अपने जन्मदिन 4 दिसंबर को मुझे 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान मनाए गए अपने जन्मदिन की बहुत याद आया करती है. 30 नवंबर से 6 दिसंबर 1971 तक मेरी यूनिट 4 सिख रेजिमेंट- जो सारागढ़ी किले की 1897 की लड़ाई के लिए मशहूर है. जेस्सोर में दुश्मन के फौजी अड्डे से आठ किलोमीटर पर भीषण युद्ध में फंसी थी. दुश्मन फौज को उसने दम नहीं लेने दिया, और 6 दिसंबर की देर रात भारी कीमत चुकाने के बाद जीत हासिल हुई. हमारे दो जेसीओ और 25 ओआर शहीद हुए, छह जेसीओ और 77 ओआर घायल हुए. सबसे ज्यादा हताहत हुए अंतिम हमला करने वाले ‘ब्रावो’ या बी कंपनी के फौजी.
पृष्ठभूमि
ब्रिगेडियर मुहम्मद हयात की कमान में पाकिस्तान की 107 इनफैन्ट्री ब्रिगेड को जेस्सोर सेक्टर की रक्षा के लिए तैनात थी. तीन प्रमुख सड़कें जेस्सोर से गुजरती हैं इसलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है. एक सड़क वह है जिस पर 117 किलोमीटर उत्तर में पद्मा नदी पर बना हार्डिंग पुल है; दूसरी सड़क पर 100 किमी पूरब में पद्मा नदी का गोलंडो घाट/फरीदपुर है और उससे आगे ढाका है; तीसरी सड़क पर 65 किमी दक्षिण में बंदरगाह शहर खुलना है. जेस्सोर पाकिस्तानी फौज के 9 इनफैन्ट्री डिवीजन और 107 इनफैन्ट्री ब्रिगेड का स्थायी अड्डा था. छावनी और फौजी हवाई अड्डा जेस्सोर शहर से पश्चिम में स्थित था. वहां छावनी और फौजी हवाई अड्डा के इर्दगिर्द कंक्रीट का टैंक-रोधी गड्ढा बनाकर पक्की सुरक्षा की व्यवस्था की जा चुकी थी.
1971 में 107 इनफैन्ट्री ब्रिगेड ने जेस्सोर के किले से मुख्य लड़ाई लड़ने की योजना बनाई थी, जिसे हर कीमत पर बचाना था. मोर्चाबंदी को मजबूत करने के लिए जेस्सोर पहुंचने के तीन रास्तों पर पक्की किलेबंदी की गई थी. एक किलाबंदी उत्तर-पश्चिम से आने वाले रास्ते पर चौगाछा में की गई थी, दूसरी बोयरा से पश्चिम की ओर से आने वाले रास्ते पर बुरिंदा-केमकोला में, और तीसरी किलबंदी बांगांव से दक्षिण-पश्चिम की ओर से आने वाले रास्ते पर झिकरगाछा में की गई थी. अंतिम लड़ाई में ये तीनों किलेबंदियां जेस्सोर की मदद ले सकती थीं. भारतीय सेना को आगे बढ़ने से रोकने के लिए सुदूर पश्चिम में टोही टुकड़ियां तैनात की गई थीं. उनके सीमित संसाधनों के मद्देनज़र यह दुश्मन के खिलाफ दुरुस्त सैन्य योजना थी.
जेस्सोर और खुलना पर कब्जा करने के मिशन के साथ हमारी 9 इनफैन्ट्री डिवीजन ने 10 नवंबर 1971 को कुछ पाकिस्तानी चौकियों पर कब्जा करके शुरुआती कार्रवाई की. 20 नवंबर को यह डिवीजन जेस्सोर की रक्षा के लिए तैनात पाकिस्तानी किलेबंदियों तक पहुंच गया. इस पर 107 इनफैन्ट्री ब्रिगेड ने जबरदस्त हिंसक कार्रवाई की, जिसका अंत 21 दिसंबर को गरीबपुर में मूर्खतापूर्ण जवाबी हमला किया गया, जिसमें दुश्मनों ने उस सेक्टर में तैनात अपने 14 में से 11 टैंक गंवा दिए.
इस चरण में मेरी यूनिट तेजी से आगे बढ़कर 20 नवंबर को चौगाछा के संपर्क में आ गई. वहां हमने 22 नवंबर को वह मशहूर हवाई युद्ध देखा जिसमें तीन सैब्रे एफ-18 विमान मार गिराए गए थे और हमने उनके एक पाइलट को कब्जे में ले लिया था, जो आगे चलकर पाकिस्तानी वायुसेना का चीफ ऑफ स्टाफ बना. गरीबपुर में नाकाम जवाबी हमले ने चौगाछा में उसकी मोर्चाबंदी को कमजोर कर दिया और मेरी यूनिट ने 22-23 नवंबर की रात उस पर कब्जा कर लिया. लेकिन दुश्मन जल्दी ही संभाल गया और उसने 8 किमी पर दक्षिण-पूर्व में आफरा पर दूसरी मोर्चाबंदी कर ली.
इसके बाद, 9 इनफैन्ट्री डिवीजन ने जेस्सोर पर कब्जे के लिए अपनी व्यूहरचना बदली. 42 इनफैन्ट्री ब्रिगेड को उत्तर-पश्चिम में चौगाछा-जेस्सोर रोड से आगे बढ्न और हमला करने के लिए कहा गया; 350 इनफैन्ट्री ब्रिगेड (मेरी यूनिट जिसका हिस्सा थी) को बोयरा-जेस्सोर रोड से पश्चिम की ओर से आगे बढ़ने को कहा गाय; 32 इनफैन्ट्री ब्रिगेड को बांगांव-झिकरगाछा रोड से दक्षिण-पूर्व की ओर से बढ़ने के लिए कहा गया. देखें नक्शा 1.
बुरिंदा में लड़ाई
बुरिंदा-केमकोला पर मोर्चाबंदी की कमान तीन कंपनियों ने संभाली थी. बुरिंदा सबसे मजबूत स्थिति में था, जिसकी कमान एक कंपनी के साथ एक प्लाटून ने मिलकर संभाली थी. पूरब से इसे मजबूत करने के लिए बाराकुली और छोटाकुली को एक-एक प्लाटून ने संभाल रखा था. दक्षिण से मजबूती देने के लिए केमकोला –मनोहरपुर में एक कंपनी तैनात की गई थी. पश्चिम में छह किमी आगे मुहम्मदपुर में एक कंपनी तैनात की गई थी.
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बुरिंदा एक ठेठ बंगाली गांव था- उत्तर से दक्षिण 1000 मीटर की लंबाई और पश्चिम से पूरब 300 मीटर की चौड़ाई में पसरा. मिट्टी की दीवारों और फूस की छतों वाले घरों तथा केले एवं बांस के पेड़ों से भरे गांव में कई पोखर और ऊंचे बांध बने थे. सबसे बड़ा पोखर 150 मीटर लंबा और 100 मीटर चौड़ा था, जो गांव के दक्षिण-पश्चिम में 15 फुट ऊंचे बांधों से घिरा था. सभी पोखरों के बांधों का इस्तेमाल बंकर बनाने के लिए किया गया था. कई घरों को चौकियों में बदल दिया गया था. हमला करने वालों के लिए बारूदी सुरंगें आदि बड़ी सफाई से बिछाई गई थीं. लड़ाई खत्म होने के बाद मेजर हामिद अली की जुगाड़ बुद्धि की तारीफ किए बिना नहीं रहा जा सकता था. वो 12 पंजाब रेजिमेंट का दूसरा कमान अधिकारी था, और बुरिंदा तथा आसपास तैनात तीन कंपनियां उसके मातहत थीं. उत्तर से दक्षिण की दिशा में कई अवरोध खड़े करके गहरी मोर्चाबंदी की गई थी. मुख्य मोर्चाबंदी गांव के सबसे बड़े पोखर के पास की गई थी.
बुरिंदा पर पहला हमला 28/29 नवंबर की रात 1-जम्मू-कश्मीर राफल्स ने किया. तीन टैंकों के साथ एक कंपनी ने पश्चिम से यह मान कर हमला किया कि उधर दुश्मन का मोर्चा कमजोर होगा. लेकिन हमले को भारी जवाबी हमले से धकेल दिया गया, जिसमें हमारे तीन जेसीओ और 16 ओआर शहीद हुए और करीब 60 सैनिक घायल हुए.
30 नवंबर को 4 सिख रेजिमेंट को बुरिंदा पर कब्जा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. हमने पासापोल गांव में मजबूत अड्डा बनाया. हमारी और दुश्मन की सेनाएं किस तरह तैनात थीं, यह नक्शा 2 में देखें.
उपलब्ध कवर का इस्तेमाल करते हुए उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए अलग-अलग चरण में हमला करने की योजना बनाई गई. पहले चरण में कंपनी ने डिवीज़नल तोपखाने की 90 तोपों और बख्तरबंद गाड़ियों के एक स्क्वाड्रन के साथ 30 नवंबर/1 दिसंबर की रात में हमला किया. बुरिंदा के उत्तरी छोर पर स्थित मत्स्यरंगा गांव पर कब्जा कर लिया गया. लेकिन भारी जवाबी कार्रवाई के कारण हम आगे नहीं बढ़ सके. पता चला कि मत्स्यरंगा गांव का इस्तेमाल केवल अवरोध बनाने के लिए किया गया था.
अगले 24 घंटे में दक्षिण में मोर्चाबंदी और मजबूत की गई. लेकिन ऊपरी मुख्यालय ने तय किया कि आगे कार्रवाई युद्ध की घोषणा के बाद की जाएगी. इस तरह, 3 दिसंबर को युद्ध की घोषणा होने के बाद हमला 3-4 दिसंबर की रात में फिर शुरू किया गया. एक कंपनी ने मत्स्यरंगा गांव से हमला शुरू किया और एक और प्लाटून की पोजीशन पर कब्जा किया. एक बार फिर पाया गया कि यह भी एक अवरोध खड़ा किया गया था.
अब तक, हमारी तोपों और टैंकों की गोलाबारी के कारण हमारे कम सैनिक मारे जा रहे थे. दुश्मन बहुत चालाकी से, मकानों और तालाबों का बढ़िया इस्तेमाल करते हुए लड़ रहा था. अवरोधों के कारण हमें मजबूरन हमले करने पड़ रहे थे और हम जब करीब पहुँचते थे तो वे पीछे हट जाते थे. पोखरों, मकानों और झाड़ियों आदि के कारण रात में आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था. फैसला किया गया कि बुरिंदा में मोर्चाबंदियों पर दिन में हमला किया जाएगा. अगले 36 घंटे अपना आधार मजबूत करने में लगाए गए.
बी कंपनी ने दोपहर 1.45 बजे दक्षिण दिशा से गांव पर हमला किया. सी कंपनी सात टैंकों के साथ पूरब से बढ़ी ताकि दक्षिण-पूरब से हमला कर सके. दोनों कंपनियों को कड़े मुक़ाबले का सामना करना पड़ा. दो टैंक बारूदी सुरंगों के शिकार हो गए, एक को रॉकेट लाँचर के हमले ने बेकार कर दिया. बी कंपनी को मशीन गन के भारी हमले का सामना करना पड़ा और हर मिनट मृतकों की संख्या बढ़ रही थी. फिर भी, टुकड़ियां गोलाबारी करती आगे बढ़ रही थीं. दुश्मन ने उन सभी स्थानों पर बड़ी सफाई से बारूदी सुरंगे आदि बिछा रखी थी जहां फौजें आगे बढ़ने के क्रम में पोजीशन लेती हैं. बड़ी संख्या में फ़ौजियों की मौत के बावजूद बी कंपनी हमला जारी रखे थी.
शाम 6 बजे तक दुश्मन का जवाबी हमला कंजोर पड़ने लगा था. सी कंपनी ने पूरब और दक्षिण-पूर्व से बुरिंदा का संपर्क काट दिया था और बी कंपनी एक प्लाटून के साथ बड़े तालाब पर पहुंच चुकी थी. तालाब के बांध पर आमने-सामने की लड़ाई होने लगी. सी कंपनी ने भी दक्षिण-पूर्व से हमला कर दिया. सुबह 4 बजे तक छिटपुट लड़ाई चलती रही. जब अंतिम बंकर खाली कराया गया, बी कंपनी के 100 में से केवल 20 सैनिक बचे थे. हमले में 22 सैनिक शहीद हुए और 60 घायल हुए. दुश्मन 25 शवों को चार घायलों को छोड़ गया था. घायलों को युद्धबंदी बना लिया गया.
हम 6 दिसंबर को जेस्सोर की ओर बढ़े और 7 दिसंबर को दोपहर 3 बजे तक हवाई अड्डे पर कब्जा कर लिया. मोर्चेबंदी के लड़ाई में उलझे होने के कारण 107 इनफैन्ट्री ब्रिगेड ने जेस्सोर से वापस लौटने का फैसला कर लिया.
पोस्ट स्क्रिप्ट
4 सिख रेजिमेंट का एड्जुटेंट होने के कारण मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी हमले की कमान संभालना और तालमेल बनाए रखना थी. लेकिन दिसंबर 1968 में कमीशन होने के बाद मैं बी कंपनी से जुड़ा था इसलिए हमले से पहले मैं उनसे मिलने गया. मैं उसके सभी सैनिकों को निजी तौर पर जानता था. उनमें कोई शक-शुबहा का भाव नहीं था. तैयारी पक्की थी और हौसले बुलंद थे. यूनिट के धार्मिक शिक्षक प्रसाद बांट रहे थे. मैंने कंपनी में सबसे हाथ मिलाया और मुझे पूरा भरोसा हो गया कि ये शानदार फौजी अपनी यूनिट और देश का नाम ऊंचा करेंगे.
अगले दिन, हमने कार्रवाई में शहीद हुए 27 जेसीओ और ओआर का सामूहिक दाह संस्कार किया. उनमें से 22 बी कंपनी के थे. सेना के इतिहास में बुरिंदा की लड़ाई को उन सैकड़ों लड़ाइयों में से शायद एक ऐसी लड़ाई के रूप में दर्ज किया जाएगा, जो पाकिस्तानी फौज की दिमागी शिकस्त के हालात बनाने के लिए ऑपरेशन लेवल के अभियान के रूप में लड़ी गईं. लेकिन हम जैसे लोग, जो उस लड़ाई में शामिल थे, उसे मनुष्य के असाधारण जौहर के रूप में याद करते हैं.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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