scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतसाल 2024 के मुकाबले का मैदान खुला है, लेकिन सवाल ये है कि चुनाव से पहले बाजी पलटेगी तो आखिर कैसे

साल 2024 के मुकाबले का मैदान खुला है, लेकिन सवाल ये है कि चुनाव से पहले बाजी पलटेगी तो आखिर कैसे

साल 2024 का बुनियादी व्याकरण बताना कठिन नहीं. बीजेपी की ताकत और कमजोरी, संभावना और आशंका सब ही की धुरी नरेन्द्र मोदी हैं. और, विपक्ष के लिए संभावनाएं आर्थिक मोर्चे पर दिख रही हैं वहीं विपक्ष को सबसे बड़ा खतरा राजनीति के मोर्चे पर है.

Text Size:

कर्नाटक के चुनाव से निकलता एक संदेश ये था कि साल 2024 में मुकाबले का मैदान अभी खुला हुआ है, किसी की हार-जीत को अभी से तयशुदा मानकर नहीं चल सकते. और, इस संदेश की अब पुष्टी भी हो चली है. अब तयशुदा तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सत्तासीन बीजेपी फिर से सरकार बनायेगी. जो कोई भारतीय गणतंत्र के मूल्यों में विश्वास करता है उसके लिए यह एक अच्छी खबर है. साथ ही, ये भी सच है कि ये लड़ाई कत्तई आसान नहीं होने जा रही. भारत के गणतंत्र पर फिर से अपना दावा जताने के लिए जो लोग भी प्रयास कर रहे हैं उन्हें एकजुट होकर काम करना होगा.

साल 2024 की लड़ाई के बुनियादी व्याकरण को बताना मुश्किल नहीं. बीजेपी की ताकत और कमजोरी, पार्टी के आगे मौजूद अवसर और खतरे (इसे अंग्रेजी में एसडब्ल्यूओटी यानी स्ट्रेन्ग्थ, वीकनेस, ऑपर्च्युनिटी एंड थ्रेट एनालिसिस कहा जाता है) से जुड़े पूरे विश्लेषण के केंद्र में नरेन्द्र मोदी हैं. मिसाल के लिए, प्रश्न करें कि बीजेपी की ताकत क्या है : मोदी का करिश्मा. इसी तरह, बीजेपी की कमजोरी क्या है : मोदी सरकार का काम-काज. पार्टी के पास अवसर कौन से मौजूद है: ऐन वक्त पर मोदी कोई ऐसी चाल चलेंगे कि विरोधी चारो खाने चित्त हो जायेंगे. और, बीजेपी को खतरा किन बातों का है: खतरा ये है कि मोदी की छवि अचानक ही दरक ना जाये. विपक्ष की ताकत का स्रोत भारत के भूगोल और समाजशास्त्र में छिपा है जबकि भारत का इतिहास और मनोविज्ञान उसकी कमजोरी है. देश की अर्थव्यवस्था विपक्ष के आगे अवसरों के द्वार खोल रही है लेकिन विपक्ष को बड़ा खतरा राजनीति के मोर्चे पर है.

साल 2024 की चुनावी लड़ाई के मैदान की उभरती इस मोटी तस्वीर पर बारीकी से गौर करना हो तो इसमें विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के लोकनीति संभाग का नवीनतम राष्ट्रव्यापी ओपिनियन पोल मददगार हो सकता है. इस ओपनियन पोल के निष्कर्ष दो किश्तों में पहले एनडीटीवी पर प्रसारित हुए, फिर द प्रिन्ट में दो आलेखों की शक्ल में छपे हैं. जनमत की दशा-दिशा जाननी हो तो मेरा पसंदीदा पैमाना अब भी लोकनीति का सर्वेक्षण ही है. लेकिन इसकी वजह मात्र इतनी नहीं कि बीते वक्त में लोकनीति से मेरा जुड़ाव रहा. हालांकि लोकनीति सर्वेक्षण का 7,202 का सैम्पल साइज इतना छोटा है कि उसके आधार पर राज्यवार वोटों और सीटों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता (बुद्धिमानी कहिए कि लोकनीति ऐसा करती भी नहीं) लेकिन लोकनीति इस बात का सख्त अनुशासन बरतते आयी है कि प्रतिदर्श-चयन (इसकी विधि स्ट्रेटिफायड रैंडम सैम्पलिंग की होती है) हमेशा मतदाता-सूची के सहारे किया जाये. सो, पक्के तौर पर माना जा सकता है कि लोकनीति का सर्वेक्षण भारतीय मतदाताओं के रूझान को ठीक-ठीक दर्ज करता है. इसके अतिरिक्त लोकनीति की सर्वेक्षण-प्रश्नावली के शब्द मानकीकृत होते हैं. इस कारण बीते सालों में हुए सर्वेक्षण के निष्कर्षों से मिलान और तुलना करना संभव रहता है. सबसे बड़ी बात कि सर्वेक्षण की पदधति की जानकारी देने तथा अपने निष्कर्षों को सार्वजनिक करने के मामले में लोकनीति ने बड़े ऊंचे दर्जे की पारदर्शिता का पालन किया है.

लोकनीति के नवीनतम सर्वेक्षण का सबसे बड़ा और सबसे चौंकाऊ निष्कर्ष ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के वोटशेयर में 10 प्रतिशत अंकों की बढ़ोत्तरी हुई है. सर्वेक्षण के मुताबिक अगर साल 2023 के अप्रैल माह में चुनाव होते तो कांग्रेस को 29 प्रतिशत वोट मिलते यानी साल 2019 में पार्टी को मिले 19.5 प्रतिशत वोटों से कहीं ज्यादा. कांग्रेस की तरफ वोटों का यह घुमाव(लगभग 7 करोड़ वोटों का इजाफा) आश्चर्यजनक है और इतने वोटों की बढ़त कांग्रेस को उस जगह पर पहुंचाने के लिए काफी है जहां वह 2014 में हुए अपने नाटकीय पतन से पहले थी. अब इसमें पेंच ये है कि बीजेपी के वोटों में इससे मेल खाता घुमाव नहीं हुआ है. लोकनीति के सर्वेक्षण के निष्कर्ष तो ये बताते हैं कि बीजेपी का वोटशेयर 2019 के 37.4 फीसद से बढ़कर 39 प्रतिशत पर जा पहुंचा है.

लोकनीति की टोली ने कांग्रेस के वोटशेयर में बढ़त का कारण अन्य दलों खासकर क्षेत्रीय पार्टियों के वोटों में टूट को बताया गया है. लोकनीति ने वोटशेयर का कोई क्षेत्रीय अथवा सामाजिक खाका पेश नहीं किया है. ऐसे में सिर्फ यही अटकल लगायी जा सकती है कि कांग्रेस के वोटों में बढ़त उसके सहयोगी दलों (एनसीपी या जेडीयू तथा आरजेडी) या फिर संभावी साथियों (एसपी, वायएसआरसी या टीएमसी) तरफ से हुआ है अथवा उन पार्टियों की तरफ से जो अभी तक अपने को तटस्थ (यानी बीजेडी, टीआरएस, एएपी) मानकर चल रहे हैं. लेकिन, यह बहुत मददगार नहीं और कांग्रेस के साथ होना चाह रहे दलों के बीच आपसी रगड़ पैदा कर सकता है. अगर सामाजिक तस्वीर को ध्यान में रखकर सोचें तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के वोटों में बढ़त मुस्लिम, हाशिए के अन्य समुदायों तथा गरीब जनों की तरफ से हुई है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

लेकिन कांग्रेस के वोटों में हुई बढ़त के आधार में सीटों के बारे में अनुमान लगाने से हमें बचना चाहिए. फिलहाल यूपीए (कांग्रेस तथा अन्य) और एनडीए जिस शक्ल में हैं, उसे आधार मानकर सर्वेक्षण में वोटशेयर नहीं दिया गया है. इसमें कोई शक नहीं कि एनडीए में हुए विघटन को देखते हुए इस गठबंधन को हासिल वोटशेयर की तस्वीर बहुत मनमोहक नहीं होने जा रही. यह भी संभव है कि बीजेपी के वोटशेयर में हुई छोटी-सी बढ़त उसके पूर्व-सहयोगी दलों के वोटों में सेंधमारी का नतीजा हो. कुल मिलाकर देखें तो सर्वेक्षण के आंकड़ों के सहारे ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस को मिलने जा रही सीटों की संख्या में भले ही कोई नाटकीय बढ़ोत्तरी ना हो लेकिन वोटों को लेकर बनती की यह तस्वीर बीजेपी को बहुमत के आंकड़े के कगार तक पीछे घसीट लाने के लिए काफी है.

मतलब, फिलहाल की स्थिति में हर एक का घबड़ाना लाजिमी है. बीजेपी को चिन्ता सतानी चाहिए कि कांग्रेस के वोटों में तेज बढ़त हुई है. कांग्रेस को फिक्र सतानी चाहिए कि बीजेपी के वोट घट नहीं रहे. क्षेत्रीय दलों को चिन्ता होनी चाहिए कि दो राष्ट्रीय दल उनकी कीमत पर आगे बढ़ रहे हैं. तो घबराहट का यही ज्वार— जो रचनात्मक भी हो सकता है और ध्वंसात्मक भी— हमें 2024 के लोकसभा चुनावों के महासागर में खींच ले जाने वाला है.


यह भी पढ़ें: हिंदी मीडिया में आज तक ब्राह्मणवाद जारी है, स्वर्णिम जातीय अतीत का मोह लार टपका रहा है


साल 2024 का रास्ता वाया राजनीति

लोकनीति का सर्वेक्षण ये सुराग दे रहा है कि क्या चीजें काम की साबित हो सकती हैं और क्या नहीं. जैसा की सर्वविदित है, बीजेपी धनबल, मीडिया-बल और संगठन-बल में बढ़ी-चढ़ी है और इस नाते उसे ढांचागत बढ़त हासिल है लेकिन पार्टी की असली ताकत है प्रधानमंत्री मोदी की खूब जतन से गढ़ी और प्रचारित की गई छवि. सर्वेक्षण के तथ्य इस बात की पुष्टी करते हैं कि मोदी की लोकप्रियता बरकरार है और इस मायने में वे अपने प्रतिद्वन्द्वियों से बहुत आगे हैं. हालांकि `भारत जोड़ो यात्रा` के बाद राहुल गांधी की लोकप्रियता और जन-स्वीकृति में तेज बढ़त हुई है लेकिन वे लोकप्रियता की दौड़ में सबसे आगे चलने वाले से अब भी बहुत पीछे हैं. प्रधानमंत्री के अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रचार-प्रसार के तामझाम को मीडिया किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह जोर-शोर से फैलाता है और इससे प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय हैसियत के नेता की छवि बनाने में मदद मिली है, समां ऐसा बांधा गया है मानो उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय-जगत में भारत की साख बढ़ायी हो. जाहिर है, औसत भारतीय को यह छवि पसंद आयेगी.

लेकिन बीजेपी की सबसे बड़ी कमजोरी का रिश्ता भी नरेन्द्र मोदी ही से है जिन्हें अर्थशास्त्री पराकला प्रभाकर ने ‘आश्चर्यजनक रूप से अक्षम’ करार दिया है. प्रधानमंत्री मोदी के कुशासन, खासकर अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में लिए गये फैसलों के नतीजों को लोगों से छिपा पाना निरंतर कठिन होता जा रहा है. इसके अतिरिक्त, मोदी-शाह का तरीका साथी दलों को हड़प जाने या फिर उन्हें मक्खी की तरह निकाल फेंकने का रहा है जिससे जाहिर होता है कि बीजेपी के पास किसी दल को साथ लेकर चलने की संभावना क्षीण है. जेडी(यू) और अकाली दल ने एनडीए छोड़ दिया है और जहां तक शिवसेना के शिन्दे गुट को हासिल लोकप्रियता का सवाल है, मराठी दैनिक सकाळ के सर्वेक्षण के अनुसार उद्धव ठाकरे की शिवसेना को हासिल लोकप्रियता का वह अर्धांश भी नहीं है. जाहिर है, फिर 273 सीटों पर जीत दर्ज करने की जिम्मेदारी अकेले बीजेपी के कंधे पर है. और, यह आसान नहीं होने जा रहा.

नरेन्द्र मोदी पर अपनी अति-निर्भरता के कारण बीजेपी की हालत उस स्थिति में बहुत कमजोर हो सकती है जब खूब जतन से गढ़ी गई मोदी की छवि अचानक दरकने लगे. लोकनीति का सर्वे मोदी-अडाणी के बीच गठजोड़ के आरोप के असर के बारे में कुछ नहीं बताता (उम्मीद करें कि कारण कुछ और ही रहा होगा ना कि ये कि इस मुद्दे पर कुछ कहना-सुनना वर्जित है). फिर भी, यह बात अपनी जगह कायम है कि रफायल मामले की तुलना में यह आरोप कहीं ज्यादा संगीन और नुकसानदेह है. अगर विपक्ष मोदाणी अभियान पर लगातार डटा रहता है तो ये मुद्दा 2024 के लिए निर्णायक साबित हो सकता है.

विपक्ष की असली ताकत है उसका भौगोलिक विस्तार. अलग-अलग राज्यों में बीजेपी का मुकाबला अलग-अलग विपक्षी दल से होना है. सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के निचले हिस्से के वर्गों और जातियों में इन विपक्षी दलों का समर्थक आधार है. विपक्ष की कमजोरी है उसका कोई स्पष्ट संदेश ना गढ़ पाना या फिर उसके पास जनता तक अपने संदेश के लिए किसी विश्वसनीय चेहरे का ना होना. विपक्ष के लिए चुनाव-पूर्व एकता से ज्यादा जरूरी है आपसी समन्वय कायम करना और एक समवेत कथानक गढ़ना. अगर आपसी तालमेल बनाने और समवेत कथानक गढ़ने का मोर्चा कमजोर रहता है तो बीजेपी अपने दुष्प्रचार में कामयाब बनी रहेगी. जहां तक संदेशवाहक के रूप में विश्वसनीय चेहरे का सवाल है, लोकनीति के सर्वेक्षण में राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरे हैं और इस मामले में वे विपक्ष के अन्य नेताओं से बहुत आगे हैं. साल 2014 के मुकाबले उनकी लोकप्रियता आज दोगुनी हो चली है फिर भी अभी वे लोकप्रियता की इतनी सीढ़ियां नहीं चढ़ पाये हैं कि अखाड़े में द्वन्द्व-युद्ध के लिए उतर पायें.

विपक्ष के लिए रणनीति का रास्ता खुलता है देश के आर्थिक संकटों पर ध्यान केंद्रित करने से. विपक्ष के लिए लोकनीति के सर्वेक्षण से निकलता मुख्य संदेश यही है. यह बात स्पष्ट चुकी है कि अर्थव्यवस्था के मामले में देश की दुखती रग कौन-कौन सी है : बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई. सर्वेक्षण में शामिल उत्तरदाताओं का कहना है कि पिछले चार सालों में उनकी माली हालत बिगड़ी है और वे आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के कामकाज से नाखुश हैं. विपक्ष, खासकर कांग्रेस के लिए असली चुनौती आर्थिक मोर्चे पर ऐसे विश्वसनीय नीतिगत प्रस्ताव ले आने की है जो सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के लोगों को जंच जाये.

एक तरह से देखें तो हमलोग एक बार फिर से 2018 यानी पिछले लोकसभा के चुनाव से ऐन पहले के साल की सी हालत में आ पहुंचे हैं. तब आर्थिक मोर्चे पर खस्ताहाली लोगों में असंतोष पैदा कर रही थी और मोदी सरकार की लोकप्रियता तेजी से घटी थी. तब बीजेपी की मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में एक के बाद एक हार हुई. अटकल का बाजार गर्म था कि बीजेपी की लोकसभा की सीटें 100 की तादाद में घट जायेंगी. लेकिन इसी बीच पुलवामा-बालाकोट की घटना हो गई और इसने सीटों के तमाम गणित पर पानी फेर दिया. हाल के सर्वेक्षण के बहुत से आंकड़े कमो-बेश वही हैं जैसा सीएसडीएस ने 2018 के अपने राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में दर्ज किया था. इस बार अलग से एक चीज भारत जोड़ो यात्रा और विपक्षी खेमे में सकारात्मक ऊर्जा के रूप में दिखायी दे रही है.

क्या भीतर ही भीतर खदबदा रहा यह असंतोष निर्णायक रूप से सत्ता-विरोधी वोट में तब्दील हो पायेगा? या फिर कथा में अचानक ही कोई मोड़ जायेगा जैसा कि साल 2019 में हुआ था? अपने भीतरखाने हर कोई सवाल ये पूछ रहा है कि: चुनावों से तुरंत पहले ऐसी कौन-सी घटना होने जा रही है जो पूरे देश को भावनात्मक रूप से आंदोलित कर दे? साथ ही, हमें वह सवाल भी याद रखना होगा जिसे हाल ही में प्रतापभानु मेहता ने पूछा है: क्या बीजेपी किसी लोकतांत्रिक चुनाव में हारने और सत्ता को छोड़ने का जोखिम मोल सकती है?

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कर्नाटक ने दिखायी 2024 के लिए विपक्ष को राह— ध्यान सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले हिस्से के लोगों पर हो


 

share & View comments