तेजी से आगे बढ़ रही है.
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आज यह एकमात्र ऐसी पार्टी है जो दो राज्यों में सत्ता में है और उनके साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी आगे बढ़ रही है.
कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भले सत्ता में हो लेकिन यह दावा करना मुश्किल है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में, जहां इस साल चुनाव होने वाले हैं, वह मजबूत हो रही है. उसके लिए अगला बड़ा मौका अगले साल गर्मियों में कर्नाटक में होगा. अब यह दावा करने के लिए आपको उसका अंधभक्त ही होना पड़ेगा कि वहां वह कोई प्रगति कर रही है.
कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि वह एक साथ कई काम करने की कोशिश कर रही है और जो चुनावी लक्ष्य करीब है उसके लिए खास कुछ नहीं कर रही है. लेकिन ‘आप’ ने गुजरात को खास लक्ष्य बनाया है और अखिल भारतीय स्तर पर उसने कांग्रेस के वोट बैंक को और तेजी से निशाना बनाने का लक्ष्य तय कर लिया है.
कांग्रेस के निराश वोटर करीब एक दशक से विकल्पों की तलाश में हैं. आंध्र से लेकर तेलंगाना और महाराष्ट्र (जहां वह एनसीपी से पिछड़ गई) तक एक ही कहानी दोहराई जाती रही है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने इसके वोटों को मानो पूरी तरह सोख लिया है. दिल्ली और पंजाब में, जहां भाजपा के लिए उसे हराने का कोई मौका नहीं था, ‘आप’ ने उसका सफाया कर दिया. सो, देश भर में कांग्रेस के ठोस वोटरों के लिए मैदान खुला था.
‘आप’ ऐसे वोटरों के पीछे ही पड़ी है. इसलिए यह भाजपा से सीधी टक्कर नहीं लेना चाहती. यह उसके ऊपर सवाल उठाएगी, उसकी आलोचना करेगी, उस पर हमले भी करेगी मगर उसके वोटों को निशाना बनाने पर अपना समय बर्बाद नहीं करेगी. अगर ‘आप’ उन राज्यों में ही कांग्रेस के वोटों पर ही कब्जा करना शुरू कर दे जिन राज्यों में कांग्रेस मजबूत रही है, तो यह 2024 और उससे आगे के लिए भी अपनी नींव तैयार कर लेगी.
इस दिशा में उठाए गए कुछ कदम इसे ऊंचे मंच, बड़ी जमात में शामिल कर देंगे. और अगर आप चाहते हैं कि मैं इसके लिए क्रिकेट के अलावा दूसरे किसी खेल का उदाहरण दूं, तो टेनिस की मिसाल देते हुए कह सकते हैं कि यह ‘सेंटर कोर्ट’ में पहुंच जाएगी. उसे गुजरात को जीतने की जरूरत नहीं है, वहां इसने 10-15 सीटें भी जीत ली तो वह एक उभरते राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में अपने दावे को पूरी तरह मजबूत कर लेगी. भारत में दशकों से ऐसा नहीं देखा गया है. वैसे, हम इस पर बहस करते रह सकते हैं.
भाजपा 1980 में जनसंघ की छाया से बाहर निकली, इसलिए उसे ‘स्टार्ट-अप’ नहीं कहा जा सकता. कांग्रेस (आई) मूल कांग्रेस से निकली, जनता दल संयुक्त विधायक दल और लोहियावादी समाजवादियों के टुकड़ों तथा 1977-80 दौर के जनता दल में से निकला, बाकी दूसरे दल अपने-अपने राज्यों में जमे रहे. अब गुजरात में दर्जन भर सीटें और हिमाचल में गिनती लायक सीटें ‘आप’ के लिए सोने में सुहागा जैसी होंगी और एक नयी अखिल भारतीय पार्टी के पदार्पण की पुष्टि कर देंगी.
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‘आप’ की मजबूती, कमजोरी, मौकों और खतरों (यानी ‘स्वोट’) का विश्लेषण करने का मौका जल्दी ही मिलेगा. फिलहाल हम कुछ मोटी-मोटी बातों पर ही गौर करेंगे.
अगर आप मोदी-भाजपा के आलोचकों को ‘आप’ की खुल कर तारीफ नहीं करते पाते हैं तो इसकी वजह यह है कि उन्हें लगता है विचारधारा के स्तर पर उसमें स्पष्टता की कमी है, खास तौर से धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर. यानी इसका अर्थ यह हुआ कि मुसलमानों के सवाल पर इसका रुख स्पष्ट नहीं है. इसका सीधा जवाब यह है कि इस पार्टी की कोई विचारधारा नहीं है. या इसने अपना सैद्धांतिक विचार प्रस्तुत नहीं किया है.
इसी बात ने ज़हीन राजनीति शास्त्री तथा कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर श्रुति कपिला को दिप्रिंट के लिए लिखे लेख में यह कहने को प्रेरित किया कि ‘आप’ को वे ‘भाजपा का सुस्त, अपराध-बोध मुक्त संस्करण’ मानती हैं. सवाल यह है कि विचारधारा-मुक्त राजनीति को मजबूती मानेंगे या कमजोरी? क्या राजनीति विचारधारा के बिना चल सकती है?
ऐसे सवाल जल्दी उभरेंगे और ‘आप’ को इनका जवाब देना होगा. यह नेता-विरोध के नारे के साथ मंच पर आई थी और राजनीति को एक बुरी चीज बताती थी. आगे चलकर यह उभरती हुई राजनीतिक पार्टी के अवतार के रूप में सामने आई. आज यह पूरी तरह से एक जनकल्याणवादी रूप में है. यह कबूल करना एक सच्चाई है (आप चाहें तो इसे संशय भी कह सकते हैं) कि यह मोदी के राष्ट्रवाद का मुकाबला नहीं कर सकती, यह हिंदुओं की नाराजगी के डर से मुसलमानों के पक्ष में न बोलने की पूरी सावधानी बरतती है. इसे मालूम है कि मुसलमान वोटर उसे ही वोट देंगे, जो उनके मुताबिक भाजपा को हरा सकता है.
इसलिए स्वास्थ्य, शिक्षा, मुफ्त बिजली, पानी, सब्सिडी, भ्रष्टाचार-मुक्त शासन (खासकर सेवाएं देने के मामले में) बात करना कहीं ज्यादा सुरक्षित है. यह सोच भगत सिंह और बाबासाहब आंबेडकर सरीखे आदर्शों और प्रतीकों के इसके चयन में भी प्रकट होता है. आखिर ये दोनों विभूतियां हमारे राजनीतिक सोच में ऐसे प्रतीकों के रूप में उभरती हैं जो सचमुच में किसी तरह का ध्रुवीकरण नहीं पैदा करतीं. फिलहाल के लिए तो यह सब बहुत अच्छा है लेकिन जब यह पार्टी विपक्ष में राजनीतिक शून्य को भरने की कोशिश करेगी तब विचारधारा के मामले में इसकी यह शून्यता उसे भारी पड़ सकती है.
और अंत में, यह पार्टी एक व्यक्ति में केंद्रित नेतृत्व के अधीन चल रही है. हम देख रहे हैं कि पंजाब में इसे किस तरह समस्याओं से जूझना पड़ रहा है. जब तक यह अपने नेतृत्व का आधार विस्तृत नहीं करती, एक से ज्यादा दिग्गजों के लिए जगह नहीं बनाती, तब तक इसके लिए जरूरत से ज्यादा तेजी से और ज्यादा दूर तक विस्तार एक जोखिम बना रहेगा. जैसा कि कई स्टार्ट-अप के साथ हुआ है, जिन्होंने शुरुआती आकलन और आसानी से हासिल निजी इक्विटी के बूते काफी विस्तार तो कर लिया लेकिन अब मुश्किल में हैं.
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