एक लड़की के ऊपर वीर्य से भरा बैलून फेंके जाने की ताजा घटना के बाद सवाल यह उठता है कि होली के नाम पर कथित सांस्कृतिक छूट के बहाने पुरुष महिलाओं के साथ क्यों दुर्व्यवहार करते हैं.
मेरा कॉलेज मेरे लिए सबसे सुरक्षित जगह़ है. यह ऐसी जगह है जहां मुझे अपनी आवाज मिलती है, जहां मैं आवाज उठा सकती हूं. पिछले एक साल से मैं शांत रही क्योंकि मेरे कॉलेज ने मुझे भावनात्मक और शारीरिक सुकून दिया. दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में आप अपने मन की बात कह सकते हैं, मन का काम कर सकते हैं और अपनी पसंद के कपड़े पहन सकते हैं. लेकिन इसके फाटकों के बाहर होती है असली दुनिया, क्रूर सच्चाइयां, और यह एहसास कि औरत अपने लिए सुरक्षित जगह बनाने की चाहे जितनी कोशिश कर ले, परेशानियां उसका पीछा नहीं छोड़ने वाली.
अपने बचपन में हम सबने त्यौहारों पर निबंध लिखे होंगे. ‘होली रंगों और खुशियों का त्यौहार है’- यह वाक्य हमारे दिमाग में खुदा हुआ है. लेकिन जब मैं 12 साल की हो गई, सब कुछ बदल गया. होली एक ऐसा त्यौहार बन गया जिसमें मेरा शरीर एक जिन्स बनने लगा, जिससे ‘त्यौहार के जोश’ के नाम पर खिलवाड़ किया जा सकता था. ‘यह करो, यह मत करो’, इसकी सूची हर साल लंबी होती गई. जब तक मैं 16 की हुई, मैंने और मेरे परिवार ने मिलकर तय कर लिया कि बेहतर यही होगा कि मैं होली के दिन घर में ही रहूं.
इस सप्ताह फर्स्ट इयर की एक छात्रा ने एक घटना के बारे में बात करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया. घटना यह थी कि उस पर वीर्य से भरा एक बैलून फेंका गया था. इस पोस्ट को वायरल होने में जरा भी वक्त नहीं लगा. उसके क्लास से लेकर सीनियर्स और दूसरे कॉलेजों के छात्रों और छात्राओं ने तुरंत उसके समर्थन में आवाज उठाई. हर एक ने इस घटना की निंदा की और होली पर बढ़ती बदतमीजियों के मसले को उठाया.
मेरे कॉलेज के महिला विकास सेल ने बैठक की और विचार किया गया कि कॉलेज के पिछले फाटक के इलाके सुरक्षित बनाने के लिए पुलिस निगरानी बढ़ाने के अलावा क्या-क्या किया जा सकता है. लेकिन फर्स्ट इयर की छात्रा ने जैसे ही यह आवाज उठाने की कोशिश की कि होली का त्यौहार बदतमीजी करने का लाइसेंस बन गया है, उसे फटकारा गया, सोशल मीडिया पर इतना शर्मसार किया गया कि अब वह इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहती. इंटरनेट पर लोगों ने सबूतों की मांग की. कुछ लोग तो ‘‘वैज्ञानिक’’ तौर पर यह बताने की हद तक पहुंच गए कि बैलून में वीर्य को भरना किस तरह असंभव है, और यह कि उसकी काली पैंट पर जो सफेद दाग है वह शायद चावल की मांड के कारण है. सवाल यह नहीं है कि बैलून में उस विकृत सोच वाले शख्स के शरीर का द्रव था या चावल की मांड थी या नहीं, या यह भी नहीं है कि वह लड़की बेवजह तूल खड़ा कर रही थी या नहीं.
बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि किसी शख्स ने त्यौहार के नाम पर बिना उसकी सहमति के उस पर बैलून क्यों फेंकी, भले ही उसमें कुछ भी भरा हो. जो त्यौहार एक बुराई के नाश की खुशी के नाम पर मनाया जाता है, वह हर साल महिलाओं के लिए एक नए अभिशाप के रूप में उभर रहा है. इस दिन पुरुष कथित सांस्कृतिक छूट के बहाने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, क्योंकि ‘बुरा न मानो होली है!’ ताजा घटना इसका ही एक और प्रमाण है.