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Saturday, 4 May, 2024
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केंद्रीय मंत्री का संविधान पर विवादित बयान, हिंदुत्ववादियों के असली इरादों का खुलासा

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अनंत कुमार का विवादित बयान संविधान और बहुलतावादी भारत के लिए उसके असली महत्व पर गंभीर व निष्पक्ष बहस की शुरुआत कर सकता है.

केंद्रीय राज्यमंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने रविवार को जो बयान दिया उससे किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उन्होंने कहा कि ‘‘भाजपा भारत के संविधान को बदलने के लिए सत्ता में आई है और वह जल्द ही ऐसा करने जा रही है.’’ एक मुंहफट नेता के रूप में मशहूर हेगड़े विवेक की जगह दिलेरी दिखाते रहे हैं. अब उन्होंने उस खुले रहस्य को जगजाहिर कर दिया है, जिसे बड़ी मुश्किल से गोपनीयता के आवरण में छिपाया जाता रहा है. संविधान की हिंदुत्ववादी व्याख्या एक बुनियादी तथ्य है- संविधान में खामियों को लेकर उनकी जो अवधारणा है वह हिंदू राष्ट्र की उनकी मुख्य परिकल्पना में निहित है. और यह भारतीय संविधान में निहित लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के विपरीत है.

आरएसएस सरसंघचालक और विचारक एम.एस. गोलवळकर ने भारतीय संविधान को स्वीकार किए जाने के तुरंत बाद ही इसकी यह व्याख्या प्रस्तुत कर दी थी. उनका कहना था कि औपनिवेशिक शासन से 1947 में आजादी पाने का अर्थ यह नहीं है कि हमें वास्तविक स्वतंत्रता मिल गई है, क्योंकि नए नेताओं ने ‘‘राष्ट्रवाद की विकृत अवधारणा’’ को स्वीकार कर लिया है, जिसके तहत भारत की धरती पर मौजूद सभी को राष्ट्र का समान नागरिक मान लिया गया है. उन्होंने लिखा- ‘‘भौगोलिक राष्ट्रवाद की अवधारणा ने हमारे राष्ट्र को वास्तव में नपुंसक बना दिया है. अपनी मुख्य ऊर्जा से वंचित शरीर से हम क्या अपेक्षा रख सकते हैं?… इसलिए आज हम देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार, बिखराव तथा विनाश के कीड़े किस तरह हमारे राष्ट्र को कमजोर कर रहे हैं क्योंकि हमने भौगोलिक राष्ट्रवाद की अनैसर्गिक, अवैज्ञानिक तथा निष्प्राण व कृत्रिम किस्म की अवधारणा की खातिर नैसर्गिक तथा जीवंत राष्ट्रवाद को तिरस्कृत कर दिया है.’’

गोलवळकर की कृति ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में कहा गया है कि भौगोलिक राष्ट्रवाद एक बर्बरता है, क्योंकि एक राष्ट्र ‘‘केवल राजनीतिक तथा आर्थिक अधिकारों का बंडल नहीं होता’’ बल्कि राष्ट्रीय संस्कृति- जो कि भारत में ‘‘प्राचीन तथा उदात्त’’ हिंदू संस्कृति है- का मूर्त रूप होता है. यह कृति लोकतंत्र पर नाक-भौं सिकोड़ती है, जिसे गोलवळकर हिंदू संस्कृति के लिए एक परायी व्यवस्था मानते हैं और मनु संहिता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए मनु को ‘‘मनुष्य जाति को सर्वप्रथमए महानतम तथा सबसे विवेकपूर्ण आचार संहिता देने वाला’’ बताते हुए उन्हें सलाम ठोकते हैं.

दीनदयाल उपाध्याय हिंदुत्ववादी आंदोलन के निर्विवाद अग्रणी विचारक हैं, जिनके दैनिक महिमामंडन में भाजपा सरकार आजकल जुटी हुई है, उन्होंने मौलिक खामी की पहचान की थी- कि भारत ने अपना संविधान पश्चिम की नकल में तैयार किया है, जिसका हमारी जीवन पद्धति और व्यक्ति तथा समाज के संबंधों के बारे में प्रामाणिक भारतीय विचारों से कोई वास्तविक सरोकार नहीं है. उपाध्याय का विचार था कि संविधान हिंदू राजनीतिक दर्शन पर आधारित होना चाहिए, जो भारत सरीखे प्राचीन राष्ट्र के अनुकूल है. उनका मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय विचार को एक भौगोलिक क्षेत्र अथवा आबादी में सीमित करना गलत है. उन्होंने जोर देकर कहा था कि इसी तरह के चिंतन ने खिलाफत आंदोलन के बाद राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा बदल दी और मुस्लिम समुदाय के तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा दिया. अंग्रेजों के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने के नाम पर इस नीति को उचित ठहराने की कोशिश की गई. आरएसएस के संस्थापक डॉ. के.बी. हेडगेवार (जिनकी मराठी जीवनी का उपाध्याय ने अनुवाद किया था) ने इस नजरिए के कारण पैदा हुए ‘‘वैचारिक भ्रम’’ की ओर ध्यान खींचा था. उनके तथा उपाध्याय के विचार से मुस्लिम सांप्रदायिकता उग्र हो गई है, जबकि कांग्रेस के नेता उन्हें ज्यादा से ज्यादा छूट देते गए हैं.

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हिंदू राष्ट्र की वकालत में उपाध्याय ने भारतीय संविधान को खारिज कर दिया. अपनी कृति ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ में उपाध्याय ने लिखा है- ‘‘हम 1947 में आजाद हुए. अंग्रेज भारत से चले गए. हमें लगा कि राष्ट्र निर्माण के हमारे प्रयासों में जो सबसे बड़ा रोड़ा था वह हट गया. हम लोगों के सामने अचानक यह सवाल आन खड़ा हुआ कि कठिन प्रयासों से हासिल इस आजादी का क्या महत्व है.’’

भारतीय नेताओं ने इस सवाल का हल ढूढ़ने के लिए संविधान का निर्माण किया. लेकिन उपाध्याय के विचार से ये नेता राष्ट्र को ठीक से परिभाषित नहीं कर पाए और इसीलिए गलती कर बैठे. ‘‘हम विदेशियों की नकल में यह व्यवस्था करना भूल गए कि इस संविधान में हमारे अंतर्निहित राष्ट्रीय आदर्श तथा हमारी परंपराएं प्रतिबिंबित हों. हम विदेशों में उभरे सिद्धांतों तथा विचारों की पच्चीकारी करके संतुष्ट हो गए… परिणाम यह हुआ कि हमारी राष्ट्रीय संस्कृति तथा परंपराएं बाहर से उधार लिये गए इन सिद्धांतों में कभी प्रतिबिंबित नहीं हो पाईं. इसलिए वे हमारी राष्ट्रीयता को स्पर्श करने में बुरी तरह विफल रहे.’’

संविधान के मूल आधार को खारिज करने के बाद उपाध्याय ने इसके निर्माण तथा इसे अपनाने की प्रक्रिया की भी कड़ी आलोचना की- ‘‘राष्ट्र कोई क्लब नहीं होता, जिसे बनाया या भंग किया जाए. न ही कुछ करोड़ लोगों द्वारा प्रस्ताव पारित करने और सभी सदस्यों के लिए समान आचरण संहिता तैयार करने से कोई राष्ट्र बन जाता है. लोगों का एक समूह एक आंतरिक प्रेरणा से उठ खड़ा होता है तब राष्ट्र बनता है.’’ हिंदूवादी उपमा देते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह ऐसा ही है जैसे आत्मा शरीर की भाषा को आत्मसात कर ले’’.

उपाध्याय ने तीन प्रश्न उठाए- क्या संविधान का निर्माण करने वालों में निःस्वार्थता थी, लोकसेवा की गहरी आकांक्षा थी, ऋषियों की तरह उन्हें धर्म के नियमों का गहरा ज्ञान था? या उन्होंने तत्कालीन विषम परिस्थितियों के प्रभाव में आकर स्वतंत्र भारत के लिए स्मृति की रचना कर दी? क्या इन लोगों में विचार की मौलिकता थी या उनमें दूसरे की नकल करने की प्रवृत्ति ही हावी थी?

इन सभी सवालों का उपाध्याय के पास नहीं में ही जवाब था.- संविधान निर्माता निःस्वार्थता तथा धर्म की भावना से ओतप्रोत हस्तियां नहीं थीं, वे उस समय की उथलपुथल भरी राजनीति के गुलाम थे और उनके दिमाग में पश्चिम के विचार भरे हुए थे. भारतीय गणतंत्र के संस्थापक मुख्यतः अंग्रेजीदां भारतीय थे, जिन्हें पश्चिमी विचार पद्धति घुट्टी में पिलाई गई थी, उनकी कृति से भारतीयता प्रकट नहीं होती. इसलिए उपाध्याय की नजर में संविधान एक दोषपूर्ण दस्तावेज था, जो भारत की राजधर्म की दिशा में ले जाने में अक्षम था. वास्तव में, यह हिंदुओं को गुलाम बनाता है- ‘‘स्वशासन और स्वतंत्रता की पर्यायवाची माना जाता है. गहराई में जाकर विचार किया जाए तो यह तथ्य उमरेगा कि एक स्वतंत्र देश भी गुलाम बना रह सकता है.’’ हिंदू राष्ट्र को अनुचित पश्चिमीकरण का गुलाम बना दिया गया है. उनके विचार से, संविधान मे जिस राष्ट्र की मूल परिकल्पना की गई है वह मौलिक रूप में भारतीय नहीं है. उपाध्याय ने कहा, ‘‘संविधान जिस रूप में है, उसमें भारतीयों की बजाय अंग्रेजों की भावनाओं को बेहतर अभिव्यक्ति मिली है. इसलिए हमारा संविधान भारत में जन्मे अंग्रेज बच्चे की तरह शुद्ध भारतीय नही बल्कि एंग्लो-इंडियन चरित्र वाला है.’’

संविधान में हिंदू राष्ट्र के विचार की अनुपस्थिति उन्हें अस्वीकार्य थी. इसलिए मोदी से लेकर उनके तमाम लोग जब बढ़-चढ़कर इसकी शपथ लेते हैं और इसे अपनाए जाने के हर कदम का जश्न मनाते हैं तब यह काफी दिलचस्प लगता है. अगर उपाध्याय की अंत्येष्टि न करके उन्हें दफनाया गया होता तो आज वे कब्र में करवटें बदल रहे होते.

भला हो अनंत कुमार हेगड़े का कि उन्होंने इस आडंबर को खत्म करते हुए हमें बता दिया है कि हिंदुत्ववादियों के असली इरादे क्या हैं. यह संविधान और बहुलतावादी भारत के लिए उसके असली महत्व पर गंभीर तथा निष्पक्ष बहस की शुरुआत कर सकता है. इसके लिए हेगड़े धन्यवाद के पात्र हैं.

शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद हैं.

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