‘माइनॉरिटी’ (अल्पसंख्यक) के बगैर ‘माइनॉरिटी कमीशन’ (अल्पसंख्यक आयोग)- अपने अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान यह तोहफा देने का वादा कर रहा है. लेकिन विडम्बना यह है कि इमरान खान की हुकूमत अहमदिया समुदाय की भलाई के लिए जो भी कदम उठाती है, वह उलटा ही पड़ता है. बात जब मुसीबतजदा अहमदियों की सुरक्षा की आती है तब ऐसा लगता है कि ‘नया पाकिस्तान’ में उनके लिए नया कुछ नहीं है.
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी की सरकार ने जब ‘नेशनल कमीशन ऑफ माइनरिटीज़’ में अहमदियों को शामिल करने का फैसला किया, तो विवाद खड़ा हो गया. कमीशन में उनको प्रतिनिधित्व देने का जिक्र होते ही जैसे पहाड़ टूट पड़ा. चंद घंटों के भीतर इस समुदाय के खिलाफ सोशल मीडिया पर मुहिम शुरू हो गई, कादियानों को गद्दार, दुनिया का सबसे बदतर काफिर कहा जाने लगा.
नफरत की मुहिम
इस मुहिम में संसदीय मामलों के राज्यमंत्री अली मुहम्मद खान भी शरीक हो गए. उन्होंने ट्वीट किया- ‘पैगंबर मोहम्मद का मखौल उड़ाने वालों के लिए एक ही सज़ा है- सिर कलम करना.’ गौरतलब है कि इन्हीं अली मुहम्मद ने पिछले साल बाल विवाह पर पेश किए गए एक बिल का जोरदार विरोध किया था और एक हिंदू सांसद से कहा था कि उन्हें इस्लाम विरोधी बिल पेश करने का कोई हक नहीं है. इस बीच, पीटीआई के सहयोगी चौधरी शुजात हुसैन ने अपनी आपत्ति यह कहते हुए जताई कि जब अहमदिया समुदाय खुद को अल्पसंख्यक नहीं मानता, तो उसे अल्पसंख्यक आयोग में शामिल करने का फैसला करके सरकार भानुमती का पिटारा ही खोल रही है.
सरकार के भीतर से उभरी इन दो आवाजों और सोशल मीडिया पर जारी मुहिम मजहबी मामलों के मंत्री नूरुल हक़ कादरी के लिए काफी थी कि वे इस ‘अफवाह’ का खंडन कर दें कि सरकार अहमदियों को ‘नेशनल कमीशन ऑफ माइनरिटीज़’ में शामिल करने के बारे में सोच रही है.
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वैसे, इस आयोग के गठन से पाकिस्तान के दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय भी खुश नहीं हैं. वे प्रधानमंत्री इमरान खान से अपील कर रहे हैं कि आयोग का गठन संसद में कानून बनाकर किया जाए, न कि मंत्रिमंडल की नोटिफिकेशन के जरिए. मांग की जा रही है कि यह आयोग भारत के अल्पसंख्यक आयोग की तर्ज पर बनाया जाए. जिसे पाकिस्तान और भारत के बीच 1950 के लियाक़त-नेहरू समझौते के तहत दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए गठित किया गया था. 2014 में पाकिस्तान के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश तस्सदुक हुसैन जिल्लानी ने सरकार को अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक ‘टास्कफोर्स’ गठित करने का आदेश दिया था. लेकिन कुछ हुआ नहीं. अब आशंका जाहिर की जा रही है कि इमरान खान की सरकार जिस नये कमीशन का प्रस्ताव दे रही है. वह बिना अधिकारों वाली एक नाकारा संस्था साबित होगी.
‘यू टर्न’ लेने में माहिर पीटीआई
आखिर,पीटीआई सरकार वह काम क्यों शुरू करती है जिसे वह पूरा नहीं कर सकती? इस सरकार के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. मजहबी समूहों के आगे यह हथियार डालती रही है. सितंबर 2018 में सत्ता में आने के तुरंत बाद इमरान खान ने जाने-माने अर्थशास्त्री आतिफ़ मियां को अपने आर्थिक सलाहकार बोर्ड से इसलिए निकाल दिया था क्योंकि वे अहमदी मत में भरोसा रखते थे. 2014 में इमरान ने उन्हें दुनिया के टॉप 25 अर्थशास्त्रियों में शुमार बताकर उनकी तारीफ की थी और उन्हें अपना भावी वित्त मंत्री भी बताया था. लेकिन इमरान से जब मियां के मजहबी रुझान और पैगंबर की सर्वोच्चता के बारे में सवाल पूछा गया तो प्रधानमंत्री ने यू टर्न ले लिया.
पाकिस्तान में दबाव डालने वाले समूहों के आगे बात-बात में हथियार डालने वाली सरकारें मजहबी अल्पसंख्यकों के साथ जिस बर्ताव करती रही हैं. वह अपराध से कम नहीं है. इसकी शुरुआत ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकार ने 1973 में दूसरे संविधान संशोधन के जरिए अहमदियों को अल्पसंख्यक घोषित करके की थी. इसके बाद के दशकों से अहमदियों को भारी नाइंसाफी झेलनी पड़ी है. अब अहमदियों को अपनी आस्था का प्रचार-प्रसार करने पर पेनल कोड की धारा 298(बी) और 298(सी) के तहत जेल भेजा जा सकता है. ईशनिन्दा के लिए उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है. सामाजिक स्तर पर भेदभाव की तो कोई सीमा ही नहीं है. यहां तक कि इस समुदाय की मस्जिदों और कब्रिस्तानों को निशाना बनाया जाता रहा है. यह सब पाकिस्तान के शासनतंत्र के अधीन होता रहा है.
पाकिस्तान में अल्पसंख्यक की परिभाषा
यह कहना हास्यास्पद ही है कि ‘अहमदियों को कमीशन में इसलिए शामिल नहीं किया जा सकता कि वे अल्पसंख्यक की परिभाषा में नहीं आते.’ तो वे किस परिभाषा में आते हैं? पाकिस्तान ने अहमदियों को खुद ही गैर-मुस्लिम घोषित किया था. अब, अहमदी अगर अल्पसंख्यक नहीं हैं, तो पाकिस्तान के शासन के साथ उनका क्या सामाजिक करार है? पाकिस्तान सरकार अपने अहमदिया नागरिकों को मनुष्य मानती है या नहीं?
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‘खतम-ए-नबूवत’ यानी पैगंबर मोहम्मद की सर्वोच्चता का मसला एक आसान सियासी हथकंडा है. जो भी राजनीतिक दल विपक्ष में रहा है वह दूसरे के खिलाफ इसका इस्तेमाल करता रहा है. लेकिन जब वह सत्ता में आता है तो उसका सुर बदल जाता है. इसी तरह इमरान खान ने 2017 में खादिम हुसैन रिजवी के धरने के दौरान पीएमएलएन सरकार के खिलाफ ‘चेज़ ऑफ ओथ’ मसले का फायदा उठाया था. रिजवी ने उस समय सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने चुनाव में उम्मीदवारों के लिए शपथपत्र में बदलाव करके उसे ‘मैं सत्यनिष्ठापूर्वक शपथ लेता हूं’ की जगह ‘मैं विश्वासपूर्वक शपथ लेता हूं’ कर दिया था. यह दुष्चक्र जारी है और इसका कहर अभागे अहमदियों को झेलना पड़ा है. किसी सियासी पार्टी को नहीं.
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित अमेरिकी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पाकिस्तान को उन देशों में शुमार किया है जहां इस मामले में स्थिति खास तौर से चिंताजनक है. इस आयोग ने कहा है कि पूरे पाकिस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति नकारात्मक है. ईशनिन्दा के और अहमदिया विरोध के कानूनों को व्यवस्थित तरीके से लागू करने और हिंदुओं, ईसाइयों तथा सिखों समेत सभी मजहबी अल्पसंख्यकों को जबरन इस्लाम धर्म में शामिल किए जाने की ओर से सरकार के आंखें मूंदे रहने से धार्मिक और आस्थागत स्वतन्त्रता का घोर उल्लंघन हुआ है.
भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति बरताव को लेकर इमरान खान के भारत विरोधी आरोप खुद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ उनकी सरकार के खराब रिकॉर्ड के कारण बेमानी हो गए हैं. क्या पहले वे अपने यहां के अल्पसंख्यकों को वाकई अल्पसंख्यकों का दर्जा देंगे? उनके अधिकारों की रक्षा का सवाल तो बाद में आता है.
भारत में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की जब भी खबर आती है. कुछ पाकिस्तानी लोग ‘मुसलमानों को बचाने के लिए जिन्ना का शुक्रिया अदा’ करने लगते हैं. जिन अहमदियों ने पाकिस्तान को बनाने में अहम भूमिका निभाई, काश वे भी एक दिन जिन्ना का शुक्रिया अदा कर पाते.
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)