scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतआखों देखीः कैसे मिला वो ज़िंदा सबूत जिसने नेल्ली जनसंहार की 3 दिन पहले ही दी थी चेतावनी

आखों देखीः कैसे मिला वो ज़िंदा सबूत जिसने नेल्ली जनसंहार की 3 दिन पहले ही दी थी चेतावनी

इस कॉलम में पढ़िए कि उस जनसंहार से पहले असम के एक पुलिसवाले के वायरलेस संदेश को किस तरह अनदेखा किया गया और कैसे हमें उसका सुराग मिला और कैसे हमने उसे ढूंढ निकाला.

Text Size:

आज से ठीक 40 साल पहले 18 फरवरी 1983 को हुए नेल्ली हत्याकांड के ठीक तीन महीने बाद यह खुलासा हो गया था कि असम पुलिस के एक अफसर ने यह स्पष्ट, लिखित चेतावनी भेजी थी कि लालंग आदिवासियों के हथियारबंद झुंड मुस्लिम गांवों के आसपास जमा हो रहे थे.

‘इंडिया टुडे’ के 15 मई 1983 के अंक के मुखपृष्ठ पर उस वायरलेस संदेश का मजमून मोटे अक्षरों में छ्पा था (जिसकी भाषा वैसी ही थी जैसी पुलिस वायरलेस संदेशों की हुआ करती थी)—

“सूचना मिली है कि नेल्ली के आसपास के गांवों से ढोल बजाते हुए और घातक हथियारों से लैस करीब 1000 असमी नेल्ली में जमा हो गए हैं. अल्पसंख्यक लोग दहशत में हैं और उन्हें किसी भी समय अपने ऊपर हमला होने की आशंका है. शांति बनाए रखने के वास्ते फौरन कार्रवाई के लिए यह संदेश भेजा जा रहा है.”

यह संदेश 15 फरवरी 1983 को भेजा गया था, जनसंहार के ठीक तीन दिन पहले. यह चेतावनी 3,000 लोगों की जान बचा सकती थी मगर कई स्तरों पर इसकी पूरी तरह से अनदेखी की गई. यहां तक कि संदेश भेजने वाले को इसकी प्राप्ति की सूचना भी नहीं भेजी गई. यह संदेश नवगांव पुलिस थाने के एसएचओ या अफसर कमांडिंग (ओसी) ज़हीरुद्दीन अहमद ने कई बड़े अधिकारियों और नेल्ली के आसपास के थानों को भेजा था.

जैसा कि आप उम्मीद कर सकते हैं, जब इस मामले की लीपापोती शुरू हुई तब सबसे पहले इस सूचना को सख्त गोपनीयता के कालीन के नीचे दबा दिया गया.

यह वो ज़िंदा सबूत था, जिसे किसी तरह ढूंढ निकालना ज़रूरी था. इसका पता हमें कैसे लगा और यह किस तरह ढूंढ निकाला गया, इसकी कहानी हम यहां बयां कर रहे हैं. इसके साथ हम वह काम भी कर रहे हैं, जो पत्रकार लोग शायद ही करते हैं— उस सूत्र की पहचान उजागर करना, भले ही यह दशकों बाद किया जा रहा है. यहां तक कि वाटरकांड का पर्दाफाश करने वाले बॉब वुडवार्ड तथा कार्ल बर्नस्टीन की खबर में घातक सूचना देने वाले गुमनाम शख्स मार्क फेल्ट की पहचान पर्याप्त समय बीतने के बाद ज़ाहिर की गई थी.

नेल्ली कांड के मामले में उस शख्स की पहचान उसकी मृत्यु के 38 साल बाद ज़ाहिर की गई है. इसके लिए मुझे अरुण शौरी ने सहमति भी दी है. यह ज़िंदा सबूत उस खोजी मुहिम की बदौलत हासिल किया जा सका जिसकी अगुआई शौरी ने ‘इंडिया टुडे’ में रहते हुए की थी. मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से निकलने की प्रक्रिया में था और अपनी किताब ‘असम : अ वैली डिवाइडेड’ लिखने में व्यस्त था. और कहानी इस तरह आगे बढ़ी थी.


यह भी पढ़ेंः इंडियन एक्सप्रेस और दूरदर्शन से लेकर एनडीटीवी तक; प्रणय और राधिका रॉय के साथ मेरे अनुभव


अप्रैल के मध्य में अरुण शौरी ने फोन करके मुझसे पूछा कि क्या मैं उस खोजी मुहिम से जुड़ना चाहूंगा, जो यह उजागर कर सकेगी कि उस साल फरवरी में असम में बीते उस भयानक खूनी पखवाड़े के लिए कौन जिम्मेदार था? इसके लिए मेहनताना नहीं मिलने वाला था, न ही कोई ‘बाइलाइन’ मिलने वाली थी. यह केवल अपनी पसंद का काम था—हालांकि, हमेशा की तरह गरिमापूर्ण और उदार शौरी ने अपने लेख की भूमिका में मेरे और कूमी कपूर समेत दिल्ली के कुछ और पत्रकारों के योगदान के प्रति आभार व्यक्त किया था.

असम में ज़्यादातर गुवाहाटी में उनके साथ तीन सप्ताह तक काम करते हुए मैंने बड़ा सबक यह सीखा था कि खोजी पत्रकारों के लिए यह जानना कितना महत्वपूर्ण है कि हमारा सरकारी ‘सिस्टम’ किस तरह काम करता है. शौरी इसमें उस्ताद थे. अगर कहीं कुछ हुआ तो अमुक स्थान पर किसी ने इसे जरूर दर्ज किया होगा और कुछ नहीं तो अपनी जान बचाने के लिए तो ज़रूर कुछ किया होगा. जल्दी ही हम वायरलेस संदेशों, गोपनीय टिप्पणियों, खुफिया आकलन रिपोर्टों को खंगालने लगे, जिनकी लीपापोती में हताश ‘सिस्टम’ भिड़ गया था. ये सारी बातें ‘इंडिया टुडे’ में प्रकाशित उनके इस लेख में आप पढ़ सकते हैं.

कई दिनों, या कहिए कईं रातों तक हम राज्य प्रशासन, पुलिस और खुफिया एजेंसियों के बड़े अफसरों से बातें करते रहे. शौरी बड़ी सफाई से उन सबमें एक भावना को जगाने की कोशिश यह कहकर करते रहे कि याद रखना, बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं और एक-न-एक दिन इसका हिसाब कहीं तो देना पड़ेगा. किसी को दोषी ठहराया ही जाएगा और वो आप भी हो सकते हैं. हालांकि, शौरी की यह चाल कारगर रही.

सूत्रों से हमने सुना था कि नेल्ली कांड की चेतावनी देने वाला कोई वायरलेस संदेश भेजा गया था, लेकिन हमें यह नहीं मालूम था कि यह संदेश क्या था, इसे किसने भेजा था और आज वह किसके पास है.

शौरी की महारत ने हमें एक सुराग का पता दिया. असम पुलिस की स्पेशल ब्रांच की कमान उस समय 1955 बैच के आइपीएस अफसर समरेंद्र कुमार दास के हाथों में थी. असम आंदोलन के नेता उन्हें सरकार के सबसे बड़े पिट्ठू मानते थे और उनसे नफरत करते थे. शौरी ने सुझाव दिया, क्यों न हम उनके साथ मिलकर काम करें? मुझे लगा कि यह नादानी की बात है. अगर उनके पास कोई गोपनीय जानकारी है तो वे हमें इसके बारे में क्यों बताएंगे?

समर दास के नाम से मशहूर दास को अपने ऊपर गर्व था कि पूछताछ करने में वे बहुत माहिर हैं, लेकिन वे शौरी के बार-बार के इस सवाल के आगे टूट गए कि “लेकिन खुफिया विभाग का मुखिया कौन था दास साहब? ज़िम्मेदार आप ठहराए जाएंगे.” यह डर इतना गहरा हो गया कि एक रात उन्होंने सच उगल दिया. उन्होंने बताया कि हां, एक वायरलेस संदेश था नवगांव के ‘ओसी’ ने वह भेजा था.

अब हम उनसे उसकी एक कॉपी देने के लिए आग्रह, अनुरोध करने और यहां तक कि भीख तक मांगने लगे. उन्होंने साफ कह दिया कि वे ऐसा कभी नहीं करेंगे, लेकिन अंततः उन्होंने बताया कि नवगांव थाने के एसएचओ ज़हीरुद्दीन अहमद के पास उसकी एक कॉपी है और वे बहुत नाराज़ हैं.

38 साल पहले 1985 में दास इस दुनिया से चल बसे.

अब मुझे नवगांव थाने में जाकर वह संदेश ढूंढ निकालना था.


यह भी पढ़ेंः पाकिस्तान की अमन की बात पर सबसे अच्छा जवाब यही हो सकता है कि भारत कोई जवाब न दे


2014 के आम चुनाव के दौरान मैं असम का दौरा कर रहा था तब मैंने नेल्ली में भी रुकने के बारे में सोचा था. उस समय वहां तैनात ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संवाददाता समुद्रगुप्त कश्यप ने मुझे याद दिलाया कि नेल्ली का दौरा करने वाले रिपोर्टरों के बारे में असमी लोग यही सोचते हैं कि वे पत्रकार तीर्थयात्रा पर आए हैं.

मैं समझ गया कि वे मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं, लेकिन यह मेरे लिए दूसरी तरह की तीर्थयात्रा थी. मुझे अपनी यादों का इम्तहान लेना था, कुछ जगहों और लोगों का पता लगाना था.

समर दास के घर पर हुई उस बातचीत के अगले दिन, मई 1983 की उस शाम मैं नवगांव पहुंचा. जब तक मैं थाने में पहुंचा, अंधेरा हो चुका था. ओसी ज़हीरुद्दीन अहमद वहां नहीं थे, लेकिन किसी ने उस बात की पुष्टि की, जो दास ने हमें बताई थी. यह भी कि अहमद इधर काफी धार्मिक हो गए हैं और बहुत खामोश रहने लगे हैं. वे अभी शायद नज़दीक की मस्जिद गए हैं. उन्हें इस बात का बहुत मलाल है कि वे उस भयानक कत्लेआम को रोकने में नाकाम रहे.

मैं टहलता हुआ मस्जिद में पहुंचा. वहां मौलाना जैसे बढ़ी हुई दाढ़ी वाला एक अकेला शख्स इबादत की मुद्रा में बैठा था. मैं उनके बगल में बैठकर इंतज़ार करने लगा. उनसे जब नज़र मिली तो मैंने उनके पास आने का कारण बताया. मैं कह नहीं सकता कि उनकी आंखें पहले से भरी हुई थीं, या मेरी वजह से भर गईं थीं. उन्होंने कहा कि बेटे, मैं पुलिस के राज़ को कभी ज़ाहिर नहीं करूंगा, लेकिन तुमने मस्जिद के अंदर सवाल किया है और साढ़े तीन हज़ार मुसलमानों के कत्ल के लिए किसी को तो सज़ा मिलनी चाहिए, इसलिए आओ चलो मेरे साथ.

वे मुझे थाने ले गए और वो ‘लॉगबुक’ खोलकर सामने रख दी. याद रहे, यह 1983 की बात है. उस समय नवगांव में कोई फोटोकॉपी मशीन नहीं थी. और ‘लॉगबुक’ आपको कौन ले जाने देता? सो, मैंने सामान्य लेंस वाले अपने मिनोल्टा कैमरे से दो पूरी फिल्म पर उसकी फोटो खींची. अहमद एक हाथ से खुली हुई लॉगबुक’ पकड़े रहे और दूसरे कांपते हाथ से वह तार पकड़े रहे जिससे कम वोल्टेज वाला छोटा-सा बल्ब लटक रहा था जिसकी मद्धिम रोशनी में मैं फोटो खींच रहा था.

उसी की प्रतिलिपि ‘इंडिया टुडे’ में प्रकाशित अरुण शौरी की कवर स्टोरी के साथ मैगज़ीन के कवर पेज पर छपी थी. ओसी अहमद करीब दो दशक पहले गुज़र गए. मुझे बताया गया कि उनका बेटा एक कॉलेज में पढ़ाता है. अहमद की कहानी किसी विश्वासघात की नहीं बल्कि साहस की कहानी है, जिसे ज़रूर सुनाया जाना चाहिए.

नेल्ली में एक नई मस्जिद के 59-वर्षीय मौलवी मोहम्मद नूर इस्लाम ने मुझे बताया था कि उनकी मां को 10 गांवों की उस बस्ती के एक गांव अलीसिंहा में किस तरह मार डाला गया था, लेकिन उनकी कहानी भी जुझारूपन और पुनरुद्धार की है. उनके छह में से दो बच्चे अब चेन्नई और केरल में काम कर रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी लड़की शिमोगा में इस्लामिक स्टडीज़ में मास्टर्स (एमए) की पढ़ाई कर रही है. दूसरे बच्चे भी पढ़ाई कर रहे हैं, दूसरी दो लड़कियां एक कॉलेज में साइंस विषय की पढ़ाई कर रही हैं.

वे कहते हैं, 1983 में जो हुआ वह सियासत थी. वे असमिया भाषा में बात करते हैं, लेकिन मूलतः वे बांग्लादेश के मेमनसिंह के बंगलाभाषी हैं. मेमनसिंह वाले करीब एक सदी से ज़मीन की भूख और अवैध प्रवास के लिए बदनाम रहे हैं. 1931 में जनगणना करवाने वाले ब्रिटिश अधिकारी सी.एस. मुलेन ने लिखा है, “कंकाल जिसका भी हो, गिद्ध उसके ऊपर मंडराते ही हैं…खाली ज़मीन जहां भी होगी, मेमनसिंह वाले वहां पहुंच जाते हैं.” यह विदेशियों के खिलाफ आंदोलन का सूत्र बन गया.

आज, नेल्ली के उन मेमनसिंह वालों ने अपनी ज़िंदगी बना ली है और उनके बच्चे निश्चित ही नये हाइवे के पार बसे उन लालंग आदिवासियों से बेहतर तरक्की कर रहे हैं, जो उस दिन भालों और तलवारों से लैस होकर आए थे और ऐसा कत्लेआम किया था जैसा न पहले कभी किया गया था और न बाद में किया गया, और जिसके लिए किसी को सज़ा नहीं मिली.

(इसके साथ ही सीरीज़ समाप्त हुई)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः आंखों देखीः खून ही खून, बिखरी लाशें, गोली खाकर आगे बढ़ती भीड़, 40 साल बाद ताजा हुई नेल्ली दंगों की याद


 

share & View comments