scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतबिहार महागठबंधन में 20 सीटें? आखिर कांग्रेस चाहती क्या है

बिहार महागठबंधन में 20 सीटें? आखिर कांग्रेस चाहती क्या है

बिहार में महागठबंधन का नेतृत्व आरजेडी के हाथ में है. वहां कांग्रेस अपनी हैसियत से ज़्यादा सीटें मांगकर उसके लिए मुसीबत खड़ी कर रही है.

Text Size:

कांग्रेस पार्टी तीन उत्तर भारतीय राज्यों में सरकार बनाने के बाद उत्साहित है, और अपने पक्ष में बने माहौल का लाभ 2019 के लोकसभा चुनावों में उठाना चाहती है, लेकिन इस प्रयास में वह उन दलों से भी दूरी बनाने की चूक कर रही है, जो हर आड़े वक्त में उसके साथ रहे हैं. ताजा मामला बिहार का है, जहां उसने आरजेडी से 20 सीटों की मांग की है. ध्यान रहे कि बिहार में कुल 40 ही लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से वह आधी मांग रही है.

यहां यह भी ध्यान देना चाहिए कि बिहार में आरजेडी के गठबंधन में पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की हम, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी भी है. इतना ही नहीं, शरद यादव का लोकतांत्रिक जनता दल, मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी भी महागठबंधन में है. आरजेडी भाकपा-माले को भी महागठबंधन में रखना चाहता है. सीपीआई भी जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के लिए एक सीट मानकर चल रही है. हालांकि आरजेडी ने अभी सीपीआई को सीट देने का मन नहीं बनाया है.


यह भी पढ़ेंः सपा-बसपा गठबंधन के बाद कितनी सुरक्षित है योगी की कुर्सी


2015 का बिहार विधानसभा चुनाव आरजेडी ने जेडीयू और कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ा था. जेडीयू के बीजेपी के खेमे में चले जाने से वहां की राजनीतिक स्थिति बदल गई है. इसलिए राजद वहां एक नया सतरंगी गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है, जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व मिल सके. ऐसे में अगर कांग्रेस की दबाव की राजनीति सफल रहती है तो आरजेडी को करीब 10 सीटें ही लड़ने को मिलेंगी, और इसके लिए वह शायद ही तैयार होगा.

सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस इतने उत्साह में आ गई है कि वह बिहार जैसे राज्य में खुद को सबसे बड़ी पार्टी मानने लगी है, जहां वास्तव में वह दो दशकों से बिलकुल हाशिए पर पड़ी है.

उत्तर प्रदेश में भी उसने सपा-बसपा गठबंधन द्वारा केवल 2 सीटें उसको दिए जाने से नाराज़ होकर सारी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. हालांकि, इस राज्य में यह माना जा रहा है कि कांग्रेस के पूरी ताकत से लड़ना सपा-बसपा गठबंधन के लिए लाभदायक हो सकता है.

ऐसा भी माना जा रहा है कि सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच की दूरी दरअसल इनके नेतृत्व के बीच बनी सहमति और रणनीति के कारण है, ताकि कांग्रेस कुछ बेहतर स्थिति में आकर भाजपा के वोट काट सके. हो सकता है आने वाले समय में दोनों पक्षों के कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं के बीच कटुता बढ़ती भी दिखाई दे, जबकि बड़े नेता शालीनता कायम रखेंगे. ये अनुमान सही हो सकते हैं, लेकिन बिहार में कांग्रेस ने जो रवैया अपनाया है, उससे ये भ्रम टूटता दिखता है, जबकि अब तक लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी आरजेडी केंद्र में कांग्रेस का साथ लगातार देती रही है.

लालू प्रसाद यादव उन गैरकांग्रेसी नेताओं में सबसे आगे रहे हैं, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने की खुली पैरवी करते रहे हैं. उसके पहले जब तमाम दल सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर उनके प्रधानमंत्री बनने का विरोध कर रहे थे, तब भी लालू प्रसाद सोनिया के पक्ष में तब तक खड़े रहे जब तक खुद सोनिया पीछे नहीं हट गईं.
अब बिहार में आरजेडी जैसे विश्वस्त सहयोगी पर अधिक दबाव डालकर कांग्रेस एक तरह से उन्हें यूपीए के खेमे से निकालकर गैरकांग्रेसी गैर भाजपाई मोर्चे की ओर धकेल रही है, जिसको बनाने में टीआरएस नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव लगे हैं.

कांग्रेस यह बात भूल रही है कि बेशक बिहार से उसे उखाड़ने में लालू प्रसाद यादव की बड़ी भूमिका रही है, लेकिन वह करीब 30 साल पुरानी बात है. पिछले दो दशकों से तो कांग्रेस लालू प्रसाद यादव के बल पर ही बची रही है.
वैसे बिहार में कांग्रेस के जनाधार के सिकुड़ने का सबसे बड़ा प्रमाण तो ये है कि 2004 में वह आरजेडी के साथ समझौता करके केवल 2 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. बाकी सीटों के उसके सारे प्रभावशाली नेता दूसरे दलों में शिफ्ट हो गए थे. अब अचानक कांग्रेस अपने को बिहार की सबसे बड़ी पार्टी मानने लगी है.

बिहार में कांग्रेस का ज़्यादा सीटों पर लड़ना खुद यूपीए के लिए नुकसानदायक हो सकता है और इस गठबंधन को तभी बड़ी सफलता मिल सकती है जब वह लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में और उनकी रणनीति के हिसाब से लड़े. 2015 के चुनाव में भी कांग्रेस के 26 विधायक तब चुनकर आए थे जब जेडीयू और आरजेडी के साथ महागठबंधन में कांग्रेस को 43 सीटें लड़ने के लिए दी गई थीं. जेडीयू और आरजेडी ने 100-100 सीटों पर लड़कर क्रमशः 73 और 80 सीटों पर जीत हासिल की थी. यानी तब भी कांग्रेस का स्ट्राइक रेट जेडीयू और आरजेडी से काफी कम था.

बिहार में कांग्रेस 1990 में जनता दल के सत्ता में आने के बाद से ही बाहर है. बाद में जनता दल के विभाजन और लालू प्रसाद यादव के कमजोर होने के बाद उसे कभी-कभी बहुत छोटे पार्टनर के तौर पर सरकार में शामिल होने का मौका ज़रूर मिलता रहा है, लेकिन उसकी खुद की स्थिति बहुत कमज़ोर रही है. अकेले जब भी वह मैदान में उतरी, तब-तब उसकी बुरी हार हुई है.


यह भी पढ़ेंः सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस का क्या काम?


ये जाना-माना तथ्य है कि इस समय तकरीबन हर गैरभाजपाई दल हर हाल में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से हटाना चाहता है, लेकिन कांग्रेस उनकी इस इच्छा का फायदा उठाते हुए, खुद को शीर्ष पर लाने और अन्य क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की कोशिश कर रही है. इसका उसे राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान हो सकता है.

ऐसा भी लगता है कि कांग्रेस यूपी में सपा-बसपा गठबंधन में शामिल न किए जाने से होने वाले नुकसान को बिहार में आरजेडी के जरिए पूरा करना चाहती है. हालांकि, ऐसा लगता नहीं कि तेजस्वी यादव अपने प्रभाव के एकमात्र राज्य में दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकार करके राजनीतिक आत्महत्या करने का विकल्प चुनेंगे.

तेजस्वी को यह बात भी याद होगी कि लालू प्रसाद यादव के इस समय जेल में होने का कारण राहुल गांधी ही हैं, जिन्होंने उस विधेयक की प्रतियां फाड़ दी थीं जिसके जरिए दो साल से ज़्यादा की सज़ा पाए दोषी को अपील का निस्तारण होने तक चुनाव लड़ने की अनुमति कायम रखी जानी थी.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)

share & View comments