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Thursday, 26 December, 2024
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भारतीय अर्थव्यवस्था की अच्छी रफ्तार, पर राह में अचंभों के लिए तैयार रहना जरूरी

कोविड के झटके से उबरती अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक संभावनाओं को बेरोजगारी, स्वास्थ्य सेवाओं के की बदहाली और खराब शिक्षा व्यवस्था के कारण झटका लग सकता है.

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ऐसा लगता है, दो चीजें भारत के लिए निश्चित हो गई हैं. एक यह कि वैश्विक अर्थव्यवस्था भले ही संकट में हो, भारत की आर्थिक ताकत बढ़ती गई है. दूसरी यह कि भाजपा का वर्चस्व जारी है, चाहे यह चुनाव जीतने के कारण हो या चुनाव नतीजे आने के बाद सत्ता हथियाने की उसकी चालों के कारण. इसके साथ ही जुड़ी हुई एक बात यह है कि सुपर वोट-जिताऊ नरेंद्र मोदी पर भाजपा की निर्भरता लगभग वैसी ही हो गई है जैसी इंदिरा गांधी पर कांग्रेस की थी; और दूसरी बात यह है कि भाजपा खरे गृहमंत्री अमित शाह के चुनाव-प्रबंधन पर भी उतनी ही निर्भर है.

लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि जब कोई बात निश्चित दिखती है तभी उसमें हैरान करने वाली बात हो जाती है जबकि आप उसके लिए तैयार नहीं रहते, जैसा कि चीन में शी जिनपिंग और ईरान में अयातुल्लाओं के साथ हुआ.

अभी अक्टूबर में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बॉस को चीन के एजेंडा और इसके आला निर्णयकर्ताओं पर अपना नियंत्रण जताने के लिए नेशनल पीपुल्स कांग्रेस का इस्तेमाल करना पड़ा. इसके बाद, दूरदराज़ के शिनजियांग की एक इमारत में लगी आग में करीब दर्जन भर लोगों की मौत ने पूरे देश में आंदोलन की आग लगा दी, वह भी एक पार्टी के शासन वाले देश में जिसने संपूर्ण निगरानी और सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था लागू कर रखी है.

कुछ आंदोलनकरियों ने शी से इस्तीफे की मांग भी की. इसी तरह, ईरान में अयातुल्ला के चार दशकों की हुकूमत पुलिस हिरासत में एक महिला की मौत के विरोध में हुए प्रदर्शनों से हिल गई.


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यह सब भारत में नये नागरिकता कानून और कृषि क़ानूनों के विरोध में हुए आंदोलनों से पैमाने के लिहाज से ही अलग है. बहरहाल, मोदी सरकार को इन दोनों कानूनों को वापस लेना पड़ा था. लेकिन दूसरे संघर्षों, मसलन भाषा के सवाल पर, भी आशंका बनी हुई है. केंद्र सरकार और अब तक अनुकूल रहे सुप्रीम कोर्ट में भी तनाव पनप रहा है, गैर-भाजपा शासित राज्यों के साथ भी टकराव है, और ‘सहकारी संघीय व्यवस्था’ का जो वादा किया गया था उस पर अमल के संकेत कम ही हैं.

ऐसी चिंताएं मोदी सरकार को स्वतंत्र आवाजों को दबाने से नहीं रोक सकतीं, मसलन एक स्वतंत्र टीवी समाचार चैनल जैसी दुर्लभ व्यवस्था को मित्र व्यवसायी के कब्जे में डालने से. वैसे तो यह सरकार अपने हिंदुत्ववादी एजेंडा को व्यवस्था के हर पहलू (मसलन इतिहास पुनर्लेखन) में आरोपित करने में जुटी है, और यह अभी तक अपरिवर्तित बचे संविधान के क्षीण ढांचे में शामिल किया जा रहा है.

चीन और ईरान में उभरे असंतोष की तरह यहां ऐसा कुछ हुआ तो उसे शांत किया जा सकता है, अगर शी या अयातुल्ला अपने यहां के बवंडर पर काबू पा लेते हैं. लेकिन मुद्दा (और खतरा) यह है कि जरूरत से ज्यादा पहरेदारी करने वाली सरकारों के खिलाफ विरोध के कारण अंतर्निहित असंतोष के कारणों से भिन्न हो सकते हैं. जब सब कुछ आपके हिसाब से हो रहा हो तब समझदार लोग अप्रत्याशित बातों के प्रति सावधान हो जाते हैं.

इस दृष्टि से, अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक संभावनाएं जबकि आश्वस्त कर रही हैं तब उन्हें चोट कैसे पहुंच सकती है? इतिहास पर नजर डालें, तो अर्थव्यवस्था तेल पर फिसलती रही है या सूखे में सूखती रही है. इनके कारण आम तौर पर महंगाई का चक्र और इसके संग आर्थिक वृद्धि को झटका लगता रहा है. मार्के की बात है कि सिस्टम ने इन पारंपरिक जोखिमों से लड़ने की ताकत बना ली है. लेकिन कोरोना महामारी ने भारी कीमत वसूली, न केवल बड़ी संख्या में मौतें हुईं बल्कि अर्थव्यवस्था दो साल तक गतिरोध की स्थिति में रही.

अब जबकि व्यवस्था इस सदमे से उबर रही है और देश दीर्घकालिक लक्ष्यों पर नजर टिका रहा है, उस आंतरिक कमजोरी पर ध्यान देने की जरूरत है जो महत्वाकांक्षाओं को झटका दे सकती है, मसलन करोड़ों लोगों की बेरोजगारी, जिनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें कमजोर मानव संसाधन का दर्जा दिया जा सकता है. इसलिए, वित्तमंत्री का यह बयान स्वागत के काबिल है कि अगले बजट में वे स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा पर ज़ोर देंगी.

गरीबों को रेवड़ी देकर चुप रखते हुए भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश पर ज़ोर देना जरूरी है. भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा बदहाल है. यदि ऐसा न होता तो कोविड के कारण मौतें कम होतीं. उधर, सार्वजनिक स्कूली शिक्षा से मैट्रिक पास और ग्रेजुएट निकलते हैं जो अच्छे काम के लिए प्रायः योग्य नहीं होते. अगर स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर निवेश को बढ़ाया जाता है तो यह समस्या के बारे में जागरूकता का संकेत देता है.

इसके बाद खासकर युवाओं में अफसोसनाक ढंग से अयोग्य उम्मीदवारों की बेरोजगारी का मामला आता है. बढ़ती असमानता के बीच, यह अप्रत्याशित विस्फोट का खतरा पैदा करता है. इसलिए बेहतर है कि सरकार इसका समाधान उसका सहारा लेकर न करे जिसे मार्क्स ने लोगों के लिए अफीम बताया था.

(अनुवाद: अशोक मिश्रा | संपादन: इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड के साथ विशेष व्यवस्था के तहत प्रकाशित)


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