प्रधानमंत्री ने जो तूफानी चुनाव अभियान चलाया, वह सफल बचाव कार्य में बदल गया और वह विपक्ष से बाजी मारने में मददगार साबित हुआ.
गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली सीटों का आंकड़ा उसकी उम्मीद के आंकड़े के कहीं आसपास भी नहीं रहा, फिर भी यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वोट नहीं है. उलटे, ‘मोदी वोट’ के कारण ही भाजपा उस राज्य को अपने कब्जे में रख सकी, जहां स्थानीय भाजपा नेता पूरी तरह रास्ता भटक चुके थे.
फिर भी, भाजपा दावे करेगी कि उसे करीब 50 प्रतिशत वोट मिले हैं, जैसे कांग्रेस कहेगी कि उसके वोटों में करीब 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. लेकिन तथ्य यह है कि दोनों पार्टियों को एक-दूसरे से जो फायदा मिला है उससे किसी की क्षतिपूर्ति नहीं हुई है.
केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) को 2012 में 3.6 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिली थीं. यही वजह है कि 2012 में ‘अन्य’ के खाते में 13.2 प्रतिशत वोट गए थे. सोमवार 18 दिसंबर 2017 को यह टिप्पणी लिखते समय ‘अन्य’ के खाते में 8.5 प्रतिशत वोट हैं, जिनमें ‘नोटा’ को मिले वोट भी शामिल हैं. इसलिए, हकीकत यह है कि 2012 में पटेल वोट केशुभाई को मिले थे और इस बार ये अधिकांशतः कांग्रेस की ओर मुड़ गए हैं, जबकि 2014 में जीपीपी जब भाजपा में विलीन हो गई तो इनमे से कुछ वोट भाजपा में लौट आए थे.
मूलतः वोटों का ध्रुवीकरण बड़े खिलाड़ियों- भाजपा और कांग्रेस- के बीच हो गया. यही वजह है कि कांग्रेस को कुछ राजनीतिक सफलता मिल गई. दूसरे शब्दों में, भाजपा विरोधी वोट कांग्रेस को मिले. क्या इस वोट पर दावे करने वाली कोई तीसरी ताकत थी गुजरात में? सच यह है कि हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकुर, भारतीय ट्राइबल पार्टी के छोटूभाई वसावा- के रूप में सच्ची ‘तीसरी ताकतें’’ मौजूद थीं. कांग्रेस को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने इन्हें अपने खेमे से जोड़े रखा. राहुल गांधी अतीत में इन मसलों के प्रति जो रुख अपनाते रहे, उससे यह भिन्न था.
एक समय तो, जब यूपीए सत्ता में था तब वे बिहार में लालू प्रसाद यादव से पल्ला झाड़ लेना चाहते थे और वहां अपनी पार्टी को एक नया जीवन देना चाहते थे. लेकिन 2015 आते-आते उन्होंनेे उनके और नीतीश कुमार के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और भाजपा को पटखनी दे दी थी.
गुजरात शायद पहला राज्य है जहां अपना पारंपरिक जनाधार होने के बावजूद कांग्रेस ने भाजपा विरोधी ताकतों से गठजोड़ किया. इस पर कांग्रेस के भीतर आलोचना भी हुई मगर सोमवार को आए नतीजों ने बता दिया कि यह विचार सही था. पहले तो इसने यह संदेश दिया कि कांग्रेस स्थानीय स्तर के असंतोष की नई आवाजों को सुनने के लिए तैयार है; दूसरे, यह कि यह सबको साथ लेकर चलने की केवल बातें करने वाली नहीं बल्कि इस पर अमल करने वाली पार्टी है. विपक्षी वोटों की इस स्थानीय एकजुटता ने भाजपा को हैरान कर दिया. इसके बरक्स भाजपा की राज्य इकाई बंटी हुई दिखी, मोदी और अमित शाह के केंद्र में चले जाने से बेचैन दिखी. इसलिए गुजरात को दिल्ली से संभालना पड़ा. इसलिए स्थानीय ताकतों ने शून्य को भर दिया. अंततः मोदी और शाह पर ही राज्य जीतने का भार आ पड़ा. इसलिए चुनाव अभियान एक स्थानीय उपक्रम से पीएम के तूफानी अभियान में बदल गया, जो सफल रहा और उसने विपक्ष को बढ़त लेने से रोक दिया.
नए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी मानेंगे कि तमाम उकसावों के बावजूद स्थानीय मसलों से ध्यान न हटाने की उनकी रणनीति भविष्य के लिए कारगर फॉर्मूला बन सकता है, जो कर्नाटक चुनाव से पहले, जहां पार्टी को चुनौती देने वाली नहीं बल्कि सत्ताधारी पार्टी के रूप में गोटियां चलनी पड़ेंगी, आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा सकता है.
दूसरी ओर, गुजरात के नतीजे मोदी पर भाजपा की अतिनिर्भरता को लेकर सवाल पैदा करते हैं. बूथ मैनेजमेंट के कारगर तरीकों के अलावा पार्टी को अपनी पारंपरिक रूप से मजबूत राज्य इकाइयों के पुनर्गठन तथा सशक्तीकरण को लेकर अपने नजरिए पर गंभीरता से विचार करना पड़ेगा. फिलहाल तो मोदी के आख्यान ने भाजपा का झंडा फिर बुलंद कर ही दिया है.
प्रणब धल सामंता दिप्रिंट के एडिटर हैं