अगर दो प्रमुख दलों ने ‘नव-उदारवादी’ एजेंडा से मुंह मोड़ लिया है, तो उन्हें यह भी मान लेना चाहिए कि उस विचारधारा में मतदाताओं की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है.
त्रिपुरा चुनाव के नतीजे के बाद वामपंथ के लिए शोक संदेश लिखा जा चुका है. कुछ शोक संदेश तो वाकई दुख जाहिर करने के लिए लिखे गए हैं, मगर कुछ इस भाव से लिखे गए हैं कि वह इसी काबिल था. कुछ लोगों ने, जैसा कि एक अखबार के पूर्व संपादक ने निजी तौर पर कहा कि कम्युनिस्टों की तो कोई जरूरत ही नहीं रह गई है क्योंकि पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही वामपंथी हो गया है, बेशक विचारधारा के लिहाज से कम वामपंथी.
इसमें शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा भी वामपंथ की ओर झुक गई है. बस एक कटाक्ष- ‘सूट-बूट की सरकार’- के कारण संरचनात्मक बदलावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. अब यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या उन बदलावों की हांडी को गरम करने की मंशा सचमुच थी भी या नहीं. जमीन, श्रम, और पूंजी के बाजारों में सुधारों की चर्चा कोई नहीं करता. उनकी जगह मोदी तरह-तरह के खर्चों की घोषणा कर रहे हैं, दावोस में संरक्षणवाद पर हमला बोलने के तुरंत बाद वे 25 वर्षों से लागू शुल्क कटौतियों को रद्द कर रहे हैं. किसानों की परेशानियों के मद्देनजर कृषि बाजारों में सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ाने की गुंजाइश बढ़ाई जा रही है, मानो दूसरा कोई नीतिगत उपाय हो ही नहीं सकता. सबसे काबिलेगौर चुप्पी तो स्वामित्व के सवाल पर छायी है, भले ही मामला सबसे बदहाल बैंकों का क्यों न हो, जिनके चलते करदाताओं की मेहनत की कमाई बरबाद हो रही है.
इंदिरा गांधी ने 1969-73 में जो कुछ किया था उन्हें रद्द करने के उपाय तो यदाकदा किए जा रहे हैं लेकिन ये नाकाफी हैं. मसलन कोयले के राष्ट्रीयकरण को समाप्त करने जैसे उपाय. कोई यह नहीं बताता कि किसी उदारवादी एजेंडा में या ‘कारोबार को आसान बनाने’ के उपायों की सूची में सबसे ज्यादा जोर किस पर दिया जाए- सरकारी ताकत के मनमाने उपयोग पर, जिसे श्रीमती गांधी ने संस्थात्मक रूप दे दिया था, लगाम लगाई जाए, लगता है, हमारे शासकों का मानना यह है कि अगर आप ‘पिंजरे में कैद तोते’ से खेल नहीं सकते या टैक्स रूपी खरगोश को खुला नहीं छोड़ सकते तो फिर सत्ता हासिल करने का मतलब क्या है.
कभी ‘आर्थिक सुधारों वाली पार्टी’ मानी गई कांग्रेस का हाल यह है कि वह सरकार पर बाएं कोने से ही हमला करती है, क्योंकि उसके कार्यकर्ताओं को वही कोना सबसे आरामदेह लगता है. राहुल गांधी ने लंदन में किसी कंसल्टेंसी फर्म में भले काम किया हो, एक-दो कारोबार में भी हाथ आजमाए हों और एकाध बरबेरी खरीदी या उधार ली होगी लेकिन उनकी राजनीतिक मुद्राएं यही बताती हैं कि वे अपने पिता से ज्यादा अपनी मां के राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं.
अगर दो प्रमुख दलों ने (तथाकथित) ‘नव-उदारवादी’ एजेंडा से मुंह मोड़ लिया है, तो उन्हें यह भी मान लेना चाहिए कि उस विचारधारा में मतदाताओं की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है. और भला कौन उन्हें गलत कह सकता है? मैदान में उतर रहे नए खिलाड़ियों रजनीकांत और कमल हासन की लोकलुभावन रुझानों को देखकर ही समझ में आ जाएगा कि वोटों का खजाना कहां है. मौजूदा क्षेत्रीय राजनीतिक ऑपरेटरों का हाल भी कुछ अलग नहीं है. वित्तीय मामलों में इन सबका जोर किसी-न-किसी तरह लुटाने पर ही रहा है. इस बात को कोई नहीं मानेगा कि इस तरह का लोकलुभावनवाद इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि सुधारों के मोर्चे पर विफलता के कारण इसके लिए दबाव बनने लगता है.
इसलिए प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के कभी न खत्म होने वाले झगड़ों की परवाह कौन करता है? उनके झगड़े व्यक्तिगत और गुटीय झगड़े बन गए हैं और उनसे सर्वहारा की जीत का कुछ लेना-देना नहीं रह गया है. सत्तर के दशक में केरल और पश्चिम बंगाल की पुरानी वामपंथी सरकारों ने जो भी अच्छे काम किए हों, बाद में उन्होंने अपनी ताकत बाहुबल और सरकारी संसाधनों को पार्टी के या पार्टी पदाधिकारियों के काम में लगाकर ही बनाई. पश्चिम बंगाल सबसे हिंसक चुनावों का मैदान बन गया, अब बारी मालाबार की है. इस बात पर भी गौर कीजिए कि इतिहास तथा संस्कृति से संबंधित विचारों पर लगाम लगाने के दुराग्रही प्रयोगों या धर्मनिरपेक्षता की उसकी विचित्र समझ के लिए संघ परिवार की चाहे जितनी निंदा की जाए, उसने अभी कम्युनिस्टों की नकल नहीं शुरू की है, जिन्होंने पश्चिम बंगाल में लेक्चरर की नौकरी के लिए पार्टी की सदस्यता को एक शर्त बना दिया था.
इसलिए कम्युनिस्ट वामपंथ पचास वर्षों में ही अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गया लेकिन व्यापक वामपंथ भारतीय राजनीति में पहले से ज्यादा मजबूत हो गया है. झूठी विचारधारात्मक शुद्धता अपना आकर्षण खो चुकी है जबकि लोग एक परिचित सुखद दायरे में सिमट रहे हैं. यह दायरा 1969-73 के इंदिरा गांधी के वामपंथवाद का है, जिसमें सरकारी पूंजीवाद और लोकलुभावनवाद का घालमेल शामिल है.