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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमत3 बातें जिन्होंने पंजाब में नेताओं से लेकर जानकारों तक को उलझन में डाल रखा है

3 बातें जिन्होंने पंजाब में नेताओं से लेकर जानकारों तक को उलझन में डाल रखा है

कुछ लोगों को इस बार पंजाब का चुनाव ‘मंडलवादी’ रूप लेता दिख रहा है, तो कुछ लोग जट्ट सिखों के रुझान को लेकर असमंजस में है और कुछ को हिंदू वोट बैंक पर भरोसा नहीं जम रहा है.

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पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने अपने चुनाव अभियान पर निकलने से पहले मोरिंडा में अपने घर पर पिछले रविवार की सुबह गुरुग्रंथ साहिब का विशेष पाठ करवाया. पाठ के दौरान कई बार उन्हें अपनी नम हुईं आंखों को पोछते हुए देखा गया. उनके स्टाफ के एक आदमी ने बाद में कहा कि चन्नी हमेशा से धार्मिक भक्ति भावना से भरे रहे हैं लेकिन ‘इधर वे कुछ ज्यादा धार्मिक हो गए हैं’. जाहिर है. पंजाब में आज अकेले चन्नी ही वाहेगुरु के आशीर्वाद की कामना नहीं कर रहे हैं. किसी भी नेता से बात कर लीजिए, सभी एक ही कहानी कहते मिलेंगे. पहले तो वे चुनाव में अपनी पार्टी की संभावनाओं के दावे करेंगे, फिर इस तरह की शिकायत करते मिलेंगे कि ‘इस बार के चुनाव के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता.’ तमाम राजनीतिक पंडित, विचारक और चुनाव विशेषज्ञ भी अनिश्चय में हैं. चुनाव को लेकर चर्चाएं प्रायः इसी हिदायत पर खत्म होती है कि ‘लेकिन पंजाब तो स्पष्ट जनादेश देने के लिए मशहूर रहा है.’

चुनाव के रुझान को लेकर नेता लोग और जानकार अक्सर भ्रमित रहते हैं, यह कोई नयी बात नहीं है. कनाडा के एक लेखक पीटर वाइज़क्रैक की यह टिप्पणी याद कीजिए, ‘अर्थशास्त्री वह विशेषज्ञ होता है जो कल यह बताता है कि उसने कल जो भविष्यवाणी की थी वह आज क्यों नहीं घटी.’ राजनीति के विद्यार्थी इससे कुछ सबक ले सकते हैं. बहरहाल, हम आगे बढ़ें.

पंजाब चुनाव की बात करें तो स्पष्ट होगा कि 20 फरवरी को वहां मतदान से तीन सप्ताह पहले हर कोई अगर अटकलें ही लगा रहा है तो इसके तीन कारण हैं.


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दलित हिंदुओं पर टिकी उम्मीद

पहला, कांग्रेस के पक्के समर्थक यह मान रहे हैं कि पंजाब में इस बार का चुनाव, जैसा कि कुछ नेता कह रहे हैं, ‘पहला मंडलवादी चुनाव’ होगा जिसमें हाशिये पर पड़ीं दूसरी जातियां यानी दलित हिंदू जातीय विभाजन और वोटों में भागीदारी बढ़ाने के आधार बनेंगे. वे कांग्रेस के प्रथम दलित मुख्यमंत्री के बूते उम्मीद कर रहे हैं कि चुनाव में जातीय आधार पर मतदान होगा. हरेक तीन में से एक पंजाबी दलित है. अगर चन्नी को गद्दी पर बैठाने के लिए दलित हिंदू और सिख एकजुट हो गए तो फिर कांग्रेस को भारी बढ़त मिल जाएगी.

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ऐसा लग रहा है कि इस बार पंजाब में बहुकोणीय चुनाव होगा. शिरोमणि अकाली दल तो मजबूती के साथ मुख्य चुनौती दे ही रही है, आम आदमी पार्टी (आप) 2017 में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरने के बाद पंजाब की मुख्यतः दो ध्रुवीय राजनीति में एक नये विकल्प के तौर पर उभरने की जद्दोजहद कर रही है. इसके अलावा भाजपा है, जो दो दशक से ज्यादा तक अकाली दल की सहयोगी की भूमिका निभाने के बाद अब अपनी जमीन बनाने में जुटी है. कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस के साथ गठबंधन करके भाजपा 117 सदस्यीय विधानसभा की 65 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. अकाली दल के साथ इससे कम सीटों पर चुनाव लड़ती रही भाजपा आज दमदार कोशिश कर रही है.

इनके अलावा, मैदान में एक नया राजनीतिक संगठन ‘संयुक्त समाज मोर्चा’ (एसएसएम) उतरा है जिसे उन 32 में से 22 किसान संघों ने बनाया है जिन्होंने केंद्र सरकार के तीन कृषि का कानूनों के खिलाफ सफल आंदोलन चलाया. बलबीर सिंह राजेवाल के नेतृत्व में यह मोर्चा गुरनाम सिंह चडूनी की संयुक्त संघर्ष पार्टी (एसएसपी) के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है.

इस पांच कोणीय टक्कर में आगे हर तीसरे यानी दलित पंजाबी ने कांग्रेस को वोट दिया तो वह आसानी से सत्ता में वापस आ सकती है. मुश्किल यह है कि पंजाब के दलितों ने कभी एकजुट होकर वोट नहीं दिया. उनका समर्थन तमाम दलों में बंटता रहा है. कांग्रेस ने राज्य को पहला दलित मुख्यमंत्री दिया, लेकिन क्या इस प्रतीकात्मक कदम से दलितों में वैसे एकता आ जाएगी जो अब तक नहीं आई थी? यहां तक कि कांग्रेस वाले भी इसको लेकर निश्चित नहीं हैं.

सो, पंजाब में पहली बार ‘मंडलवादी’ चुनाव का विचार सत्ताधारी दल के नेताओं की एक खामखयाली ही लगती है. ये नेता लोग जातीय आधार पर वोट बटोरने की चाहे जितनी कोशिश करें, पंजाब की संस्कृति मुख्यतः मेल-जोल वाली रही है बावजूद इसके कि दलित आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक रूप से हाशिये पर रहे हैं. अब एक दलित मुख्यमंत्री पंजाब में दलित बनाम गैर-दलित विभाजन को कितना गहरा कर सकेगा, यह लाख टके का सवाल है.

इसके साथ ही जुड़ा हुआ एक सवाल यह है कि दलितों के एकीकरण के जो अनुमान लगाए जा रहे हैं वह क्या दूसरे समृद्ध और अधिकार संपन्न तबके, जट्ट सिखों को इसके बरक्स एकजुट करेगा, जिनकी आबादी करीब एक चौथाई है?

जट्ट सिख किसके साथ हैं?

दूसरा कारण, जिसके बारे में हर कोई अनुमान लगाता रहा है वह चुनाव मैदान में किसान संगठनों के उतरने के नतीजों की अस्पष्टता से संबंधित है. किसानों में बहुमत जट्ट सिखों का ही है. वे दिल्ली की सीमाओं पर से जीत का सेहरा बांधकर लौटे हैं. पंजाब की कांग्रेस सरकार ने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया था लेकिन तब उसका चेहरा थे तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, जो अब केंद्र में सत्तासीन भाजपा के साथी हैं जो विवादास्पद कृषि कानून लाई थी. किसान कांग्रेस के विरोध में भले न गए हों मगर अमरिंदर का भाजपा के साथ चले जाना उन्हें नये विकल्प की तलाश के लिए मजबूर कर सकता है.

आप तब तक ही एक पसंदीदा विकल्प थी जब तक किसान संघों ने अपना राजनीतिक मोर्चा नहीं बनाया था और उससे गठबंधन करने से मना कर दिया था. फिलहाल, इस चुनाव पर किसान आंदोलन का असर कमजोर हुआ है, जिसकी वजह यह है कि किसानों के वोट में भागीदारी करने के लिए कई दावेदार खड़े हो गए हैं.

आज हिंदू मतदाता किधर हैं?

तीसरी पहेली है तथाकथित हिंदू वोट, जिसको लेकर भी अटकलें लगाई जा रही हैं. पंजाब में हिंदुओं की आबादी करीब 38 फीसदी है, और इस वोट बैंक पर भाजपा और कांग्रेस, दोनों दावे कर रही हैं. चंडीगढ़ के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट कम्युनिकेशन के निदेशक डॉ. प्रमोद कुमार ने कहा कि अगर पंजाब में कोई हिंदू वोट बैंक होता तो वह भाजपा को मिले वोटों में झलक जाता.

1985 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 26 सीटों पर चुनाव लड़कर 23.61 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 1992 के चुनवा में उसने 66 सीटों पर लड़कर करीब 22 प्रतिशत वोट पाए, बावजूद इसके कि उन दिनों पंजाब में उग्रवाद का ज़ोर था और उसकी मार हिंदुओं पर पड़ रही थी. 1997 के चुनाव में भाजपा अकाली दल वाले गठबंधन के साथ चुनाव लड़ी और उसका वोट प्रतिशत करीब दोगुना बढ़कर 48 फीसदी हो गया. 2017 के चुनाव में वह अकाली दल के साथ गठबंधन करके 23 सीटों पड़ लड़ी और उसका वोट प्रतिशत घटकर 30 पर आ गया.

वास्तव में, दूसरे राज्यों में तो भाजपा क्षेत्रीय दलों पर सवारी गांठ कर उनके वोट बैंक में सेंध लगाती रही है. जैसे बिहार में जदयू और महाराष्ट्र में शिवसेना. लेकिन पंजाब में उलटा हुआ. अकाली दल ने भाजपा से दोस्ती का लाभ उठाकर हिंदुओं में अपनी साख बढ़ाई.

2017 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ पंजाब की दो ध्रुवीय राजनीति पर अकाली और कांग्रेस के वर्चस्व के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरती दिखी थी. हिंदुओं ने कांग्रेस को निर्णायक बढ़त दी थी जबकि आप उग्रपंथी में पैठ बनाती दिख रही थी. क्या आप हिंदुओं का भरोसा फिर से जीत सकती है? अब हिंदू वोट बैंक किस तरफ झुकेगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जबकि ‘सुरक्षा में चूक’ की कारण मुख्यतः जट्ट सिख किसानों की रैली में भाग नहीं लिया, और अमरिंदर सिंह जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को उछाल रहे हैं तब क्या यह वोट बैंक पीएलसी-भाजपा गठबंधन की ओर मुड़ेगा? या अमरिंदर के जाने के बाद भी यह कांग्रेस से जुड़ा रहेगा? पंजाब में कई कांग्रेस वालों का मानना है कि वरिष्ठ नेता अंबिका सोनी के इस बयान से बात बनने में मदद नहीं मिली है कि किसी सिख को ही पंजाब का मुख्यमंत्री बनना चाहिए. इसके बाद कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ का कद घटाने से भी बात बिगड़ी है.

सवाल कई है, और पंजाब में किसी के पास उनके जवाब नहीं हैं. कोई पूरे राज्य से ये सवाल पूछ सकता है मगर जवाब चुनाव क्षेत्र के लिहाज से और जगह-दर-जगह अलग-अलग मिल सकते हैं. यही वजह है कि नेता से लेकर चुनाव कराने वाले और विशेषज्ञ तक पंजाब में उलझन में पड़े हैं. लॉरेंस पीटर जीवित होते और वैंकूवर में पंजाबी प्रवासियों से मिलते तो उन्हें पंजाब के ये चुनाव दिलचस्प लगते.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी मेंं पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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