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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतएक उत्तेजक पाकिस्तानी भाषण ने परमाणु खतरे को फिर ज़िंदा कर दिया, ये DGMO से बातचीत का वक्त है

एक उत्तेजक पाकिस्तानी भाषण ने परमाणु खतरे को फिर ज़िंदा कर दिया, ये DGMO से बातचीत का वक्त है

लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) किदवई का भाषण एक बार फिर दिखाता है कि 1971 और उसके बाद भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों की बातचीत में गूंजते रहते हैं.

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किसी समय एक महत्वपूर्ण विषय पर यह एक असाधारण भाषण था, लेकिन चारों ओर हो रही घटनाओं को देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं था. आखिरकार, खबरें इतनी गतिशील है कि एक समय प्रलय का विषय रहा हुआ अब अटकलों के हवाले कर दिया गया है. उस पर लंबी चिंता नहीं की जा सकती। जिसे यहां तक कि यह डराकर रूस यूक्रेन में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है, फिर भी अपने विषय-प्रेरित मूर्खता से उबरने से भी इनकार कर रहा है. परमाणु हथियार और रेडियोधर्मी युद्ध के खतरे को केवल सनसनीखेज होने के कारण लंबे समय से दरकिनार कर दिया गया है. इसलिए, जब पाकिस्तान में परमाणु कमान प्राधिकरण के वर्तमान सलाहकार बोलते हैं, तो सबको इसपे अधिक ध्यान आकर्षित करना चाहिए था.

लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) खालिद किदवई ने इस्लामाबाद के सामरिक अध्ययन संस्थान में शस्त्र नियंत्रण और निरस्त्रीकरण केंद्र में पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम पर बात की. मौका दक्षिण एशियाई परीक्षणों की 25वीं वर्षगांठ का था, लेकिन भाषण की विषय-वस्तु क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर अधिक महत्वपूर्ण थी। यह भाषण कोई उत्तर कोरिया के जैसे कोई मिसाइल प्रक्षेपित अभ्यास नहीं था, बल्कि बिना संकोच और बड़ी बातें बना कर टेबल पर पुरसा गया कोल्ड कट था. भाषण के तकनीकी पहलू काफी हद तक अपेक्षित लाइनों, छाती ठोकते हुए झंडा लहराने जैसी बातों पर आधारित थे, लेकिन जिस बात पर अधिक ध्यान देने की दरकार है वो है नीति के पीछे का मनोविज्ञान.


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‘बात करना सीखें’

यह जानने के लिए मनोविज्ञान में अब तक की नियमित बातचीत में बदलाव करना शामिल है, क्योंकि दशकों से चली आ रही भारत-पाकिस्तान वार्ता नियमित राजनीतिक-राजनयिक बयानों से आगे नहीं बढ़ पाई है. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के पैर छूने के इशारे से भी रिश्ते पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. इसलिए अब पाकिस्तान के परमाणु सिद्धांत द्वारा प्रतिपादित नीति को देखते हुए, एक अलग रास्ता अपनाना होगा यानी भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच एक नियमित बातचीत का शुरूआत करना. पाकिस्तानी सेना नेतृत्व की ओर से पर्याप्त स्वागत योग्य संकेत मिले हैं, जिनमें वे भी शामिल हैं जब वे कार्यरत थे. उनकी व्यावसायिकता को देखते हुए, यह निश्चित है कि भारतीय सैन्य पदानुक्रम प्रतिक्रिया देगी.

दोनों सेनाएं कभी भी ऐसी बातचीत में शामिल नहीं हुई हैं जिसमें शस्त्र का उपयोग शामिल न हो, इसलिए अब समय आ गया है कि वे एक-दूसरे से बात करना सीखें. पाकिस्तान की विषम नीतियों की उत्पत्ति उसकी सैन्य असुरक्षाओं से होती है. चूंकि कोई भी राजनेता या राजनयिक और न ही युद्ध उन असुरक्षाओं का समाधान खोजने में सक्षम है, इसलिए सैन्य- संवाद का मार्ग आज़माना उचित है. संरचित संवाद पूर्व नियुक्तियों, सैन्य अभियानों के प्रमुखों या महानिदेशकों, या किसी ऐसे मंच से शुरू हो सकता है जो इसे गोल्फ के दौर से बेहतर रूपरेखा प्रदान करता है. वैसे सेना मैं गोल्फ से कई अच्छी दोस्तियां बनी भी हैं.

समय के साथ इसे प्रमुख नियुक्तियों पर कार्यरत सेवारत अधिकारियों को शामिल करने के लिए संस्थागत बनाया जा सकता है. संस्थागत असुरक्षाओं को स्पष्ट रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है और ऐसा करने में कोई शर्म की बात नहीं है. तभी भारतीय इस नीति के पीछे के मनोविज्ञान को समझना शुरू करेंगे.

यह एक ऐसी यात्रा है जिसे लेफ्टिनेंट जनरल किदवई ने अपने हालिया भाषण में रेखांकित किया है और यह आधी सदी पहले शुरू हुआ था, ‘‘1971 के युद्ध के अपमान के बाद मई 1974 में पोखरण में भारत के परमाणु उपकरण के परीक्षण के बाद.’’ अब वर्तमान तक, जहां “लक्ष्य-समृद्ध भारत” में पाकिस्तान को लक्ष्यों की एक पूरी सीरीज़ में से चुनने की स्वतंत्रता बरकरार है.’ पहले के दो मील के पत्थर पाकिस्तानी सुरक्षा वार्तालापों में गूंजते हैं. हालांकि, उनकी अगली पंक्ति अधिक महत्वपूर्ण है, भारत ने ‘उसकी राजनीतिक इच्छाशक्ति और उस क्षमता को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की निर्मम पूर्ति में नियोजित करने का इरादा दोनों अवसरों पर पाकिस्तान को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया था.’

चालाक भारतीय व्यंग्यचित्र इस सदी में भी कायम है.

फिर अन्य असाधारण बिंदु आते हैं, ‘‘अल्लाह स्पष्ट रूप से हमारे पक्ष में था जब उसने लगभग एक दशक तक पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को सांस लेने की जगह प्रदान की जब सोवियत रुस ने 1979 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और पाकिस्तान के परमाणु परियोजना पर अंतर्राष्ट्रीय ध्यान पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया.’’ तो अब पाकिस्तान के पास एक पूर्ण स्पेक्ट्रम निरोध है जो क्षैतिज, त्रि-सेवा परिसंपत्तियों के साथ-साथ ऊर्ध्वाधर को भी कवर करता है, ‘‘0 मीटर से 2,750 किमी तक की रेंज कवरेज के साथ-साथ तीन स्तरों पर परमाणु हथियार विनाशकारी पैदावार: रणनीतिक, परिचालन और सामरिक.’’ सबसे बड़ी चिंता जीरो रेंज को लेकर है, न कि हज़ारों किलोमीटर तक मार करने की क्षमता को लेकर.


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कौन हैं जनरल किदवई?

शून्य का विश्लेषण करने से पहले सिद्धांतकार के बारे में और अधिक जानना जरूरी है. आर्टिलरी अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) खालिद किदवई ने 2000 में महानिदेशक रणनीतिक योजना प्रभाग का पदभार संभाला और विस्तार के माध्यम से वहीं रहे. वास्तव में वाशिंगटन के निरस्त्रीकरण विशेषज्ञ माइकल क्रेपोन ने उनकी तुलना एक अमेरिकी दिग्गज से की. ‘अमेरिकी परमाणु नौसेना के “जनक”, एडमिरल हाइमन रिकोवर की छवि इतनी ऊंची थी और कैपिटल हिल पर उनके समर्थक उन्हें इतना महत्वपूर्ण मानते थे कि सक्रिय कर्तव्य से उनकी सेवानिवृत्ति 81 वर्ष की परिपक्व उम्र तक के लिए स्थगित कर दी गई थी. एडमिरल रिकोवर के लिए पाकिस्तान का निकटतम अनुमान…किदवई है.’

लेफ्टिनेंट जनरल किदवई ने निस्संदेह पाकिस्तान के परमाणु शस्त्रागार को अमेरिकी, भारतीय, अल कायदा और एक्यू खान जैसे कभी-कभार किस्मत और तस्करी चाहने वालों की जासूसी निगाहों से सुरक्षित रखने में उत्कृष्ट काम किया होगा. एक अन्य पश्चिमी विश्लेषक ने उनका संक्षिप्त, लेकिन विस्तृत वर्णन किया, ‘उन्होंने अपना अधिकांश जीवन ऐसे देश में व्यवस्था की व्यवस्था बनाने की कोशिश में बिताया है, जहां ऑर्डर स्वाभाविक रूप से नहीं आते हैं. 1971 में किदवई को भारत के साथ युद्ध के दौरान पकड़ लिया गया और उत्तर भारतीय शहर इलाहाबाद में दो साल तक युद्ध बंदी के रूप में रखा गया — एक ऐसा अनुभव जिसके बारे में वह अभी भी चर्चा करने से हिचकते हैं’.

भारतीय कैद में एक पाकिस्तानी के मनोविज्ञान पर निस्संदेह प्रभाव पड़ा होगा. इसलिए, 1970 के दशक की ‘अपमान’ और भारत की ‘उस क्षमता को नियोजित करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और इरादे’ के बारे में पंक्तियां उस दिमाग के बारे में बहुत कुछ कहती हैं जो पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को निर्देशित करता है. जो संक्षेप में है:

  • भारत के सामरिक हथियारों को छुपाने की कोई जगह नहीं है.
  • इसलिए पाकिस्तान की ‘जवाबी कार्रवाई’ अधिक नहीं तो उतनी ही गंभीर हो सकती है.
  • स्वदेशी भारतीय बीएमडी या रूसी एस-400 के बावजूद, पाकिस्तान को “लक्ष्य-समृद्ध भारत” में लक्ष्यों के पूर्ण स्पेक्ट्रम में से चुनने की स्वतंत्रता बरकरार है, जिसमें काउंटर-वैल्यू, काउंटर-फोर्स और युद्धक्षेत्र लक्ष्य शामिल हैं.

इसलिए, अब समय आ गया है कि भारत और पाकिस्तान अपनी सेनाओं को नियमित आधार पर टेबल पर सभ्य तरीके से एक-दूसरे के साथ बातचीत करने की अनुमति दें. एक-दूसरे को जानने का यह अभ्यास कई संदेहों को दूर करेगा, गलतफहमियों को दूर करेगा और वर्तमान वास्तविकताओं के प्रति मन को खोलेगा. अतीत की राजनीतिक-राजनयिक प्रथाएं कहीं नहीं पहुंची हैं, इसलिए नए सिरे से प्रयास करना उचित है. अन्यथा लेफ्टिनेंट जनरल किदवई द्वारा प्रचारित शून्य मीटर क्षमता अत्याचारी अनुपात का एक प्रौद्योगिकी जाल बन जाएगी. अनुभाग स्तर पर कमान और नियंत्रण के साथ-साथ सैन्य रसद में भी अति गंभीर बदलाव आएगा.

(मानवेंद्र सिंह कांग्रेस के नेता, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट एडिटर-इन-चीफ और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति, राजस्थान के चेयरमैन हैं. उनका ट्विटर हैंडल @ManvendraJasol है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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