स्वतंत्र भारत में बार-बार राज्यपालों द्वारा निभाई गई भूमिका के कारण अदालत और सरकार द्वारा नियुक्त आयोगों ने उनको प्रतिकूल टिप्पणीयां दी है।
राज्यपालों की गतिविधियों के विरोध में शिकायतों का बोझ आम तौर पर यह है कि वे राज्य के विभिन्न राजनीतिक दलों से निपटने के दौरान अपने राजनीतिक झुकाव, पूर्वाग्रह और पक्षपात को छोड़ने में असमर्थ हैं। नतीजतन, कभी-कभी वे अपने विवेकाधिकार से जो निर्णय लेते हैं वह पक्षपातपूर्ण और केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ पार्टी के हितों को बढ़ावा देने के इरादे से अभिप्रेरित दिखाई देते हैं, विशेष तौर पर उस समय जब राज्यपाल हाल ही में सक्रिय राजनीति में रहे हों या अपने कार्यकाल के अंत में राजनीति में प्रवेश करना चाहते हों। यह कहा जाता है, इस तरह का व्यवहार संसदीय लोक-तंत्र की व्यवस्था को खराब कर देता है, राज्यों की स्वायत्तता से छेड़खानी करता है और केंद्र-राज्य के संबंधों में तनाव पैदा करता है।”
यह निस्संदेह एक कठोर शब्द हैं। रामेश्वर प्रसाद बनाम भारतीय संघ (2006) का निर्णय करते हुए ये विचार सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की न्यायपीठ के हैं, जहां बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह की गतिविधियाँ जांच के दायरे में थीं।
जब सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की न्यायपीठ कर्नाटक कांग्रेस प्रमुख जी. परमेश्वर और जेडी(एस) नेता एच.डी. कुमारस्वामी द्वारा शुक्रवार को दायर याचिका, जिसमें भाजपा विधायक दल के नेता बी.एस. येदियुरप्पा को कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला द्वारा सरकार बनाने के लिए दिए गये निमंत्रण को चुनौती दी गयी है, पर सुनवाई शुरू करती है, तब कोर्ट का ध्यान राज्यपाल की भूमिका पर भी होगा। लेकिन यह पहली बार नहीं होगा जब राज्यपाल का कार्य न्यायिक जांच का विषय होगा।
विपरीत अवलोकन
ऐसी कई घटनाए हैं जहां अदालतों और सरकार द्वारा नियुक्त आयोगों ने राज्यपालों के व्यवहार के तरीके और/या स्वतंत्र भारत में संविधान निर्माताओं की राज्यपाल से अपेक्षाओं पर टिप्पणी की है।
राष्ट्रीय आयोग ने भी संविधान के कार्य की समीक्षा करने के लिए राज्यपाल की भूमिका पे गौर किया और यह सुनिश्चित करने के लिए एक रोडमैप का सुझाव दिया कि केवल गैर-पक्षपातपूर्ण व्यक्तियों को ही राज्यपाल नियुक्त किया जाए।
राष्ट्रपति द्वारा राज्य के मुख्यमंत्री के साथ विचार-विमर्श के बाद ही राज्य के राज्यपाल को नियुक्त किया जाना चाहिए। कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि सम्बंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद सामान्य रूप से, नियुक्ति की प्रक्रिया के समान ही पांच वर्ष की अवधि का पालन करते हुए निष्कासन या स्थानान्तरण की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए।
सरकारिया आयोग
यहां तक कि न्यायमूर्ति सरकारिया के आयोग ने भी इस मुद्दे को संज्ञान में लिया कि गवर्नर किसको नियुक्त किया जाना चाहिए।
आयोग ने कहा कि राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के लिए विचाराधीन व्यक्ति को, ”विभिन्न प्रकार के सामाजिक और व्यावहारिक कार्यो में सक्षम होना चाहिए’’। फिर आयोग ने अन्य मानदंडों को भी सूचीबद्द किया, जैसे – वह राज्य के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए; वह एक प्रथक छवि का व्यक्ति होना चाहिए जो राज्य की स्थानीय राजनीति से जुड़ा हुआ न हो; और अंततः, वह व्यक्ति होना चाहिए जिसने आम तौर पर राजनीति में बढ़-चढ़ के हिस्सा न लिया हो, विशेष रूप से निकट अतीत में।
दिलचस्प बात यह है कि आयोग की रिपोर्ट ने जनता से प्राप्त अपनी प्रश्नावली के जवाबों का हवाला दिया जिसमें ज्यादातर लोगों ने यह कहा कि “राज्यपाल के रूप में नियुक्त कुछ लोगों की गुणवत्ता और आदर्श आलोचनात्मक थे।”
“उनकी टिप्पणियों का सारांश यह है कि केन्द्रीय सत्ता वाली पार्टियों द्वारा निष्काषित और असंतुष्ट राजनेताओं, जिन्हें कहीं और समायोजित नहीं किया जा सकता, को राज्यपाल के रूप में नियुक्त कर दिया जाता है। यह देखा गया है कि ऐसे व्यक्ति कार्यालय में निष्पक्ष संवैधानिक कार्यकर्ताओं की बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करते हैं … ऐसे बहुत सारे राज्यपाल, जिन्होंने क्षमता, अखंडता, निष्पक्षता और राजनीति के गुण प्रदर्शित किए हैं, टिक नहीं पाए हैं।
राज्यपालों द्वारा उनके विवेकाधिकार के उपयोग के बारे में बात करते हुए आयोग ने कहा, “राज्यपाल को जहां अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने की आवश्यकता पड़े, उन्हें न केवल न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से कार्य करना चाहिए बल्कि ऐसा प्रतीत भी होना चाहिए कि वह यथोचित रूप से कार्य कर रहे हैं।”
पुंछी आयोग
2007 में यूपीए सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी आयोग ने भी राज्यपालों की नियुक्ति और उनकी विवेकाधीन शक्तियों के मुद्दे पर विचार किया।
नियुक्ति के मुद्दे पर इसने भी दृढ़ता के साथ पक्ष लिया कि केंद्र सरकार “सरकारिया रिपोर्ट में अनुशंसित सख्त दिशा निर्देशों को अपनाये और अपने शासनादेश का अक्षरशः पालन करे ताकि ऐसा न हो कि उच्च संवैधानिक कार्यालय में नियुक्तियां केंद्र-राज्य संबंधों में लगातार खीज पैदा करने का और कभी-कभी खुद सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण बनें।”
आयोग ने राज्यपालों के लिए पांच साल की एक निश्चित अवधि की भी सिफारिश की, और कहा कि “उनका निष्कासन केंद्र में सरकार की स्वेच्छा पर नहीं होना चाहिए”। हालांकि, आयोग ने कहा कि एक राज्यपाल को केवल महाभियोग के माध्यम से ही हटाया जाना चाहिए, और साथ ही यह भी कहा कि “कार्यालय की गरिमा और स्वतंत्रता ऐसी प्रक्रिया का अधिकार देती है।”
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों के संबंध में पुंछी आयोग ने कहा, हालांकि अनुच्छेद 163 (2) ने “एक धारणा दी है कि राज्यपाल के पास विवेकाधीन शक्तियों का एक विस्तृत एवं अपरिभाषित क्षेत्र है। यहां तक कि बाहरी परिस्थितियों में भी, जहाँ संविधान ने इसके लिए स्पष्ट रूप से शक्तियां प्रदान की हैं,” विवेकाधीन शक्तियों का दायरा बारीकी से तय किया जाना चाहिए ताकि प्रभावी ढंग से इस आशंका को दूर किया जा सके कि विवेकाधीन शक्तियों को “राज्यपाल को संविधान के तहत शक्ति प्राप्त सभी कार्यों तक विस्तारित किया जा सके।”
यहां तक कि महत्वपूर्ण रूप से इस आयोग ने त्रिशंकु विधानसभा के मामले में राज्यपाल के कार्यों को नियंत्रित करने के लिए कुछ स्पष्ट दिशा निर्देशों निर्धारित करना आवश्यक समझा है।
हालांकि, दिशानिर्देश लागू नहीं किए गए हैं और केवल कागज़ पर ही हैं।
Read in English:Karnataka’s Vala continues notorious tradition of governors taking risks with the courts