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Friday, 5 December, 2025
होममत-विमत1989 रुबैया सईद अपहरण—कैसे कश्मीर में भारत की नीतियों पर आज भी इस मामले का साया मंडरा रहा है

1989 रुबैया सईद अपहरण—कैसे कश्मीर में भारत की नीतियों पर आज भी इस मामले का साया मंडरा रहा है

किडनैपिंग के तुरंत बाद चार इंडियन एयर फ़ोर्स अफ़सरों की हत्या और इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोगों को फांसी देने से जिहाद की जीत पक्की लगने लगी.

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श्रीनगर में आतिशबाज़ी आसमान में उठ रही थी. उनकी गरम रोशनी पुराने शहर से गुजरने वाली नहरों पर पड़ रही थी, जो आगे शांत डल झील में जाकर मिलती थीं. छोटे-छोटे बच्चे, जो उस बड़े जुलूस के किनारों पर खड़े थे—यह जुलूस राजौरी कदल से होकर गुजर रहा था, जिसमें भारत सरकार द्वारा उस रात जेल से छोड़े गए पांच आतंकवादी भी थे—कारों को रोककर इस जश्न के लिए पैसे मांग रहे थे. एक हफ्ते से भी कम समय बाद, रोमानिया के कम्युनिस्ट नेता निकोलाए चाउसेस्कु का शासन ढह गया. कश्मीरी अलगाववादियों को लगा कि भारतीय राज्य भी गिराए जाने के लिए तैयार है.

इस हफ्ते, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई ने 13 दिसंबर 1989 की रात को छोड़े गए खतरनाक लोगों में से कुछ को पकड़ने की कोशिश के तहत नई गिरफ्तारी की है. उसी रात—पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बड़ी बेटी—को चुपचाप घर लाया गया था. उसके बदले पांच आतंकवादियों की रिहाई की कीमत चुकाई गई थी.

फरार शफ़ात अहमद शांगलू, जिसके सिर पर 10 लाख रुपये का इनाम था, ताज़ा गिरफ्तार किया गया है. सीबीआई का आरोप है कि वह उन लोगों में शामिल था जिन्होंने अपहरण में मदद की थी.

लेकिन यह कहानी—जैसे कि रुबैया सईद के अपहरण के बाद से कही गई कई कहानियां—समझ में नहीं आती. एक कथित भगोड़े के लिए, शांगलू पूरी तरह खुले तौर पर रह रहा था. वह फेसबुक पर अपनी ज़िंदगी साझा करता था, जहां नामी विद्वान और पत्रकार भी उससे जुड़े थे. वह एक छोटा लेकिन सफल व्यवसाय चला रहा था. टाडा अदालत में पेश करने के बाद, सीबीआई की हिरासत की माँग को असामान्य रूप से खारिज कर दिया गया.

अपहरण—जिसके बाद जल्द ही चार भारतीय वायुसेना अधिकारियों की हत्या और खुफिया ब्यूरो कर्मियों की हत्याएं हुईं—से ऐसा लगने लगा कि उग्रवाद की जीत तय है. और कुछ बड़े भारतीय नीति-निर्माताओं ने फैसला किया कि उनके पास इन आतंकवादियों को कश्मीर के भविष्य के नेताओं में बदलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.

शौकिया शांति-दूत

स्थानीय पुलिस अधिकारी तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, जो 1989 की अपहरण की घटना संभालने लंदन से लौटे थे, को बता रहे थे कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यानी JKLF के आतंकवादियों को रिहा करने की ज़रूरत नहीं होगी. अब्दुल्ला को बताया गया कि कश्मीरी धार्मिक नेता उस युवा डॉक्टर की रिहाई के लिए दबाव डाल रहे थे और आम लोग इस अपहरण से नाराज़ थे. जिस मिनीबस से वह काम से घर लौट रही थीं, वहीं से रुबैया को उठाया गया था. पहले उसे सोपोर ले जाया गया. फिर उसे व्यापारी मोहम्मद याकूब के घर ले जाया गया, जहाँ सुरक्षा एजेंसियों ने पनाह सुनिश्चित की थी.

जैसे ही अब्दुल्ला अपहरणकर्ताओं के झुकने का इंतिज़ार करने की कोशिश कर रहे थे, कई मध्यस्थ अचानक बीच में आ गए. श्रीनगर के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ अब्दुल अहद गुरु, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज मोती लाल भट्ट और पत्रकार ज़फर मीराज. थोड़े समय बाद, केंद्र सरकार के तीन मंत्री—अरुण नेहरू, आईके गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान—भी इसमें शामिल हो गए.

विशेषज्ञ मनोज जोशी ने लिखा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के भारी दबाव में, अब्दुल्ला ने आखिरकार हमीद शेख, जो अस्पताल में गोली के घाव से उबर रहे थे, के साथ मोहम्मद अल्ताफ बट, शेर खान, जावेद अहमद ज़रगर और मोहम्मद कलवाल को रिहा करने का निर्णय मान लिया. फिर उन्होंने प्रधानमंत्री को चौदह पन्नों का पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें क्यों लगा कि यह फैसला बेहद गलत है.

कश्मीरी अलगाववादी नेता यासीन मलिक के सीधे शब्द बताते हैं कि उन्होंने इस पूरे संकट का इस्तेमाल कैसे खुद को आंदोलन के प्रवक्ता के रूप में पेश करने में किया, जिसमें खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा सेवाओं की मदद भी शामिल थी.

आतंकियों से बात करना

भारत की खुफिया एजेंसियों के लिए, रुबैया के अपहरण ने उभरते हुए राजनीतिक टूटन का संकेत दिया था. आतंकियों के दबाव ने भारत की शासन क्षमता को कमजोर कर दिया. बड़ी संख्या में नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी, जिससे पार्टी का जमीनी ढांचा जम्मू की ओर भागने को मजबूर हो गया. 1989 के लोकसभा चुनावों में मोहम्मद शफी भट श्रीनगर से बिना किसी मुकाबले के चुने गए, जबकि सैफुद्दीन सोज़ बारामूला से सिर्फ 1 प्रतिशत वोट के साथ जीत गए. इन असफल चुनावों के बाद बम धमाकों और गोलीबारी की श्रृंखला शुरू हो गई, जिससे भीड़ कई बार सेना और पुलिस के खिलाफ खड़ी हो गई.

दिल्ली हाई कोर्ट में चल रहे एक समान आतंकवाद फंडिंग मामले में यासीन द्वारा दायर एक हलफनामा साफ करता है कि उन्हें बहुत तेज़ी से एक संभावित राजनीतिक साधन के रूप में चुना गया था. 6 अगस्त 1990 को गिरफ्तारी के बाद उन्हें दिल्ली के बाहरी इलाके महरौली में सीमा सुरक्षा बल (BSF) के गेस्ट हाउस में लाया गया. वहां BSF, इंटेलिजेंस ब्यूरो और पुलिस के अधिकारी बार-बार उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिलने का दबाव बनाते रहे.

गंभीर हृदय समस्याओं का सामना करते हुए उन्होंने 1992 में ओपन हार्ट सर्जरी करवाई. दो सरकारी सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि इसके लिए पैसा उन फंड्स से लिया गया था जो मूल रूप से शहर में रहने वाले गरीब कश्मीरी पंडित शरणार्थियों की जरूरतों के लिए निर्धारित थे. कुलदीप नैयर और जस्टिस राजिंदर सच्चर जैसे प्रसिद्ध नागरिक समाज के सदस्य उनके हलफनामे के अनुसार उनसे कई बार मिले, साथ ही कई उच्च अधिकारी भी.

तीन साल की बातचीत, जिसमें यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनयिक भी शामिल थे, यासीन को अहिंसक लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध करने में सफल हुई. यह निर्णय शायद प्रतिद्वंद्वी समूहों, जैसे हिज्ब-उल-मुजाहिदीन, के हाथों JKLF के सफाए से प्रभावित था. JKLF नेता को उसके खिलाफ लंबित सभी 32 मामलों में एक साथ जमानत मिल गई और अभियोजन बस गायब हो गया. वह आगे चलकर भारत के गृह मंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से, और पाकिस्तान में जनरलों तथा जिहाद कमांडरों से मिलता रहा.

अंतिम खेल जो कभी पूरा नहीं हुआ

पूर्व RAW प्रमुख के संस्मरणों से हमें पता चलता है कि कई समान प्रयास पहले से ही चल रहे थे. 1989 में गिरफ्तार किए गए पीपल्स लीग के नेता शबीर शाह को तैयार करने की कोशिश की जा रही थी कि क्या वह 1996 में होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने को तैयार होंगे. हालांकि लंबे प्रयासों का अंत उस “भारी निराशा” में हुआ, जैसा दुलत ने लिखा है. शाह के आसपास के लोग—जैसे फिरदौस सैयद, बिलाल लोधी, इमरान राही और गुलाम मोहिउद्दीन—ने 1996 में एक शांति पहल की घोषणा की, लेकिन न उनके पास कोई राजनीतिक नेता था और न ही कार्रवाई की कोई स्पष्ट योजना.

2002 में हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के असंतुष्ट अब्दुल मजीद डार की अगुवाई में एक और शांति प्रयास हुआ, लेकिन उसका अंत भी भयंकर आंतरिक संघर्ष में हुआ.

हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के प्रमुख मोहम्मद यूसुफ डार—जो सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाने जाते हैं—को घर लौटने के लिए मनाने के लिए अलग प्रयास किए गए. 2000 में, उनके बेटे को इंटेलिजेंस ब्यूरो की मदद से श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया, जबकि उसके पास पर्याप्त अंक नहीं थे.

ज्यादातर समय, दुलत लिखते हैं, भारत की खुफिया एजेंसियां अलगाववादियों को खरीदना चाहती थीं. यह पहले के पैटर्न के अनुरूप ही था. 1984 में फारूक अब्दुल्ला सरकार को गिराना “पैसे से हुआ था जो IB के बैग में आया और जिसे एक बड़े व्यापारी, पूर्व कांग्रेस सांसद तीरथ राम अमला, ने बांटा.”

हालांकि इन मदद के बावजूद हिज्ब प्रमुख घर लौटने को तैयार नहीं हुए. भारतीय सरकार के साथ संवाद के संभावित साझेदारों, जैसे अब्दुल गनी लोन, की हत्याएं जारी रहीं. चुनाव दर चुनाव.

और यासीन के खिलाफ मामले बस लटके रहे, ऐहतियात के तौर पर—but जल्दी ही उसका महत्व खत्म हो गया.

2016 में, दक्षिण कश्मीर के बड़े हिस्सों से भारतीय राज्य को बाहर धकेल देने वाले विद्रोह ने यह बात साफ कर दी कि 1989 के बाद उभरने वाले अलगाववादी अब किसी के प्रतिनिधि नहीं थे. खासकर उन युवाओं के, जो सड़कों पर भारत से लड़ रहे थे. इसका कारण खोजना मुश्किल नहीं है. भारत के प्रयासों ने राजनीतिक संवाद के बजाय सिर्फ पैसों को साधन बनाया. राजनीतिक भागीदारी कैसी दिखेगी और नई ताकतें नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पुरानी पार्टियों के साथ कैसे काम करेंगी, इस पर कोई गंभीर बातचीत नहीं हुई.

2019 के बाद से सरकार ने दशकों से रुके पुराने मामलों को आगे बढ़ाना शुरू किया, यह संकेत देते हुए कि वह आतंकवाद से लड़ने को लेकर गंभीर है. अपहरणकर्ताओं को उनके अपराधों की सजा मिलनी चाहिए थी, न कि उन्हें कश्मीर के भविष्य के राजनीतिक नेताओं की तरह प्रस्तुत किया जाना चाहिए था.

युद्ध से तबाह राजनीतिक ढांचे को फिर से खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है. किसी राजनीतिक वर्ग के लिए अपनी शक्ति और वैधता वापस पाना आसान काम नहीं है. यासीन के मामलों से जो असली सबक मिलता है वह यह है कि पैसा कभी भी उन हत्यारों के दाग नहीं मिटा सकता जिन्होंने न तो अपने तरीकों पर पछतावा जताया और न ही अपने लक्ष्यों पर.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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