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Saturday, 16 November, 2024
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JNU के कॉमरेड्स, कमल नाथ-कानुगोलु जंग, गहलोत की असुरक्षाएं – चुनाव में पर्दे के पीछे की अनकही कहानियां

तीन राज्यों में बीजेपी की जीत के पीछे कांग्रेस पार्टी के नेपथ्य में हुए कई छोटे-छोटे युद्धों की अनकही कहानियां भी छिपी हैं.

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इस बारे में बहुत कुछ लिखा गया है कि कैसे भाजपा ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पहले पिछड़ने के बाद शानदार वापसी कर जीत हासिल की. जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, गृह मंत्री अमित शाह का चुनाव प्रबंधन, इत्यादि शामिल है. जाहिर तौर पर कांग्रेस पार्टी की “फ्रीबीज़” और जाति की राजनीति ढह गई. जिस चीज़ के बारे में बात नहीं की गई है वह कांग्रेस पार्टी के नेपथ्य में होने वाले छोटे-छोटे युद्ध की. हो सकता है कि इन युद्धों ने नतीजों को निर्णायक रूप से प्रभावित न किया हो, लेकिन वे हमें चुनावी जीत और हार से ऊपर कांग्रेसियों की प्राथमिकताओं को समझने में मदद कर सकते हैं.

19 सितंबर को, जिस दिन कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में जन आक्रोश यात्रा शुरू की, पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, भोपाल में चुनाव रणनीतिकार सुनील कनुगोलू की टीम को राज्य इकाई प्रमुख कमल नाथ से उनके द्वारा प्रदान किया गया ऑफिस खाली करने का संदेश मिला. यह विधानसभा चुनाव में मतदान से करीब दो महीने पहले की बात है. 74 बंगला, भोपाल, के एक घर से काम कर रही टीम को अपना काम खत्म करने के लिए कुछ दिन का समय दिया गया था, लेकिन वे तीन घंटे में ही चले गए.

यह कनुगोलू के लिए अच्छा ही रहा. उन्होंने अपनी टीम को भोपाल में दूसरी जगह पर ऑफिस लेकर दिया और आलाकमान को जब भी जरूरत पड़ी स्थिति के बारे में बताते रहे. लेकिन उन्होंने अपना पूरा ध्यान तेलंगाना पर केंद्रित कर दिया. अब उन्हें वहां पार्टी की जीत का श्रेय दिया जा रहा है. हालांकि, जिस बात ने कांग्रेस नेताओं को हैरान कर दिया है, वह यह है कि जिस तरह से कमल नाथ कनुगोलू के पीछे पड़ गए थे उन्होंने यह सोचा भी नहीं – या फिर सोच समझ के किया कि यह पार्टी की चुनावी संभावनाओं को कैसे प्रभावित करेगा.

पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने मुझे बताया कि व्यापक सर्वेक्षण के बाद कनुगोलू की टीम के द्वारा उम्मीदवारों के नामों की लिस्ट में से 30-35 को पार्टी के “बड़े नेताओं” द्वारा “मनमाने ढंग से” बदल दिया गया था. नाथ ने कानुगोलू की टीम द्वारा नियोजित सोशल मीडिया अभियान को फंडिंग करने से भी इनकार कर दिया था. आख़िरकार रणदीप सुरजेवाला ने इसके लिए संसाधनों का इंतज़ाम किया. “यह देखते हुए कि सीबीआई और ईडी मनी लॉन्ड्रिंग मामले में कमल नाथ के परिवार (उनकी बहन नीता और भतीजे रतुल पुरी) के पीछे पड़े थे, हम उम्मीद कर रहे थे कि वह भाजपा को सबक सिखाने के लिए चुनाव अभियान में अपना दिल और आत्मा लगा देंगे . लेकिन पिछले 8-10 हफ्तों में उनमें वो आग दिखनी बंद हो गई. एआईसीसी के एक पदाधिकारी ने मुझे बताया, ”या तो वह अति-आत्मविश्वास में थे या उन्हें कोई परवाह नहीं थी.”

तत्कालीन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कानुगोलू के लिए दरवाज़ा बंद कर दिया था, लेकिन ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने डिज़ाइनबॉक्स्ड के नरेश अरोड़ा के साथ टाइअप कर लिया था.

राजस्थान के मतदाताओं की हर पांच साल में वैकल्पिक पार्टी चुनने की प्रवृत्ति को देखते हुए– रोटी पलटें नहीं तो जल जाएगी की तर्ज पर – और यह देखते हुए कि 2013 में 200 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस 21 सीटों पर कैसे सिमट गई थी, पार्टी के नेता इन नतीजों से बहुत निराश नहीं किया है. अरोड़ा कांग्रेस को लड़ाई में वापस लाने और भाजपा को अंत तक दुविधा में रखने में कामयाब रहे. अरोड़ा ने तर्क दिया है कि 50 विधायकों के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर थी लेकिन पार्टी ने विद्रोह के डर से उन्हें नहीं हटाया और नतीजा सामने है.

जो बात अरोड़ा नहीं कर रहे हैं वह ये है कि अशोक गहलोत अपने वफादारों को देने को तैयार नहीं थे क्योंकि अगर कांग्रेस जीतती तो सचिन पायलट का फिर से चुनौती देना तय था. ऐसी स्थिति में विधायकों की लॉयलिटी जरूरी थी खास कर तब जब ऐसा लग रहा था कि अगर पार्टी सत्ता बरकरार रखती तो आलाकमान इस बार पायलट के साथ जा सकती थी. तो क्या हुआ अगर कांग्रेस हार गई, पायलट तो नहीं जीते! हार में जीत देखने की शायद गहलोत के पास वजहें हों.


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वही कहानी, अलग स्थिति

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का अभियान वस्तुतः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व कॉमरेड्स द्वारा चलाया गया . प्रियंका वाड्रा के पीए संदीप सिंह, जो कि जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष थे, मुख्य रणनीतिकार थे. वह ऐसा या ऑल इंडिया स्टूडेंट्स यूनियन, CPI(M-L) लिबरेशन की छात्र शाखा से आए थे. संदीप को कई साथी मिले, विशेष रूप से एआईएसए के एक दूसरे पूर्व जेएनयूएसयू अध्यक्ष अकबर चौधरी, जिन्होंने अपनी खुद की राजनीतिक परामर्श कंपनी, मैट्रिक्स इंटेलिजेंस लॉन्च की थी. प्रियंका के पीए के रहने के कारण राज्य कांग्रेस के नेताओं की किसी भी निर्णयों में नहीं चली . तत्कालीन सीएम भूपेश बघेल ने भी प्रियंका की टीम के साथ जाना चुना. जेएनयूएसयू चुनाव लड़ने के अपने अनुभव के साथ, संदीप सिंह और उनके साथियों ने अभियान की रणनीति और उम्मीदवार तय किए. पार्टी के एक नेता ने मुझे बताया, “यदि आप उनके सर्वेक्षणों को देखते तो आप हंसते. पार्टी ने इसका भारी दाम चुकाया-चुनावी तौर पर या दूसरी तरह से.”

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की इन पर्दे के पीछे की कहानियों की चर्चा अब कांग्रेसी हलकों में हो रही है, लेकिन फुसफुसाहट में. अगर कानुगोलू और अरोड़ा की चलती और संदीप सिंह की नहीं, तो क्या इससे नतीजों पर कोई फर्क पड़ता? ‘हां’ या ‘नहीं’ में उत्तर देना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि कांग्रेस में कुछ नहीं बदलेगा. एक बात तो तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में संदीप सिंह बड़ी भूमिका निभाएंगे. आखिर कांग्रेस में कौन प्रियंका गांधी के पीए से सवाल पूछ सकता है?

हालांकि ये भी बात है कि पर्दे के पीछे के खिलाड़ियों को दोष क्यों दें? चुनावों में पार्टी का संदेश और संदेशवाहक कितना विश्वसनीय और आश्वस्त करने वाला है, यह मायने रखता है. अगर लोग राहुल या प्रियंका की तुलना में मोदी की गारंटी पर अधिक भरोसा करते हैं, जो की परिणामों से दिखा, तो यह कांग्रेस की “फ्रीबी” राजनीति का अंत हो जाना चाहिए. यदि जाति जनगणना के वादे से इन तीन राज्यों में कांग्रेस को कोई अतिरिक्त वोट नहीं मिला, तो यह राहुल गांधी के लिए संकेत है कि उनको इसकी बात छोड़ देना चाहिए. हालांकि, सच्चाई यह है कि वह इन संकेतों को पढ़ने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं. मंगलवार को उन्हें जवाहरलाल नेहरू पर अमित शाह के हमले में जाति जनगणना से ध्यान भटकाने की एक चाल नजर आई. उन्होंने कहा कि बीजेपी इससे डरती है और इसलिए भाग रही है.
क्या सचमुच!

(डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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