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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतमैंने किस तरह चारा घोटाला और लालू प्रसाद यादव पर बजायी घंटी: अमित खरे

मैंने किस तरह चारा घोटाला और लालू प्रसाद यादव पर बजायी घंटी: अमित खरे

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लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मुझे अपने परिवार की सुरक्षा और करियर के लिए डर नहीं लगा? अमित खरे, जिन्होंने किया था चारा घोटाले का पर्दाफाश.

वह 27 जनवरी 1996 की सर्द सुबह थी, जब मैंने चाइबासा कोषागार (ट्रेजरी) पर पुरानी ब्रिटिशों के जमाने की इमारत में स्थित पशुपालन विभाग के कार्यालय और खेतों पर छापा मारा और विभाग के बिलों को मिलाना शुरू किया. मैं यह देखकर आतंकित रह गया कि उसमें से सभी बिल (9.9 लाख रुपए के) लगभग एक ही वितरक के थे और उसमें से सभी प्रथमदृष्ट्या ही जाली प्रतीत होते थे.

जब तक मैंने जिला पशुपालन अधिकारी (DAHO) और उनके सहायकों को बुलाता और उनकी सफाई मांगता, तब तक मुझे पता चला कि वे सभी कार्यालय से भाग गए हैं. मैंने फिर तय किया कि मैं खुद ही पशुपालन अधिकारी के कार्यालय अपने मैजिस्ट्रेट के साथ जाकर जांच करूंगा. मैं नकद, बैंक ड्राफ्ट और नकली ट्रेजरी बिल चारों तरफ बिखरा देखकर हैरान रह गया. साफ लग रहा था कि वे जदल्दबाजी में भागे हैं. दोपहर 12 बजे तक मैंने अपने मैजिस्ट्रेट को आदेश दिया कि पशुपालन विभाग के कार्यालय को सील कर दिया जाए, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की कोषागार शाखा को निर्देश दिया कि वे विभाग के किसी बिल का भुगतान न करें और सभी पुलिस थानों को सतर्क कर दिय कि रिकॉर्ड को सुरक्षित रखा जाए, ताकि घोटालेबाज उन्हें नष्ट करने का मौका न पा सकें.

आखिरकार, अकाउंटेट-जनरल और राज्य के वित्त विभाग से पूछताछ कर, यह साफ हो गया कि कोषागार से जितनी रकम निकाली गयी है, वह तो विभाग के लिए आवंटित राज्य के कुल बजट से भी अधिक है. मैंने मुकदमों की शृंखला में पहली एफआइआर की, जिसे बाद में कई ने पशुपालन-घोटाला या फॉडर-स्कैम कहा.

शनिवार को देवघर कोषागार से जालसाजी से रकम-निकासी के मामले में फैसला आया है और मैंने सभी टी.वी. स्क्रीन पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ को देखा.

हज़ारों पन्ने इस पर काले किए गए हैं कि किस तरह राज्य सरकार के अधिकारियों ने वितरकों के साथ मिलकर जालसाजी वाले बिल बनाए और उनका भुगतान भी किया. किस तरह कार्यालयों पर छापे के दौरान नकद और बैंक ड्राफ्ट मिले और किस तरह पूरी प्रशासनिक और वित्तीय व्यवस्था उन्हीं लोगों के द्वारा पलट दी गयी जिन पर उसकी रक्षा की जिम्मेदारी थी. यह सब कुछ पशुओं का चारा सुनिश्चित करने के नाम पर किया गया, और लगभग सभी जिलों में, जिसे तब दक्षिण बिहार कहते थे.

लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मुझे अपने परिवार की सुरक्षा और करियर के लिए डर नहीं लगा? कुछ ने तो यह भी कहा कि राज्य की पुलिस मुझे इन मामलों में संलग्न दिखाएगी.

ईमानदारी से कहूं तो इनमें से कोई भी विचार तब मेरे दिमाग में नहीं आय़ा, जब मैंने शुरुआत की थी. जब मैं आइआइएम, अहमदाबाद में पढ़ रहा था तो मेरे एक शिक्षक (प्रोफेसर कुच्छल) कहा करते थे कि ‘बहुत अधिक विश्लेषण से फैसलों को लकवा मार जाता है’. मुझे खुशी है कि मैंने अपना करियर, परिवार या भविष्य को सोचकर अधिक समय नहीं गंवाया, वरना मैं चारा घोटाले में जांच शुरू नहीं कर पाता.

तो, मैंने ये कैसे किया? जवाब यह है कि हममें से अधिक ने एक नया भारत बनाने के सपने के साथ सिविल सेवाओं में करियर चुना था. उप-आयुक्त के तौर पर ज़िले का प्रशासनिक प्रधान कौन होता है? यह मेरा कर्तव्य था.

हालांकि, यह मैंने अकेले नहीं किया. हिंदी और अंग्रेजी की सतर्क मीडिया भी थी, जिसने तुरंत ही न केवल राज्य में, बल्कि पूरे देश में इस खबर को फैला दिया. जाहिर तौर पर, मैं बाद में एक स्थानीय नायक बन गया, यह प्रेस की वजह से ही मुमकिन था.

हालांकि, कई ऐसे बहादुर भी थे, जो नेपथ्य में ही रह गए. अतिरिक्त उपायुक्त (एडिशनल डिप्टी-कमिश्नर) लाल श्यामा चरण नाथ सहदेव ने बड़ी कुशलता और धैर्य से पूरे कोषागार के खातों की जांच की. एसपी वी एस देशमुख ने तुरंत सभी पुलिस थानों को सतर्क किया और सुरक्षा व्यवस्था ऐसी की कि सबूतों को बर्बाद न किया जा सके. सदर के एसडीओ फिडेलिस टोप्पो और सेकंड ऑफिसर विनोदचंद्र झा, पशुपालन विभाग के कार्यालयों को सील करने में मुख्य भूमिका निभाई, उनके अलावा कई सारे प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) और सीओ (सर्किल ऑफिसर) भी थे, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि सबूत ढंग से इकट्ठे किए जाएं और सुरक्षित रहें. इनमें से अधिकतर अधिकारी राज्य सेवा से थे। इनमें से कई बेहतरी के लिए ‘जोखिम’ उठाने को तैयार थे.

हालांकि, यह सबकुछ मेरे पिछले सवाल तक ले जाता है. ये सभी अधिकारी तब भी थे, जब तक मैं उपायुक्त नहीं बना था. वे पहले चुप क्यों थे? शायद, जब सहायक अधिकारियों ने देखा कि उपायुक्त ही अपने करियर का नुकसान (और शायद ज़िंदगी का भी) उठाने को तैयार हैं, तो उन्हें नैतिक बल मिला.

कई साल पहले, जब मैं लातेहार के आदिवासी इलाकों में एक युवा एसडीओ था, बाबा आमटे उनकी बिहार जोड़ो यात्रा के दौरान आए थे और कहा था, ‘जो नेक हैं, वे अनेक हैं. उनको एक बनाने की जरूरत है’.

आप अगर उनको एक साझा मंच पर ले आते हैं और उनकी निहित सच्चाई को उजागर करते हैं, तो शायद यह नए भारत की शुरुआत होगी.

अमित खरे फिलहाल विकास आयुक्त, झारखंड हैं.

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