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Thursday, 25 April, 2024
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कर्नाटक ने दिखायी 2024 के लिए विपक्ष को राह— ध्यान सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले हिस्से के लोगों पर हो

सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से को ध्यान में रखकर की जाने वाली राजनीति कांग्रेस की `गरीबी हटाओ` की पुराने तर्ज की राजनीति के ढर्रे पर नहीं चल सकती. ना ही इस राजनीति को वामपंथ वाली परंपरागत वर्गीय राजनीति की राह अपनानी चाहिए.

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कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों से साल 2024 के लिए एक राह खुलती है. आप चाहें तो इसे `कतार में खड़े सबसे आखिर के आदमी की राजनीति` का नाम दे सकते हैं. राजनीति की यह राह बड़ी जानी-पहचानी है और भारत नाम के गणतंत्र पर अपनी दावेदारी फिर से जताने की उम्मीद इस एक बात पर टिकी है कि हम इस राह की नई कल्पना किस तरह करते हैं और उसमें किस जतन से नये प्राण फूंकते हैं.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर अब तक आये ज्यादातर विश्लेषणों में कांग्रेस को मिले वोट के पीछे चार सामाजिक घटकों का जिक्र आया है. मैंने eedina.com के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल इस ओर ध्यान खींचने में किया था कि वोट डालने के मामले में मतदाताओं का वर्गीय आधार महत्वपूर्ण साबित हुआ है. इंडिया टुडे माय-इंडिया एक्सिस टीम के एक्जिट पोल से मेरे इस मंतव्य की पुष्टि हुई है : खाते-पीते परिवार से आने वाले मतदाताओं की संख्या थोड़ी है और इस वर्ग में बीजेपी को वोटों के मामले में बढ़त हासिल हुई लेकिन गरीब मतदाताओं की संख्या ज्यादा है और इस तबके में कांग्रेस को ज्यादा वोट मिले. हां, इस बात के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि वोटों के मामले में यह वर्गीय रूझान नया है या फिर किसी चली आ रही परिपाटी ने ही अपने को फिर से दोहराया है.

जहां तक जाति का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं कि `अहिन्दा` कहलाने वाला  सामाजिक तबका( इसमें पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अल्पसंख्यक समुदाय आते हैं और इसकी तादाद कुल आबादी में दो तिहाई से ज्यादा है) वोटों के मामले में बड़ी मजबूती से कांग्रेस के पीछे गोलबंद हुआ. लोकनीति-सीएसडीएस के पोस्ट-पोल सर्वे के तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है. चुनाव चाहे कोई भी हो, उसकी सबसे प्रामाणिक मीमांसा देखनी हो तो अब भी लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे अव्वल है. इस बात का बड़ा हल्ला है कि लिंगायत वोटों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस की तरफ चला गया लेकिन यह हल्ला ही है, इसके पक्ष में स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं. हां, स्पष्ट प्रमाण इस बात के जरूर हैं कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा मुस्लिम समुदाय के वोट इस बार एकजुट कांग्रेस की झोली में आये. मैं लिख चुका हूं कि कर्नाटक के चुनाव में हर जाति तथा जाति-समूह के भीतर वोटों के मामले में एक वर्गीय रुझान देखने को मिला है.

चुनाव के नतीजे दो और पहलुओं की ओर संकेत करते हैं जबकि शुरूआती विश्लेषणों में इनकी अनदेखी हुई. शहरी और ग्रामीण इलाके के चुनाव-क्षेत्रों में हुए मतदान के रूझान तथा पोस्ट-पोल सर्वे के तथ्यों से जाहिर होता है कि गंवई इलाके के मतदाताओं में कांग्रेस को बड़ी बढ़त (लगभग 10 प्रतिशत की) हासिल हुई जबकि शहरों में कांग्रेस ने बीजेपी को वोटों के मामले में बराबर की टक्कर दी. यह पिछले चुनाव के एकदम उलट है जब ग्रामीण/शहरी वोटों का ऐसा बिखराव अहम नहीं था. इसी तरह, इंडिया टुडे के एक्गिट-पोल के तथ्य बताते हैं कि कांग्रेस को पुरुष मतदाताओं की अपेक्षा महिला मतदाताओं के ज्यादा वोट मिले. पुरुष मतदाताओं के बीच बीजेपी पर कांग्रेस को 5 प्रतिशत वोटों की बढ़त हासिल हुई जबकि महिला मतदाताओं के बीच यही आंकड़ा 11 प्रतिशत का है. यह आंकड़ा शुरूआती विश्लेषणों या अन्य सर्वेक्षणों में नहीं आ पाया था.

संक्षेप में कहें तो जाति, वर्ग, लिंग तथा स्थानीयता जैसे तमाम घटक एक ही दिशा में संकेत कर रहे हैं. खाते-पीते लोगों के ज्यादातर वोट बीजेपी को मिले जबकि अभावग्रस्त जीवन जी रहे ज्यादातर मतदाता कांग्रेस के पीछे लामबंद हुए. इन चार कोणों से देखें तो जान पड़ेगा कि कर्नाटक के चुनाव-परिणाम दरअसल कतार में सबसे पीछे की ओर खड़े लोगों की जीत है. अगर विपक्ष अन्य राज्यों में इसे दोहरा सके तो समझिए कि 2024 में केंद्र में सत्ता बदल जायेगी.

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कोई ध्यान दिलाये इसके पहले यहां ये भी दर्ज करते चलें कि यह कोई नई बात नहीं. गांव के लोगों, महिलाओं, दलित, आदिवासी तथा गरीब जन के बीच कांग्रेस को ज्यादा समर्थन मिलता है—ये बात लगभग उतनी ही पुरानी है जितने कि भारत में मतदान के रुझानों के बारे में होने वाले शोध-अनुसंधान. समाज का ऊपरी तबका बीजेपी की तरफ गोलबंद होता है— ये उतनी ज्यादा पुरानी बात नहीं है. मुझे याद आ रहा है अपना वह लेख जो बीजेपी के नये समर्थक सामाजिक वर्गों को केंद्र में रखते हुए मैंने 1999 में लिखा था.  फ्रंटलाइन में छपे उस लेख में बीजेपी की चुनावी जीत के राजनीतिक समाजशास्त्र की व्याख्या करते हुए मैंने लिखा था किः समाज के ऊपरी हिस्से में जाति और वर्ग के लिहाज से वोटों की गोलबंदी हुई है और सामाजिक पिरामिड के बड़े तथा निचले हिस्से में जो अमूमन बिखरा होता है, चंद समूहों के वोट बीजेपी की तरफ चले गये हैं.

साल 1999 के बाद से बीजेपी ने मोटा-मोटी चुनावी जीत के लिए यही राह अपनायी है. ये देखकर कि पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं और शहरी मतदाताओं की तुलना में ग्रामीण मतदाताओं के बीच उसे अपेक्षाकृत कम वोट मिलते हैं— बीजेपी ने इस दिशा में खूब मेहनत की है ताकि इन तबकों के बीच वोटों के मामले में होने वाला नुकसान निर्णायक ना रह जाये. बीजेपी ने ओबीसी समुदाय के चंद समूहों (ज्यादातर तो संख्या में छोटे तथा अति पिछड़े ओबीसी समूह), अनुसूचित जाति के चुनिन्दा हिस्से(अमूमन महादलित), कई आदिवासी समुदाय तथा मुसलमानों के बीच छोटे तबके(बोहरा, शिया और अभी पसमांदा) को अपनी तरफ खिंचा है ताकि वोटों के मामले में हो रहे नुकसान को कम किया जा सके. जहां तक गरीब जन का सवाल है—बीजेपी ने इन्हें लाभार्थी बनाकर अपने पाले में खींचने की राह अपनायी है. इसके पीछे सियासी सोच इस `हाथ से ले और उस हाथ से दे` की रही है.

इसी कारण, समाज के ऊपरी तबकों को अपने पीछे गोलबंद करने की बीजेपी की राजनीति की काट के लिए विपक्ष को सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के लोगों को अपनी तरफ खींचने की राजनीति अपनानी होगी. ध्यान रहे, यहां हम ये नहीं कह रहे कि विपक्ष को साधन-सुविधा के मामले में अभावग्रस्त, समाज के निचले 50 फीसद से ज्यादा लोगों की राजनीति करनी होगी. चूंकि हम यहां साधन-सुविधा के अभाव को चार कोणों(जाति, वर्ग, लिंग तथा स्थानीयता यानी शहरी या ग्रामीण) से देख रहे हैं सो, मुट्ठी भर हिन्दुस्तानियों को छोड़कर अन्य सभी एक ना एक अर्थ में इस अभावग्रस्त हिस्से के ही सदस्य माने जायेंगे : इसमें 80 फीसद लोग अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक समुदाय के हैं, कम से कम 66 प्रतिशत लोग गरीब तबके के हैं जिन्हें मासिक राशन मिलता है, इसमें 65 प्रतिशत लोग अब भी ग्रामीण इलाकों में रहते हैं तथा इस बड़े से हिस्से में 48 प्रतिशत तादाद महिलाओं की है. इन चार कोणों के सहारे सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से में मौजूद लोगों की हुई इस गणना के भीतर एक-दूसरे में पेवस्त धागों को अलगाते हुए एकसूत्रता के तर्क से गिनती करें तो नजर आएगा कि भारत की इस बड़ी आबादी में शहरी, अगड़ी जाति तथा अपेक्षाकृत सम्पन्न तबके के पुरुषों की तादाद 2 प्रतिशत है.

इसका मतलब ये हुआ कि सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से की राजनीति की जाये तो वह मतदान करने वाली 98 प्रतिशत लोगों की राजनीति होगी.


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तीन मॉडल जिनसे बचना होगा

अपने गणतंत्र पर फिर से दावा जताने, संवैधानिक मान-मूल्यों की हिफाजत तथा लोकतंत्र की संस्थाओं में नये प्राण फूंकने के जतन में जुटे लोगों को सामाजिक पिरामिड के इसी आधार पर नजर टिकानी होगी. लेकिन, ऐसा करने के जो प्रचलित तीन मॉडल उपलब्ध हैं, उनसे सतर्कतापूर्वक बचना होगा.

सामाजिक पिरामिड के निचले तबकी की राजनीति बेशक जरूरी है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बीजेपी ने लोगों को लाभार्थी बनाने का जो रास्ता चुना है, उसी राह पर बीजेपी कहीं ज्यादा रफ्तार से दौड़ लगा दी जाये. वजह ये कि लोगों को लाभार्थी बनाने और समझने का मतलब है लोगों से `दाता` और `पाता` का रिश्ता बनाना, खुद को राजा समझना और लोगों को प्रजा बूझना. ऐसे रिश्ते में ये समझ कत्तई नहीं होती कि लोग दरअसल नागरिक होते हैं और नागरिक हमेशा अधिकार-सम्पन्न होते हैं. कतार में सबसे पीछे की ओर खड़े लोगों के जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करके होने चलने वाली राजनीति को ध्यान रखना होगा कि लोग लाभार्थी नहीं बल्कि पुरुषार्थी (यहां इस शब्द स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से व्यवहार किया जा रहा है) होते हैं, वे कुछ पाने की आशा में हाथ जोड़कर खड़ी रियाया मात्र नहीं होते बल्कि सकर्मक नागरिक होते हैं—ऐसा नागरिक जो गरिमापूर्ण जीविका कमाने के लिए कठिन मेहनत करने को प्रतिबद्ध है. ये ही नागरिक दरअसल वस्तुओं, सेवाओं तथा ज्ञान के सर्जक होते हैं.

दूसरी बात कि कतार में सबसे पीछे खड़े लोगों की राजनीति वैसी कत्तई नहीं होनी चाहिए जैसी कि बीते दशकों में कांग्रेस की `गरीबी हटाओ` वाली राजनीति हुआ करती थी. सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से की इस राजनीति को खुशहाली और सर्व-जन के कल्याण की राजनीति का रूप लेना होगा. इसकी एक वजह तो यही है कि समाज के गरीब तबके का एक अहम हिस्सा– जिसमें छोटे किसान तथा कम आमदनी वाले शहरवासी शामिल हैं—अपने को गरीब कहलाना पसंद नहीं करता. दूसरे, वे दिन गये जब `गरीबी हटाओ` का नारा गरीबों को लामबंद करने के लिए काफी हुआ करता था. आज गरीब जनता चाहती है—उसे साफ लफ्जों में बताया जाये कि दरअसल उसके हाथ में क्या चीजें आने वाली हैं. और तीसरी बात ये कि आप गरीब जन के बारे में ये मानकर नहीं चल सकते कि उनका कोई चेहरा नहीं होता. जो वादा भूमिहीन गरीब से किया जायेगा वह भूस्वामी किसान के काम नहीं आने वाला. इसी तरह, ग्रामीण इलाके के शिल्पकारों को शहरी इलाके के नौकरीपेशा लोगों से अलग मानते हुए उनसे वादे करने होंगे. साथ ही, ये भी याद रहे कि अभी का समय मंडल-युग के बाद का समय है जब लोगों के वर्गीय जीवन का पक्ष उनके जातिगत पहचान के साथ घुला-मिला है.

तीसरी बात कि सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से को प्रधान मानकर होने वाली राजनीति को पुराने तर्ज की वामपंथी वर्गीय राजनीति को मॉडल मानकर चलने से बचना होगा. इस राजनीति के लिए जरूरी है कि वह अपने को बहुआयामी बनाये, वह सिर्फ कारखानों में काम करने वाले संगठित मजदूर तबके अथवा सीधे-सीधे आर्थिक वर्गों को ध्यान में रखकर की जाने वाली राजनीति तक सीमित ना रहे. वर्गीय-अंतर्विरोध तथा वर्ग-संघर्ष जैसे जुमलों का प्रयोग तबतक गैरजरूरी है जबतक कि बात `कमेरे बनाम लुटेरे` के सामान्य अर्थ में ना की जा रही हो. सामाजिक पिरामिड के सबसे निचले हिस्से को आधार मानकर की जाने वाली राजनीति के मूल में ये भाव होना चाहिए कि मजदूरों और किसानों के बीच गठबंधन बनाना है, समूचे ग्रामीण और खेतिहर तबके को एकजुट करके चलना है. कत्तई जरूरी नहीं कि इस राजनीति को `सरकारी क्षेत्र  में ही सेवा-सामान सब बने` की पैरोकारी में बदला जाये. इस सिलसिले की सबसे अहम बात ये कि सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से को प्रधान मानकर की जाने वाली राजनीति को ध्यान रखना होगा कि वह जन-कल्याण की योजनाओं पर सरकारी धन खर्च करके अपने लिए जन-समर्थन जुटाने के हथकंडे यानी बैरल इकोनॉमिक्स में ना बदल जाये. ऐसी राजनीति को सोचना होगा कि धन-संपदा कैसे पैदा हो और किस तरह लोगों के बीच उसका बंटवारा हो.

सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से को ध्यान में रखकर होने वाली राजनीति के पास नया गठजोड़, नयी रणनीति और नया मुहावरा होना चाहिए. हम जब यहां सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से की बात कर रहे हैं तो आशय पिरामिड के सबसे निचले हिस्से से नहीं बल्कि उसके आधार से है, जनता-जनार्दन के उस तबके से जो भारत का भी आधार है. सामाजिक पिरामिड के इस हिस्से के लोग अभावग्रस्त जीवन से निपटारा करने के लिए हाथ फैलाये खड़े लोग भर नहीं बल्कि सेवा, सामान और ज्ञान के अर्जक हैं तो सर्जक भी. ये उद्यमी लोग हैं, वैसे लोग जो संपदा का निर्माण करते हैं और इसी क्रम में राष्ट्र का भी निर्माण करते हैं. इस नाते, इस राजनीति का एजेंडा इतना देखना भर नहीं कि उन्हें किन चीजों की कमी है बल्कि ये देखना भी है कि ये लोग कर्म-कुशल हैं, इनके पास ज्ञानराशि है और महत्वाकांक्षाएं भी. जीवन जीने के लिए जरूरी बुनियादी चीजों का तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए लेकिन अब इससे आगे बढ़ते हुए ये भी देखना होगा कि सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के लोगों में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षाएं जागी हैं, वे शिक्षित होना चाहते हैं, सम्मानजनक जीविका कमाना चाहते हैं और चाहते हैं कि उन्हें गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा की सुविधाएं हासिल हो, साफ हवा-पानी और पर्यावरण-परिवेश उपलब्ध हो.

इस राजनीति की शुरुआत साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए हाल के राजनीतिक विकासक्रम के आधार पर बनी अल्पकालिक रणनीति के साथ ही होनी चाहिए. नये तर्ज की इस राजनीति के लिए अडाणी ग्रुप के गड़बड़-झाले का खुलासा होने से जमीन पहले ही तैयार हो चुकी है. मीडिया ने अपने चित्रपट पर ये मुद्दा भले धुंधला दिया हो लेकिन जन-मानस में ये मुद्दा राफेल सौदे पर उपजे विवाद से कहीं ज्यादा जगह बना रहा है. जाति-जनगणना की मांग से भी तकसीमी इंसाफ (डिस्ट्रीब्यूटिव जस्टिस) के मुद्दे को सामने आने में मदद मिली है. किसान-आंदोलन ने वह बुनियाद तैयार कर दी है जिसपर पूरे ग्रामीण समाज का राजनीतिक एकीकरण किया जा सके. शराब-निरोधी आंदोलन(शराब पर जहां तक हो सके अधिकतम निषेध की नीति) के सहारे लंबे समय के बाद महिलाओं के जीवन में दुख का कारण बनने वाला एक बड़ा मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडा बनकर उभरा है. चुनौती इन तमाम संभावनाओं को 202 के लिए एक ठोस एजेंडे में बदलने की है.

संवैधानिक मान-मूल्यों तथा लोकतंत्र की संस्थाओं को बचाने की राजनीति के लिए जरूरी नहीं कि वह आत्म-रक्षात्मक भाव अपनाकर चले. सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से को आधार मानकर होने वाली राजनीति से एक संभावना पैदा हुई है जब इसे परिवर्तनकारी तथा सकर्मक राजनीति का रूप दिया जा सकता है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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