इंदिरा गांधी की 41वीं पुण्यतिथि के मौके पर मैंने अपने कुछ दोस्तों और परिवार वालों से वही सवाल पूछा जो मैं अक्सर अपनी किताब पर चर्चा के दौरान पूछती हूं — “क्या आपको याद है, जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, तब आप क्या कर रहे थे?”
जवाब हमेशा चौंकाने वाले होते हैं. जो भी लोग 31 अक्टूबर 1984 को, यानी उस दिन जब इंदिरा गांधी को उनके सिख अंगरक्षकों ने गोली मारी थी, याद करने की उम्र में थे — उन्हें ठीक-ठीक याद है कि वे उस वक्त क्या कर रहे थे.
कोई बाल कटवा रहा था. कोई केक खरीदने गया था. कोई कॉलेज की कैंटीन में नींबू पानी पी रहा था. एक ने बताया कि उसकी मां इतनी सदमे में थी कि उस दिन खाना तक नहीं बना सकी.
ऐसा लगता है मानो पूरे देश की एक पीढ़ी के लिए उस पल वक्त ठहर गया था. घड़ियां रुक गई थीं. लोग थम गए थे. देश सन्न हो गया था. हवा में जैसे सामूहिक सदमे की भावना तैर रही थी. इंदिरा गांधी, नहीं रहीं? — यह सुनना किसी निजी चोट जैसा था, मानो देश के दिल पर किसी ने सीधा वार कर दिया हो.
1970 के दशक में पले-बढ़े करोड़ों भारतीयों के लिए वह पल उनकी निजी यादों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया. आखिर लोग इंदिरा गांधी के प्रति इतनी गहरी भावना क्यों रखते हैं?
आखिरकार, 1984 तो उस दौर का समय था जब मीडिया का प्रभाव आज जैसा नहीं था. न 24 घंटे चलने वाले टीवी चैनल थे, न सोशल मीडिया, न व्हाट्सऐप, न “ब्रेकिंग न्यूज़” का हंगामा. प्रधानमंत्री की हत्या जैसी खबरें हमारे घरों या फोन स्क्रीन पर तुरंत नहीं पहुंचती थीं.
फिर भी, बिना इस मीडिया के सहारे, बिना सोशल मीडिया की शोर-शराबे वाली दुनिया के, इंदिरा गांधी ने कैसे अकेले अपने व्यक्तित्व से पूरे देश के दिलो-दिमाग पर इतनी गहरी छाप छोड़ दी — जैसी कोई और नेता आज़ादी के बाद नहीं छोड़ सका?
इंदिरा गांधी — एक सर्वभारतीय शख्सियत
अगर हम भारत के सभी प्रधानमंत्रियों की बात करें — यहां तक कि नरेंद्र मोदी को भी शामिल करें तो मेरे हिसाब से इंदिरा गांधी ही ऐसी नेता हैं जिनकी याद आज भी सबसे ज़्यादा ताज़ा है. उनका नाम सुनते ही हमारे दिमाग में कोई राय या विश्लेषण नहीं, बल्कि यादें जाग उठती हैं. उनकी मृत्यु को सोचते ही भावनाएं उमड़ पड़ती हैं और उनका जीवन हमें किसी दूर के इतिहास की तरह नहीं, बल्कि अपने-सा महसूस होता है.
इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्रियों की सूची में एक अनोखी शख्सियत हैं. अपनी 2017 की जीवनी में मैंने उन्हें भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री कहा था, लेकिन वे केवल सबसे ताकतवर नहीं — बल्कि सबसे ज़्यादा याद की जाने वाली प्रधानमंत्री भी हैं.
किसी और प्रधानमंत्री के पास वैसा रहस्यमय, लगभग अव्याख्य आभामंडल नहीं था. जवाहरलाल नेहरू अपने समय के सबसे बड़े नेता थे, लेकिन वे स्वतंत्रता आंदोलन से निकले थे और महात्मा गांधी, सरदार पटेल जैसे कई दिग्गजों के साथ एक बड़े नक्षत्रमंडल का हिस्सा थे.
लाल बहादुर शास्त्री का कार्यकाल बहुत छोटा रहा — उनकी असमय मृत्यु ने उनकी यात्रा अधूरी छोड़ दी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो ज़रूर, लेकिन तब उनकी उम्र बहुत हो चुकी थी. चौधरी चरण सिंह का कार्यकाल भी कुछ महीनों का ही रहा.
राजीव गांधी जब सत्ता में आए तो प्रचंड बहुमत से आए, लेकिन वे कभी भी नेहरू-गांधी परिवार की छाया से पूरी तरह बाहर नहीं निकल सके और पी.वी. नरसिंह राव एक अनुभवी कांग्रेस नेता थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व पर्दे के पीछे की राजनीति से ज़्यादा जुड़ा रहा, न कि करिश्माई सार्वजनिक छवि से.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जिन पर मैंने दूसरी जीवनी लिखी, भारत के सबसे प्रिय प्रधानमंत्री रहे, लेकिन वाजपेयी भी इंदिरा गांधी जैसी सर्वभारतीय लोकप्रियता हासिल नहीं कर सके. उनका असर मुख्यतः हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित रहा.
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी इंदिरा गांधी जैसी सर्वव्यापक नहीं है. उनका प्रभाव एक मज़बूत मीडिया और सोशल मीडिया तंत्र के ज़रिए बढ़ाया गया है, जहां पेशेवर प्रचार टीमों ने बारीकी से तैयार अभियानों और बड़े पैमाने की पब्लिसिटी के सहारे उनकी छवि को उभारा है. इंदिरा गांधी को ऐसे किसी प्रचार तंत्र की ज़रूरत नहीं थी. वे अकेली ऐसी नेता थीं जो 1980 के आम चुनाव में दक्षिण (तत्कालीन आंध्र प्रदेश की मेदक सीट) और उत्तर (उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट) — दोनों जगह से जीत सकती थीं.
दक्षिण भारत में वे “इंदिरा अम्मा” थीं और उत्तर में “इंदिराजी”. वे कश्मीर की बेटी थीं, इलाहाबाद में पली-बढ़ीं, रायबरेली की बहू बनीं, चिकमंगलूर से वापसी करने वाली “कमबैक क्वीन” रहीं और पाकिस्तान पर निर्णायक सैन्य जीत के बाद कोलकाता में नायिका बनकर उभरीं.
उनकी लोकप्रियता किसी क्षेत्र या भाषा की सीमाओं में बंधी नहीं थी — न तब और न अब.
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इंदिरा को आज भी याद करने की 5 वजहें
तो आखिर ऐसा क्या है जो इंदिरा गांधी को आज भी भारत की राजनीति में ज़िंदा रखता है? उनकी मृत्यु के 50 साल बाद भी उनका शासन, जीवन और व्यक्तित्व इतने जीवंत क्यों हैं? क्यों वे आज भी सबसे ज़्यादा याद की जाने वाली प्रधानमंत्री हैं?
यह हैं उसकी पांच बड़ी वजहें —
1. एक ऐसी महिला जो सबके सामने थी, जब औरतें गुम थीं
इंदिरा गांधी उस दौर में एक सार्वजनिक महिला थीं, जब समाज में औरतों की मौजूदगी बहुत कम थी. सही है, आज़ादी के आंदोलन ने कई महिलाओं को सक्रिय भूमिका तो दी थी, लेकिन आज़ादी के बाद कॉरपोरेट दफ्तरों, खेलों, सिविल सर्विस, मीडिया या विज्ञान और अकादमिक क्षेत्र में महिलाएं लगभग नदारद थीं.
आज महिला मतदाता किसी भी पार्टी की जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाती हैं, लेकिन 1970 और 1980 के दशक में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बहुत कम थी. 1980 में पुरुषों और महिलाओं के मतदान में लगभग 10% का अंतर था. ऐसे समाज में जहां औरतों के साथ भेदभाव, अन्याय और उपेक्षा आम बात थी, इंदिरा गांधी उम्मीद और अवसर का प्रतीक थीं.
उन्होंने खुद उपहास और तिरस्कार झेला. 1966 में जब वे प्रधानमंत्री बनीं, तब संसद में उन्हें “गूंगी गुड़िया” और “सुंदर महिला” जैसे तंज झेलने पड़े, लेकिन अपने करियर के अंत तक वे उस मशहूर तस्वीर की प्रतीक बन गईं जिसमें रघु राय ने उन्हें पुरुष मंत्रियों से घिरे एकमात्र बैठी हुई महिला प्रधानमंत्री के रूप में दिखाया था.
साड़ी पहने, चप्पल पहने, सिर ढके एक छोटे कद की महिला का इस तरह पुरुषों के बीच आत्मविश्वास से चलना अपने आप में अद्भुत और चौंकाने वाला दृश्य था.
2. एक ऐसी नेता जो लोगों को बांटती नहीं, बल्कि भावनाएं जगाती हैं
इंदिरा गांधी की खासियत ये थी कि वे बहुत ध्रुवीकरण करने वाली शख्सियत थीं — लोग या तो उनसे बेहद प्यार करते थे, या बहुत नफरत. कुछ लोग उनकी राष्ट्रवादी छवि और हिम्मत के दीवाने थे, तो कुछ उनके तानाशाही रवैये और परिवारवाद की झुकाव के कारण उनसे खिन्न, लेकिन दिलचस्प बात ये है कि जो उनसे नफ़रत करते थे, वे भी उनके किस्से सुनाना पसंद करते थे.
1970 और 80 के दशक में राजनीति की हर बातचीत का केंद्र वे ही थीं. आज भी उन्हें “चुनी हुई तानाशाही” की जननी कहा जाता है. वे निडर और रणनीतिक राजनीतिज्ञ थीं, जिन्होंने पार्टियां बनाईं और तोड़ीं. आज़ाद भारत के पहले ‘व्यक्तित्व पूजक’ के रूप में उन्होंने भारतीय राजनीति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी.
वे विश्लेषण नहीं, भावना का विषय थीं.
3. गरीबों की मसीहा और भारत की पहली ‘पॉपुलिस्ट’ नेता
इंदिरा गांधी भारत की पहली जननेता थीं, जिन्होंने खुद को गरीबों की मसीहा के रूप में पेश किया. आज़ादी के बाद के दशकों में राजनीति में राममनोहर लोहिया, वाय.बी. चव्हाण, देवराज उर्स, कर्पूरी ठाकुर और के. कामराज जैसे नेता जनता के बीच लोकप्रिय थे. उस वक्त राजनीति को समाज का सबसे सम्मानजनक क्षेत्र माना जाता था.
इंदिरा गांधी का नारा “गरीबी हटाओ”, आम जनता से उनका जुड़ाव, रोज़ाना की सभाएं, सरल हिंदुस्तानी भाषा और लोककथाओं जैसे भाषण — इन सबने उन्हें बाकी नेताओं से अलग बना दिया.
नेहरू की ऑक्सफोर्ड से पढ़ी बेटी अब झोपड़पट्टियों में बैठने वाली, जनता से सीधी बातचीत करने वाली महिला बन गई थीं. उन दिनों Z+ सुरक्षा नहीं होती थी — वे आम लोगों के बीच ऐसे बैठ जाती थीं, जैसे कोई अपना हो.
वे बड़ी वक्ता नहीं थीं, लेकिन उनकी सीधी, दिल से बात करने की शैली ने उन्हें भीड़ के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया.
4. एक इंसान, जो अपनी कमज़ोरियों के साथ सामने आईं
इंदिरा गांधी अपने निजी जीवन में भी बहुत मानवीय थीं. उनका अकेलापन, असफल विवाह, पिता की मृत्यु, विधवा होना, बेटे की मौत — ये सब जनता के सामने हुआ. उनका जीवन राजनीति और निजी संघर्ष का मिला-जुला सफर था. लोग उनकी पीड़ा में दुखी होते थे, और उनकी जीत पर खुश.
1977 में रायबरेली से हारने के बाद जब कुछ महीनों में वे वापस लौटीं, तो जनता ने उन्हें खुले दिल से माफ कर दिया और प्यार से वापस स्वीकार किया. वे कोई मंच पर दूर बैठी नेता नहीं थीं, बल्कि आम इंसान की तरह जीवन जीती थीं.
उन्होंने अपमान भी झेला — 1977-78 में शाह आयोग की पूछताछ के दौरान बेइज़्जती, 1977 की हार के बाद अकेलापन, लेकिन 1980 में शानदार वापसी की. फिर बेटे की मौत और परिवार में कलह — सब कुछ लोगों के सामने था.
उनकी जीवनी लिखते हुए पता चला कि वे बहुत चिंतित, असुरक्षित और संवेदनशील इंसान थीं, जो कभी-कभी शक और भय से घिर जाती थीं — जैसे विपक्ष को “सीआईए की एजेंट” कह देना, लेकिन यही उतार-चढ़ाव उन्हें करोड़ों भारतीयों के लिए अपने जैसा बना देते थे. उनके बारे में अनगिनत किस्से और यादें आज भी लोगों के पास हैं.
5. दुनिया के मंच पर चमकती भारतीय पहचान
इंदिरा गांधी सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनिया के मंच पर भी चमकीं. उनकी गरिमा, सलीका और अंदाज़ सबको प्रभावित करता था. वे शानदार साड़ियों और आधुनिक हेयरस्टाइल में विदेशों में नज़र आती थीं.
1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का डटकर सामना किया और वॉशिंगटन में कहा, “India stands upright” यानी “भारत सिर ऊंचा करके खड़ा है.”
वे फ्रेंच भाषा बोलती थीं, मार्गरेट थैचर और यासिर अराफात की दोस्त थीं. 1982 में जब वे अमेरिका गईं और रॉनल्ड रीगन के साथ खड़ी हुईं, तो फ्यूशिया रंग की रेशमी साड़ी में बेहद आत्मविश्वासी और प्रभावशाली लग रही थीं.
उस दौर में भारत अभी-अभी उपनिवेशवाद की छाया से निकल रहा था. हम दुनिया के मंच पर अपनी जगह तलाश रहे थे, और भारतीय प्रवासी समुदाय भी इतना शक्तिशाली नहीं था. ऐसे समय में इंदिरा गांधी ने भारत की ताकत और आत्मविश्वास का ऐसा प्रदर्शन किया कि दुनिया ने ध्यान देना शुरू किया.
2006 में सीएसडीएस के एक राष्ट्रीय सर्वे में इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी के बाद सबसे ज़्यादा पहचानी जाने वाली भारतीय बताया गया — यहां तक कि अपने पिता नेहरू से भी आगे.
हर साल उनकी पुण्यतिथि पर लिखे जाने वाले लेख, तस्वीरें, वीडियोज़ और साक्षात्कार इस बात का सबूत हैं कि इंदिरा गांधी सिर्फ एक लंबे कार्यकाल वाली प्रधानमंत्री नहीं थीं, बल्कि आज़ादी के बाद के भारत की सबसे यादगार और स्थायी शख्सियत हैं.
(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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