यह कहानी है चार पाकिस्तानी दोस्तों की. इनमें से तीन को एक दोस्त की खातिर बलि चढ़ा दिया जाता है और कहानी खत्म. पाकिस्तानी फौज की पीआर यानी जनसम्पर्क शाखा ‘इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन्स’ (आइएसपीआर) इसी तरह काम करती है.
आइएसपीआर के बहुप्रचारित टेलीविज़न ड्रामा ‘अहदे वफा’ में ये चार शख्स पाकिस्तानी राज्यतंत्र के चार खंभों की नुमाइंदगी करते हैं. एक नेता है, दूसरा पत्रकार है, तीसरा अफसरशाह है, और चौथा (नगाड़े की आवाज़) फौज में कप्तान है. हालांकि फौज कायदे से पाकिस्तानी राज्यतंत्र का खंभा नहीं है, लेकिन बारीकियों में कौन जाता है?
आइएसपीआर द्वारा प्रस्तावित और प्राइवेट ‘हम टीवी’ द्वारा प्रस्तुत ‘अहदे वफा’ को देशभक्ति की कहानी के रूप में पेश किया गया है जैसा कि प्रोपगैंडा प्रोडक्सनों के साथ अक्सर होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि यहां पाकिस्तानी गैर-फौजी लोग हमेशा गलत होते हैं और वर्दी वाले कभी कुछ गलत करते नहीं. सो, इससे सदमे में पड़ने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.
‘सुनहरे दिन’ या ‘अल्फा ब्रावो चार्ली’ जैसे पुराने सीरियलों— जो महत्वाकांक्षी जवान फौजी कैडेटों या अफसरों के ऊपर बनाए गए— से अलग ‘अहदे वफा’ को फौज के सख्त करियर का खुलासा करने के लिए नहीं बनाया गया है. बल्कि यह वर्दी वालों के सोच का जायजा लेता है और दिखाता है कि वे पाकिस्तान की मीडिया, सियासत, नौकरशाही की भूमिकाओं के बारे में क्या ख्याल रखते हैं. बाकी तमाम मुल्कों में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया को चार खंभे माना जाता है लेकिन पाकिस्तान में फौज ने खुद को इस लिस्ट में घुसेड़ लिया है. भला हो पक्के दुश्मन और पड़ोसी भारत का, सभी चारों संस्थाएं एक ही खेमे में हैं और उनमें कोई संस्थागत टकराव नहीं है.
यह टीवी शो बुलंदी के साथ खत्म होता है. चारों शख्स पुलवामा हमले और बालाकोट हवाई हमले के बाद जीत का जश्न मनाते हैं. आखिर, ये चारों शख्स असली दुश्मन इंडिया को शिकस्त देने की मुहिम पर जो थे!
अर्णव से लेकर अभिनंदन तक सारे नज़र आते हैं
धूर्त नेता नेशनल असेंबली की कश्मीर कमिटी का अध्यक्ष बन जाता है. कश्मीर मसले को दुनिया भर में उठाना उसका काम है. यह जाना-पहचाना ही है. शाहज़ैन अर्णव गोस्वामी (अमीश गोस्वामी) के टीवी शो में आता है और शो के होस्ट की सचमुच खिंचाई करता है. वैसे, स्क्रिप्ट राइटरों को पता होना चाहिए था कि अर्णव गोस्वामी के टीवी शो में उनके सिवा कोई नहीं बोलता (चीखता). इस शो में भारतीय वायुसेना के अभिनंदन वर्तमान से पूछताछ का प्रकरण भी है जिसमें उन्हें उनका मशहूर जवाब देते हुए भी दिखाया गया है— ‘मैं आपको यह नहीं बता सकता’… या कि ‘चाय शानदार है’. मानो हम उस स्थानीय अंकल को भूल गए हों, जिन्होंने अभिनंदन से पूछा था— ‘आपकी शादी हो गई है?’ अचानक हम मानो 2019 को फिर से जी रहे होते हैं. ‘पुलवामा का ड्रामा’ और ‘बालाकोट का फ्लॉप शो’ का भी जिक्र है.
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इस कुछ अजीबोगरीब पूछताछ में अभिनंदन से पूछा जाता है कि क्या उन्होंने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करने के बारे में सोचा था? अब यह समझ से परे है कि एक पैराशूट के साथ कोई हवाई हमला कैसे कर सकता है. अभि (जो कि उसके बैज पर लिखा है) पर तंज़ कसा जाता है कि उनकी सरकार ने किस तरह पहले कुलभूषण जाधव को भेजा और अब वे आए हैं.
कोई तालमेल नहीं है, मगर यह सब काफी भड़काऊ है.
अभिनंदन वहां कुछ दिन और रह जाते तो उनसे पाकिस्तान में कोरोना महामारी के लिए भी पूछताछ की जाती. इसलिए आश्चर्य नहीं कि एलओसी पर इस झड़प में जीत फौज के कैप्टन की होती है जो चमत्कारी ढंग से सीमा पार करता है, वहां पाकिस्तानी फौजी को पाता है और उसे वापस लाता है, भारतीय सैनिकों को खरी-खोटी सुनाता है और वापस लौटते हुए गोली खाता है. या अल्लाह! लेकिन घबराएं नहीं, वह जिंदा बच जाता है, आखिर वह हीरो है!
फौज का कैप्टन है साद, जो एसएसजी (स्पेशल ‘एस’ गैंग, जैसा कि वे सारे दोस्त खुद को कहते हैं) का मुखिया है, और यह कहने की बात नहीं है कि पाकिस्तान के लिए वह अब तक की सबसे बड़ी नेमत हैं. उसे तमाम खिताब मिल चुके हैं, वह टॉपर है, उसके डैडी फौज में मेजर जनरल हैं. वह ऐसा शख्स है जिसे आप अपने मां-बाप से मिलाने के लिए अपने घर ले जाना चाहेंगे. उसके साथ कुछ भी बुरा हो नहीं सकता. वह जन्मजात लीडर है, वह अपने फ़ौजियों में जोश भरने के लिए और अपने मुल्क के भले के लिए कायदे-कानून भी तोड़ सकता है. याद कीजिए, ऐसी फिल्म आपने पहले कहां देखी थी. जरा पाकिस्तान में असली तख्तापलट के उन वाकयों की याद दिलाइए, जिन्हें कायदे-कानून मानने वालों ने अंजाम दिए.
साद को कैप्टन कर्नल शेर खान के, जिसे नेशनल हीरो के रूप में पेश किया गया है, कमरे में रहते हुए दिखाया गया है. लेकिन यह उम्मीद मत रखिए कि इस बात का कोई जिक्र किया जाएगा कि पाकिस्तान ने करगिल जंग के हीरो शेर खान का शव लेने से शुरू में मना कर दिया था क्योंकि उसका कहना था कि उसके सैनिकों ने इस ऑपरेशन में भाग नहीं लिया. बाद में उनके शव को कबूल किया गया और उन्हें पाकिस्तान के सबसे ऊंचे वीरता सम्मान ‘निशान-ए-हैदर’ से नवाजा गया.
‘अहदे वफा’ में भी पाकिस्तान करगिल जंग हारता नहीं है. छोटी-छोटी इनायतों के लिए शुक्रिया.
नेता नकारा, सरकारी अमले निकम्मे
इस टीवी शो में सियासी नेता कौन है? शाहज़ैन मलिक— जो अक्खड़, तिकड़मी, सामंतवादी, और धूर्त है. जब वह पढ़ाई कर रहा था तब उसे पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता था. वह तो यही मानता था कि ‘मेरे बाप की सीट है, मैं तो एलेक्ट हो ही जाऊंगा’. आप पसंद करें या न करें, इस दुनिया में जो लोग कुछ नहीं बनना चाहते वे नेता बन जाते हैं. इस शो का एक संदेश यह है.
मलिक एक घोड़े को इसलिए गोली मार देता है क्योंकि वह उसके लिए रेस में जीता नहीं. हां, वह इतना क्रूर है. पहले वह अपने पत्रकार दोस्त को टीवी चैनेल से निकलवा देता है और फिर उसकी नौकरी वापस दिलाने में उसकी मदद करता है. और वह उसे इसका एहसास कराता है कि उसकी मदद से ही उसे वापस लिया गया है. यह सब कौन कर रहा है? मलिक सियासी एहसान हासिल करने के लिए शादी करता है और अपने ससुराल वालों से वादाखिलाफी करता है.
‘अहदे वफा’ की दुनिया में सिविल सर्विस के इम्तहान पास करना कोई बड़ी बात नहीं है. इससे आसान तो कुछ है ही नहीं. न हो तो शहरयार से पूछ लीजिए, जिसने सिर्फ दो महीने की तैयारी से सीएसएस का इम्तहान पास कर लिया और उसे पता है कि इंटरव्यू के बाद उसे कौन-सा ओहदा मिलेगा. जाहिर है कि ‘सिफ़ारिश’ उसे कोई भी ओहदा दिला सकती है. यानी, असली जीवन में लोग सिविल सर्विस के इम्तहान पास करने के लिए सालों जो तैयारी करते हैं उसका ‘अहदे वफा’ में कोई मोल नहीं है. शहरयार गरीब है और लोगों की सेवा करने वाला ईमानदार असिस्टेंट कमिश्नर है. सिविल लोग इसी एक राहत की उम्मीद कर सकते हैं.
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शरीक़ एक पत्रकार है, जो संयोग से एक कत्ल की खबर लेने के लिए कत्ल वाली जगह पर पहुंच जाता है. जब वह अपनी कंपनी के मालिक के पास आता है तो वह उसे मीडिया की भूमिका पर लंबा भाषण पिलाता है और बाद में कातिल को कत्ल के वीडियो की खरीदने के लिए फोन करता है. अब पता चलता है कि वे पाकिस्तानी मीडिया के बारे में किस तरह के ख्याल रखते हैं. तमाम चैनलों के मालिक अपराधियों के साथ मिले हुए हैं और ‘अहदे वफा’ के मुताबिक एक पत्रकार के रूप में आप तभी चमक सकते हैं जब आप सच की खोज करें लेकिन इसके साथ अगर यह ख्याल भी रखेंगे कि फौज के साहसी खंभे का सच से कोई ताल्लुक नहीं है तो आप मजे में रहेंगे. मीडिया का आतंकवाद से भी जुड़ाव है. लेकिन यह सवाल मत पूछिए कि क्या किसी फौजी का किसी आतंकवादी से कोई ताल्लुक रहा है या नहीं?
यह कोई पहला मौका नहीं है कि पाकिस्तानी ड्रामे में नेताओं या पत्रकारों को इस तरह खलनायक के रूप में पेश किया गया. लेकिन मुश्किल यह है कि ‘आइएसपीआर’ अपने प्रचार के लिए जनता के पैसे पर इस तरह के शो बना रहा है और नागरिकों को यह संदेश दे रहा है कि असली विलन तो वे ही हैं. पता नहीं इससे मुल्क की एकता को किस तरह बढ़ावा मिलेगा.
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)