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Saturday, 21 December, 2024
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कोरोनावायरस महामारी से ये पांच सबक सीख सकते हैं भारतीय

यदि हम कोवि़ड-19 द्वारा दिए जा रहे संकेतों पर गौर करें, तो हमें अपने सहज ज्ञान पर गहन मंथन करने में मदद मिल सकती है.

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कोरोनावायरस महामारी एक भयानक संकट है, लेकिन क्या मौजूदा कठिनाइयों से कुछ सकारात्मक चीजें बाहर निकल सकती हैं? स्वत: क्वारंटाइन के जारी रहते क्या हम संकट के बाद की स्थिति पर विचार करने का साहस कर सकते हैं?

कोरोनावायरस हमारे लिए कम से कम पांच उपहार लेकर आया है. उन्हें यहां महत्वानुसार क्रम में पेश नहीं किया जा रहा है. हालांकि, ये आशा की जाती है कि यदि हम उन पर गौर करें, तो इससे हमें अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं पर मंथन करने में मदद मिल सकती है, जिन पर हमने अभी तक उतना ध्यान नहीं दिया है.

लुक ईस्ट: एशियाई मॉडल की श्रेष्ठता

कोरोनावायरस ने इस बात को उजागर किया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और कल्याण के मामलों में, एशियाई मॉडल पश्चिमी तौर-तरीकों से कहीं बेहतर हैं. इस महामारी से निपटते हुए दक्षिण कोरिया ने दुनिया को दिखा दिया है कि वह यूरोप से, और विशेष रूप से अमेरिका से बहुत आगे है. उसने सूचना प्रौद्योगिकी, सामुदायिक स्वास्थ्य और सेवा-प्रेरित नौकरशाही की अपनी ताकत का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए देश में कोरोनावायरस के प्रसार पर नियंत्रण कर लिया. धनी पश्चिमी देशों समेत बाकी अन्य राष्ट्रों के विपरीत, दक्षिण कोरिया में कोई आर्थिक तालाबंदी नहीं की गई और जनजीवन लगभग सामान्य है.

सैकड़ों परीक्षण केंद्रों की स्थापना तथा जीपीएस और मोबाइल टॉवर निर्देशांकों के माध्यम से कोरोनावायरस के पुष्ट और संदिग्ध मामलों के आंकड़े जुटाते हुए, दक्षिण कोरियाई अधिकारियों ने इस बात को सुनिश्चित किया कि उन्हें किन-किन पर निगरानी रखनी है. आर्थिक गतिविधियों के स्थगन, अक्सर तालाबंदी, के बाद हर घंटे अरबों डॉलर गंवाने के बजाय, अमेरिका ने इस राशि का एक छोटा-सा अंश ही यदि दक्षिण कोरिया जैसी सेवाओं निवेश किया होता, जो दुनिया आज बेहतर स्थिति में होती.

दक्षिण कोरिया ने दो अन्य भ्रामक तथ्यों की भी पोल खोलने का काम किया. पहला ये कि लोकतंत्र शासन की त्वरित कार्रवाई में बाधक बनता है. चीन के विपरीत, दक्षिण कोरिया एक लोकतंत्र है. लेकिन यह एक समृद्ध पूंजीवादी समाज भी है, जो मौजूदा दौर की कुछ सबसे बड़ी कंपनियों का ठिकाना है. इसके अलावा, दक्षिण कोरियाई सरकार जिस प्रकार की शक्तियों का उपयोग कर सकी, उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति भी लागू कर सकते थे. अगर डोनल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रीय आपातकाल कानून और स्टाफ़र्ड कानून के प्रावधानों को समय रहते लागू कर दिया होता, तो अमेरिका आज के जैसे आर्थिक संकट से नहीं गुजर रहा होता. इस बात पर विचार करके देखें: डोनल्ड ट्रम्प मेक्सिको सीमा पर दीवार बनाने के लिए आपातकाल की घोषणा करने के लिए तैयार थे, लेकिन महामारी से लड़ने के वक़्त नहीं.


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दूसरी भ्रांति ये है कि छोटी आबादी वाले देशों में सामाजिक नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करना आसान है. दक्षिण कोरिया कोई छोटा देश नहीं है और उसकी आबादी लगभग स्पेन के बराबर है. अकेले सियोल में 90 लाख से अधिक लोग रहते हैं. ऐसा नहीं है कि हम हुवेई या पापुआ न्यू गिनी या न्यूजीलैंड की बात कर रहे हैं. वैसे, अभी स्पेन का ही हाल देखें. कोरोनावायरस ने उसकी अर्थव्यवस्था और समाज को हिला दिया है. अभी तक दक्षिण कोरिया को कोई भी वैश्विक नेता नहीं मानता है, जैसा कि हम अमेरिका को मानते हैं. लेकिन ये स्थिति अब जल्दी ही बदल सकती है और ये कोरोनावायरस के कारण होगा.

कूटनीति के नए मायने

समय आ गया है कि हम दावोस जैसे शिखर सम्मेलनों के खोखलेपन की बात स्वीकार करें और इसके बजाय स्वास्थ्य और सामाजिक नीति विशेषज्ञों के शीर्षस्तरीय सम्मेलन को प्रोत्साहित करें. कोरोनावायरस महामारी ने स्पष्ट कर दिया है कि कॉरपोरेट दिग्गजों की ऐसी सभाएं कितनी अप्रासंगिक होती हैं. वे सामाजिक चुनौतियों के समय में मानवता के लिए कुछ भी नहीं करते हैं, लेकिन निजी सेक्टर के लालची उद्यमियों के लिए बहुत कुछ करते हैं.

दावोस शिखर सम्मेलन जैसी चकाचौंध भरी बैठकों, जिनमें सरकार प्रमुख, कॉरपोरेट अभिजात वर्ग, यहां तक कि ग्लैमर से जुड़े लोग भी शामिल होने के लिए लालायित रहते हैं, हमें मानव जाति के लिए इससे इतर और अधिक सार्थक बैठकों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है. संकट के मौजूदा दौर में हमने महसूस किया है कि स्वास्थ्य और जनकल्याण गतिविधियों पर वैज्ञानिक विशेषज्ञों के अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से सीखना हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है. अगर इस तरह की पहल पहले से हो रही होती तो कोरोनावायरस महामारी से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था. आमतौर पर हम स्वास्थ्य को अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से अलग मुख्यत: एक राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर देखते हैं और हमारी ये सोच कितनी गलत निकली.

कूटनीतिक मोर्चे पर भी, विदेशों से संबंधों के केंद्र में आमतौर पर युद्ध, हथियार और व्यापार होते हैं, न कि स्वास्थ्य, शिक्षा या सामाजिक कल्याण के बारे में परस्पर सीखने की बात. जब सरकारों के प्रमुख दूसरे देशों का दौरा करते हैं, तो वे आमतौर पर व्यापार के दिग्गजों को अपने साथ ले जाते हैं, शायद ही कभी वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य और नीति विशेषज्ञों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों को मौका दिया जाता है. दूसरे शब्दों में, सामाजिक कल्याण के मुद्दों से सरोकार रखने वाले बेहतर है स्वदेश में ही रहें.

विभेद देखना हो तो आप विश्व बैंक के पास उपलब्ध धन की तुलना विश्व स्वास्थ्य संगठन के संसाधनों से कर के देखें, दोनों के बीच का अंतर आपको चौंका देगा. कोरोनावायरस हमें घातक निश्चितता के साथ बताता है कि दुनिया एक है और सबके लिए स्वास्थ्य वास्तव में राष्ट्र विशेष के धन के पीछे भागने, जोकि दुनिया के नेता अधिकांश समय करते रहते हैं, की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान है.

मास्क पहनने का अनपेक्षित लाभ

सार्वजनिक स्थलों पर थूकना भारत में लंबे समय से चली आ रही एक सामाजिक बीमारी है. लेकिन पहली बार कोरोनावायरस का डर इसे सामने से चुनौती दे रहा है. यह सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक सफलता का क्षण हो सकता है. ये तो बारंबार साबित हो चुका है कि कैसे थूक के माध्यम से तपेदिक की बीमारी फैलती है, और अब हम यह भी जानने लगे हैं कि थूकने और खांसने से कैसे माहौल में कोरोनावायरस फैलता है, जोकि लोगों को संक्रमित कर सकता है.

इसलिए बदले व्यवहार का लाभ उठाते हुए, भारत सरकार को थूकने के खिलाफ एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए, जैसा कि खुले में शौच के खिलाफ चलाया गया है. यदि ऐसा किया जाता है, तो हमें नाटकीय परिणाम मिलेंगे और इस समय लोग ऐसी पहल के लिए तैयार भी हैं. लोगों ने मास्क पहनना शुरू कर दिया है और यह एक थूक-अवरोधक के रूप में कार्य करता है. यदि मास्क लगे रहते कोई थूके तो यह खुद उसी के चेहरे पर पड़ेगा नकि दूसरे के चेहरे पर. मास्क थूकने वाले को मुंह को पिचकारी बनाने के आनंद से वंचित करता है.

कोरोनावायरस की गिरफ़्त में आने के डर ने मास्क की बिक्री बढ़ा दी है और इसका एक ब्लैक मार्केट भी तैयार हो गया है, इसलिए संभावना यही है कि मास्क की लोकप्रियता में वृद्धि जारी रहेगी और इसके साथ ही, थूकने का चलन कम होता जाएगा. परिणामस्वरूप हम सभी का स्वस्थ बेहतर हो सकेगा.

राजनीतिक समाचार नहीं, बल्कि विज्ञान की बातें

कुल मिलाकर, राजनीति अभी समाचारों का मुख्य विषय नहीं है, बात चाहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हो या प्रिंट मीडिया की. हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं पर या सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के बारे में शोर-शराबे वाली बहसों की जगह कोरोनोवायरस और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अधिक संयत बहसें हो रही हैं. क्या आजकल आतंकवाद के बारे में बहुत कम सुनना भी अच्छी बात नहीं है?

यहां तक कि कश्मीर स्थित संवाददाता भी शोपियां में आतंकवादियों के बजाय घाटी के वीरान पार्कों और बागों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. वे पर्यटकों की कमी का रोना रोते हैं और शायद ही कभी हिंसा का विषय उठाते हैं. अल जज़ीरा चैनल भी कोरोनावायरस को बहुत अधिक, जबकि मध्य पूर्व में हिंसा एवं संघर्ष को अपेक्षाकृत कम कवरेज दे रहा है.

नतीजतन, जहां कभी नेता हावी रहते थे, उन टीवी स्टूडियो में वैज्ञानिकों और ज्ञानियों की बातों को महत्व दिया जाने लगा है. इस कारण वास्तविक विशेषज्ञों को अपनी बातें सामने रखने का मंच उपलब्ध हो रहा है, जिनसे आम जनता को सिर्फ लाभ ही होगा. हमें जिस अमर्यादित और पक्षपातपूर्ण राजनीतिक बयानबाज़ी को निरंतर झेलना पड़ता था, उससे अब शायद लंबे समय तक सामना नहीं होगा.


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इन बदलावों के कारण युवाओं को राजनीतिक चालबाज़ियों के बजाय वैज्ञानिक मामलों पर अपनी ऊर्जा केंद्रित करना अधिक आकर्षक लग सकता है. आखिरकार, कोरोनावायरस के इस दौर में लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए, आपको थोड़ा गंभीर अध्ययन करना होगा. पुस्तकों पर अब शायद अधिक ध्यान दिया जाएगा और शुरुआत उन किताबों से होगी जो दशकों से पढ़े जाने के इंतजार में अलमारियों में पड़ी हैं. ये सारी क्रियाएं दिमाग के लिए श्रेष्ठकर हैं.

फिरंगी मनोग्रंथि से पार पाना

अंत में शायद अब हम फिरंगियों की उपस्थिति में गुलाम मानसिकता का प्रदर्शन करना बंद कर देंगे. ये शायद हमारी औपनिवेशिक मानसिकता है, या संभवत: इसलिए कि हम न तो गोरे हैं और न ही काले, बल्कि भूरे हैं, जो हमें यूरोपीय मूल के किसी व्यक्ति के साथ बातचीत के समय गिब्बन लंगूरों की तरह मुस्कराने के लिए बाध्य करता है.

ये व्यवहार जल्दी ही बंद हो सकता है और उन कारणों से जोकि वास्तव में सही नहीं हैं, लेकिन उम्मीद है कि इससे एक प्रकार का सुधार हो सकेगा. कोरोनावायरस को आमतौर पर भारत के बाहर से आया रोगाणु माने जाने के कारण, आज गोरे लोगों के बहुत करीब जाने में लोग संकोच दिखाते हैं. हमारी आम प्रवृत्ति विदेशियों के साथ अपने जुड़ाव का दिखावा करने और उन्हें उपलब्धियों की तरह प्रदर्शित करने की रही है. हम अपनी शादियों में कॉकेशियन लोगों को आमंत्रित करने को लेकर उदारता दिखाते हैं, भले ही वे हमारे लिए पूर्ण अजनबी हों.

न ही विदेश यात्रा से लौटने वाले लोग अब ‘फॉरेन रिटर्न्ड’ की ठसक दिखा पाएंगे क्योंकि आज भारत में वायरस के प्रसार का संदेह ऐसे ही लोगों पर है. माहौल इस हद तक बदल चुका है कि मोत्सरेल और पामिज़ां पनीर भी संदेह के घेरे में हैं. इससे हमारे डेयरी उद्योग को मज़बूती मिल सकती है, जिसकी नाजुक हालत उन वजहों में से एक थी कि जिसके कारण भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र की क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल नहीं हुआ और इस क्षेत्रीय आर्थिक समझौते से बाहर रहा.

थोड़ा हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहें तो कोरोनोवायरस महामारी ने हमारे कुछ पारंपरिक रीति-रिवाजों को नया अर्थ देने का काम किया है. वायरस के प्रसार के डर से हैंडशेक और फ्लाइंग-किस स्वीकार्य नहीं रह गए हैं, जबकि नमस्ते और आदाब के रूप में भारतीय अभिवादन को प्राथमिकता दी जाने लगी है. इसके अलावा, अब हमें एहसास हुआ है कि अभिवादन के ये दोनों स्वदेशी रूप लैंगिक रूप से निरपेक्ष हैं और इसलिए सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री-पुरुष संपर्क को अस्वीकृति की हमारी सांस्कृति के अनुरूप भी.

तो, हम इस महामारी को बिना अधिक नुकसान के झेल जाने की उम्मीद करते हैं ताकि कोरोनावायरस के उपरोक्त पांच फायदों का आनंद ले सकें.

सत्रहवीं सदी के प्रसिद्ध गणितज्ञ, दार्शनिक एवं आविष्कारक ब्लेज़ पास्कल संभवतः स्वत: क्वारंटाइन के पहले समर्थक थे. उनके अनुसार, ‘मानवता की सभी समस्याएं अकेले कमरे में चुपचाप बैठने में मानव की अक्षमता से पैदा हुई हैं.’ इसलिए स्वयं घर में बंद रहकर, बाकियों पर एहसान करें.

(दीपांकर गुप्ता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान केंद्र में प्राध्यापक रह चुके हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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