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Sunday, 22 December, 2024
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बिहार में नीतीश कुमार को एक महंगी जीत का, जबकि तेजस्वी यादव को सर्वश्रेष्ठ पराजित नेता का खिताब मिला है

बिहार विधानसभा चुनावों में जीत के बाद भी यदि जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार खुद को असुरक्षित और असहाय महसूस करते हैं, तो इसके लिए वह स्वयं जिम्मेवार हैं.

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बिहार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी अगर जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार खुद को असुरक्षित और शायद असहाय महसूस करते हैं, तो इसके दोषी वे स्वयं हैं. जदयू से अधिक सीटें जीतने के बावजूद, पूरी संभावना है कि भारतीय जनता पार्टी अपना वादा निभाएगी और नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री घोषित करेगी. जदयू नेता के लिए यह एक बहुत महंगी जीत है, जिनका भाजपा के साथ कभी प्यार तो कभी तकरार का संबंध सबको पता है. मुख्यमंत्री की कुर्सी स्वीकार करने के बाद वह खुद को भाजपा के कर्ज के तले दबा हुआ पाएंगे.

अगर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर हो जाते हैं या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) छोड़ देते हैं, तो देर-सबेर उनकी पार्टी गुमनामी में खो जाएगी. यदि वह नई दिल्ली की राजनीति का विकल्प चुनते हैं, तो उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन काम करना होगा – वही व्यक्ति, एक समय जिसके साथ वह तस्वीर तक में साथ नहीं दिखना चाहते थे. बिहार में 2010 के चुनावों के दौरान वह पोस्टरों में उन्हें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ दिखाए जाने पर नाराज हो गए थे, और उन्होंने अखबारों को कानूनी कार्रवाई तक की धमकी दे डाली थी. उन्होंने मोदी द्वारा 2008 के कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए दी गई 5 करोड़ रुपये की सहायता राशि भी लौटा दी थी. लेकिन राजनीति शर्मिंदगी वाले क्षणों को भूलने की कला भी है.

बिहार में हारे हुए सर्वश्रेष्ठ नेता का पुरस्कार आदर्श रूप से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव को मिलना चाहिए. एक क्षेत्रीय पार्टी के रूप में, राजद ने शायद इस चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ क़दम आगे बढ़ाया है. 2019 के लोकसभा चुनावों की पराजय, और अपने पिता के बिहार चारा घोटाला मामले में जेल में होने के कारण तेजस्वी यादव को जातिगत समीकरण पर आधारित पुराने तरीके का अनुसरण करने के बजाय जीत के लिए एक अलग रणनीति पर विचार करना पड़ा. 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत ने संकेत दे दिया था कि विधानसभा चुनावों में मोदी को निशाना बनाने का उल्टा असर पड़ेगा.


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नया राजद, पुरानी कांग्रेस

लालू प्रसाद और राबड़ी देवी (दोनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री) के नौ बच्चों में सबसे छोटे 31 वर्षीय तेजस्वी यादव ने ज़रूर ही पिछले चुनाव परिणामों का बारीकी से विश्लेषण किया होगा. सबसे पहले, उनके पिता और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की तस्वीर पार्टी के चुनावी पोस्टरों से गायब हो गई. फिर उन्होंने ‘उन 15 वर्षों के शासन में किसी भी गलती’ के लिए माफी मांगी, जो कि प्रकटत: भ्रष्टाचार का प्रतीक बने लालू-राबड़ी शासन का जिक्र था. उल्लेखनीय है कि इसी साल पूर्व में आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने भी ऐसी ही रणनीति अपनाकर विधानसभा चुनावों में सुखद नतीजे प्राप्त किए थे.

तेजस्वी यादव का चुनाव अभियान स्वघोषित सुशासन बाबू के 15 सालों के ‘कुशासन’ को मुख्य निशाना बनाने, और खुद को नीतीश कुमार के विकल्प के तौर पर पेश करने पर केंद्रित था. एनडीए खेमे ने 10 लाख नौकरियां देने के तेजस्वी के वादे की भले ही खिल्ली उड़ाई हो, लेकिन वह स्थानीय मुद्दों को उठाते रहे और विकास की भाषा बोलते रहे जो कि ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे का स्थानीय संस्करण था. इसका परिणाम 58 प्रतिशत स्ट्राइक रेट के साथ 75 सीटों पर राजद की जीत और ‘सबसे बड़ी पार्टी’ के खिताब के रूप में सामने आया.

जिन लोगों ने उन्हें कलंकित लालू प्रसाद यादव के बेटे तथा अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले और वंशानुगत नेताओं के क्लब के नए सदस्य के रूप में खारिज करना शुरू कर दिया था, उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ सकती है. तेजस्वी यादव के पास बिहार पर लगे ’बीमारू’ के ठप्पे को मिटाने के वास्ते विपक्ष के नेता के रूप में सकारात्मक भूमिका निभाने का दुर्लभ अवसर है. लेकिन राजनीति में जो लोग अचानक तेज़ी से ऊपर उठते हैं, अक्सर वे उससे भी अधिक तेज़ी से नीचे भी गिरते हैं.

विडंबना यह है कि तेजस्वी की चुनावी रणनीति कांग्रेस द्वारा कई जगह अपनाए जा चुके तरीके की नकल लगती है. कांग्रेस पार्टी ने छत्तीसगढ़ में 2018 के विधानसभा चुनावों के दौरान कमोबेश ऐसी ही रणनीति अपनाई थी, जहां अपेक्षाकृत अल्पज्ञात भूपेश बघेल ने केवल स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया और राष्ट्रीय नेताओं को चुनाव अभियान से बाहर रखा, हालांकि राहुल गांधी ने लगभग 19 रैलियों को संबोधित किया था. इसी तरह कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब विधानसभा चुनावों को भी स्थानीय प्रकृति का बना दिया था, जो कि कांग्रेस के लिए काम कर गया.

लेकिन छत्तीसगढ़ और पंजाब में भाजपा के स्थानीय नेताओं के खिलाफ स्वयं कांग्रेस ने चुनावी लड़ाई लड़ी थी. जबकि उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में और अब बिहार में, कांग्रेस क्रमश: समाजवादी पार्टी (सपा) और राजद के कंधे पर सवार थी. और दोनों ही पार्टियों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी और उन्हें बड़ी संख्या में कांग्रेस को सौंपी गई सीटें गंवानी पड़ी.

भावी राजनीति का एक नया दौर

ये देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के आगामी चुनावों में क्या होता है. इन महत्वपूर्ण गैर-भाजपाई, गैर-कांग्रेसी राज्यों में भाजपा और स्थानीय पार्टियों के लिए दांव बड़े ऊंचे हैं. इस बात की कम ही संभावना है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की रणनीति में कांग्रेस को कोई महत्व दिया जाएगा. लेकिन वहां अकेले चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस निश्चय ही तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के वोट बैंक में सेंध लगाएगी. हालांकि किसी भी स्थिति में, संभावना यही है कि उसके हाथ कुछ भी नहीं आएगा. तमिलनाडु में, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) अब शायद सौ बार सोचे कि लगातार हारने वाली कांग्रेस के साथ गठबंधन किया जाए या नहीं. कांग्रेस तमिलनाडु में 1967 से ही सत्ता से बाहर है, और वहां उसके पास न तो कोई मजबूत स्थानीय नेता है और न ही संगठनात्मक ताकत.

बिहार चुनाव ने राष्ट्रीय राजनीति को अगले दौर की एक दिलचस्प स्थिति में पहुंचा दिया है. निकट भविष्य में कांग्रेस के पुनरुत्थान की कोई संभावना नहीं दिखती है. ऐसा लगता है कि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का अवसर आ गया है. अब भाजपा का उत्तरोत्तर स्थानीय दलों से मुक़ाबला होगा और वह क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करेगी. भारत के सर्वोत्तम हित में भाजपा और क्षेत्रीय दलों, दोनों को ही सहकारी संघवाद को अपनाने की कोशिश करनी पड़ेगी. वर्तमान में, एनडीए में भाजपा के साथ करीब 23 दल हैं, लेकिन तमिलनाडु के अलावा किसी अन्य राज्य में वे सत्ता में नहीं हैं.

(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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