अगर आप पाकिस्तान में एक मज़हबी अकलियत (धार्मिक अल्पसंख्यक) हैं, तो आप 18 साल की उम्र तक कोई गाड़ी नहीं चला सकते हैं, लेकिन महज आठ साल की उम्र में भी आप ईशनिंदा के शिकार बन सकते हैं.
इसी साल जुलाई के आख़िर में, पंजाब के रहीम यार खान जिले के भोंग कस्बे में एक आठ वर्षीय हिंदू लड़का गलती से एक मदरसे में घुस गया था. इसके बाद मौलवी हाफिज मुहम्मद इब्राहिम द्वारा मदरसे में घूमने के लिए फटकार लगाने पर उस लड़के ने कथित तौर पर डर के मारे कालीन पर पेशाब कर दिया. इब्राहिम ने इसकी पुलिस शिकायत दर्ज कराई जिसमें उसने यह दावा किया कि इस हिंदू लड़के ने जानबूझकर मदरसे में पेशाब किया और मज़हबी किताबों की तौहीन की है.
इस आठ वर्षीय लड़के पर पाकिस्तान दंड संहिता के धारा 295-ए के तहत मामला दर्ज किया गया था, जो ‘किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को शब्दों या सादृश्य रूप में जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से अपमानित करने के लिए’ 10 साल तक की सज़ा का प्रावधान करता है. इस तरह वह पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून के परेशान करने वाले इतिहास का सबसे कम उम्र का शिकार बना गया. एक स्थानीय अदालत द्वारा उसे जमानत दिए जाने के बाद भी मौलवी रज्जाक सूमरो के नेतृत्व में एक ऑनलाइन हिंदू विरोधी अभियान बदस्तूर जारी रहा. अंततः इसी अभियान के नतीजे में भोंग में गणेश मंदिर पर सौ से भी अधिक लोगों की भीड़ ने हमला कर दिया. उन्होंने मंदिर में तोड़फोड़ की और देवताओं की मूर्तियों को अपवित्र कर दिया. हिंदू समुदाय के लोगों की दुकानें जबरन बंद कर दी गईं, कई हिंदू परिवार ईशनिंदा की प्रतिक्रिया में होने वाली की हिंसा के डर से उस इलाक़े से भाग गए.
पिछले 12 महीनों में यह पाकिस्तान में किसी मंदिर पर हुए आठवां हमला है. एक तरफ जहां ईशनिंदा के झूठे आरोप का सामना करने वाले लोगों को अंतहीन पीड़ा दी जाती है, वहीं मंदिरो पर हमला करने वाले ईशनिंदा क़ानून के अपराधियों को सरेआम बेखौफ घूमते देखा जा सकता है, जैसे कि करक में एक ऐतिहासिक मंदिर में तोड़फोड़ के मामले में हुआ जहां मौलवी ने सिर्फ़ माफी मांगी और उसे माफ़ कर दिया गया.
भविष्य में अपने साथ होने वाले बर्ताव के डर से, यह हिंदू लड़का और उसका परिवार अभी भी छिपा हुआ है. ईशनिंदा की मात्र अफवाह या झूठा आरोप भी हमेशा के लिए किसी की जिंदगी बदल देता है. यह उस लगातार उत्पीड़न में एक नया जोड़ है जिसका पाकिस्तान में रहने वाला हिंदू समुदाय अपनी नाबालिग लड़कियों के जबरिया धर्मांतरण और उन्हें निकाह के लिए मजबूर करने के रूप में सामना करता रहता है.
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बदलाव की कोई चाह ही नहीं है
पाकिस्तान के मामले में बच्चों पर ईशनिंदा का आरोप लगाया जाना कोई नई बात नहीं है. इससे पहले 2016 में, एक नौ वर्षीय ईसाई लड़के इज़हान और उसकी मां पर क्वेटा में कुरान को जलाने का आरोप लगाया गया था. राजनीतिक और मानव अधिकार समूहों के हस्तक्षेप किए जाने के बाद उन्हें पूछताछ के उपरांत छोड़ दिया गया. साल 2011 मे एक 13 साल की बच्ची फरयाल भट्टी पर एक इस्लामियात क्लास में उर्दू का ग़लत हिज़्जा (स्पेलिंग) करने के बाद ईशनिंदा का आरोप लगाया गया था. डाउन सिंड्रोम नाम की बीमारी से पीड़ित एक और 12 वर्षीय लड़की, रिम्शा मसीह, पर भी एक स्थानीय इमाम द्वारा कुरान को अपवित्र करने का गलत आरोप लगाया गया था. इसी तरह 2018 में, 16 वर्षीय नबील मसीह पर फेसबुक पर काबा की एक तस्वीर साझा करने के लिए ईशनिंदा का केस दर्ज किया गया था. और इससे भी काफ़ी पहले, साल 1993 में, 11 वर्षीय सलामत मसीह पर अपने पिता और चाचा के साथ एक मस्जिद की दीवार पर अपवित्र लेख लिखने के लिए ईशनिंदा का आरोप लगाया गया था.
अपने विवादित ईशनिंदा कानून के कारण दुनिया भर से आलोचना बटोरने के बावजूद पाकिस्तान सरकार इस मामले में अडिग है. इसमें किसी तरह की प्रक्रियात्मक बदलाव करने की भी उसकी कोई इच्छा नहीं दिखी है. साल 2017 के पाकिस्तान की एक हाई कोर्ट के फैसले में ईशनिंदा के झूठे आरोप लगाने वालों को सज़ा देने के लिए एक कानून बनाने की मांग की गयी थी. पर इस बारे में कोई प्रगति नहीं हुई क्योंकि सत्ता मे बैठी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) ने 2018 में सीनेट से इस बिल को वापस ले लिया था. इसी वजह से आज तक, पाकिस्तान में किसी को भी एक अन्य पाकिस्तानी नागरिक पर ईशनिंदा का झूठा आरोप लगाने के दंडित नहीं किया गया है, भले ही कई पीड़ितों ने उस अपराध के लिए 20 साल से भी अधिक का वक्त जेल में बिताया हो, जो उन्होंने किया ही नहीं था.
इसलिए, जब यूरोपीय संघ की संसद पाकिस्तान के ईशनिंदा कानूनों से जुड़े अन्याय और भेदभाव को उजागर करती है और इसका जीएसटी + का दर्जा छीनने की मांग करती है, तो इसके मंत्री एक कतार मे खड़े हो इसे देश के खिलाफ एक बड़ी साजिश बताते हैं. पूरी दुनिया को यही बताया जाता है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को लेकर कोई समस्या है ही नहीं.
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जिन्ना की तक़रीर को सिरे से भुला दिया गया
अगस्त का महीना हमेशा से यादगारी वाले दिनों से भरा होता है. इसी में वह दिन – 14 अगस्त- आता है जब पूरा पाकिस्तान अपनी आज़ादी का जश्न मनाता है और तो और दूसरे ही दिन 15 अगस्त भी आता है जिसे पाकिस्तान अपने आज़ादी के दिन के रूप में मनाना कतई नहीं चाहता. क़ायदे -ए -आज़म मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा 15 अगस्त को पाकिस्तान का जन्मदिन बताने वाले 1947 में दिए गये तमाम भाषणों और बयानात के बावजूद, 1948 में आज़ादी के दिन को बदल कर 14 अगस्त कर दिया गया था.
इसी महीने के एक और दिन 11 अगस्त को पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना के द्वारा 1947 में दिए गये भाषण के एक शानदार हिस्से की याद में मनाया जाता है. तब जिन्ना ने कहा था, ‘आप आज़ाद हो; आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आज़ाद हो, आप इस पाकिस्तान मुल्क में अपनी मस्जिदों या किसी भी अन्य जगह पर जाने या इबादत करने के लिए आज़ाद हो; आप किसी भी मज़हब या जाति या पंथ के हो सकते हैं पर इसका राज्य के काम-काज से कोई मतलब नहीं है.’इस भाषण को ब्लैक आउट कर दिया गया, इसे जानबूझकर ख़त्म कर दिया गया, और इसे कौमी बहस-मुहासिबे में भी कम करके आंका गया. जैसा की आज हम इसे कहेंगे – जिन्ना का यह भाषण गायब ही हो गया. और इसके साथ ही गायब हो गया राज्य का मज़हब से कोई मतलब नहीं होने का मंसूबा.
2009 के बाद से पाकिस्तान, 11 अगस्त को ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक दिवस’ के रूप में मनाता है. असलियत में यह सारी कवायद और ज़्यादा भाषणों, मज़हबी अकलियत के लिए शुक्रिया जताने और जिन्ना के ‘आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आज़ाद हो …’ वाले 52-शब्दों के टेक्स्ट को पोस्ट करने का एक दिन मात्र होता है.
जिन्ना के पाकिस्तान को खोजने के बारे में हमेशा बात की जाती रहेगी, लेकिन असलियत में किसी भी सरकार की अपने अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ इस तरह का एक सामाजिक अनुबंध बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है जिसमें उत्पीड़नकारी कानून और नीतियां शामिल नहीं हों.
लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. प्रस्तुत विचार व्यक्तिगत हैं.
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