क्या महिला पत्रकार एक प्रभाशाली वृद्ध व्यक्ति के प्रभाव को तोड़ने में समर्थ हो सकती हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने एक पत्रकार के गाल खींचे या थपकी दी या यूं ही पूछ लिया कि क्या आप शादीशुदा हैं?
पिछले 24 घंटों में, एक महिला संवाददाता, जब उसने उनसे सवाल पूछा, के गाल पर हाथ फेरते हुए एक सार्वजनिक अधिकारी की तस्वीर पर पूरे देश के पत्रकारों ने प्रतिक्रिया दी है।
ये महिला पत्रकारों के साथ हमेशा होता है। हम उत्पीडित होते हैं, अपरिपक्व समझे जाते हैं या हमें नकार दिया जाता है, और ये सब हिस्सा हैं एक “मोटी चमड़ी” (अनुभव) के विकास का। इसलिए उस मोटी त्वचा को विकसित करने के लिए, और “बहुत संवेदनशील” होने के कारण पीछे न छूटने के लिए, हम चुप रहें और अपने काम पर जाएँ।
ये खबर नहीं कि पुरुष महिला से संरक्षित रूप से बात करे। वे ऐसा तब करते हैं जब महिला घिसे-पिटे कम अनुभव की नहीं होती हैं; जब महिला ऐसी ही होती है तब वे हरकत करते हैं। निरपवाद रूप से महिला पर ऐसा दिखने की जिम्मेदारी होती है कि उसे, एक अदृश्य, तंग करने वाली तल्लीनता, जिससे पुरुषों को कभी भी परेशान नहीं होना पड़ता, के साथ बेतरतीब नहीं किया जा सकता।
इस गपशप में सवाल था तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित का। उन्होंने ये कहते हुए अपना बचाव किया कि ये “प्रशंसा का एक कृत्य” था और उन्होंने उसे अपनी “पोती” की तरह समझा था।
इसके बाद जवाब आया, लक्ष्मी सुब्रमनियन ने उनसे ये कहते हुए लिखा कि उनके इस कृत्य ने उन्हें “नाराज़ और उत्तेजित” कर दिया है।
उन्होंने आगे लिखा, “आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया, लेकिन आप ने संरक्षित रूप से निर्णय ले लिया, और मेरी मर्ज़ी के बगैर मेरे गाल को (इस प्रकार से) थपकी देकर जवाब दिया। आपके लिए ये प्रशंसा का ठप्पा हो सकता है, दादा जी वाला एक हावभाव हो सकता है…लेकिन मेरे लिए ये बिन बुलाई चेष्टा थी क्योंकि मुझे सिर्फ जवाब चाहिए थे अपने गाल पर थपकी नहीं”।
हम में से ज्यादातर लोगों में ऐसे व्यवहार का विरोध करने की हिम्मत नहीं है। ये दांव साधारण रूप से बहुत ऊंचा है। इस पेशे में हम जैसे नए लोगों के लिए तो ये और भी बुरा है। क्या हम एक प्रभाशाली वृद्ध व्यक्ति के प्रभाव को तोड़ने में समर्थ हो सकते हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने हमारे गाल खींचे या थपकी दी या हमसे यूं ही पूछ लिया कि क्या हम शादीशुदा हैं? हम सुनते हैं, पुरुष हमेशा बोलते हैं कि “आप जैसी नारवादी” औरतें कंटीली होती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक गुनाह हमारा खुद की भीषणता की परीक्षा पास नहीं कर लेता, हमें बोलने तक की भी जरूरत महसूस नहीं होती।
कुछ महीने पहले एक स्रोत के द्वारा मेरा परिचय एक वरिष्ठ आरएसएस कट्टरवादी से हुआ। मेरे स्रोत ने मुझे बताया कि ये कट्टरपंथी उनके “कर्ता-धर्ता” की भांति हैं। मुझे बताया गया, आपको उनसे मिलने का अवसर खोना नहीं चाहिए। जब मैं उनसे मिली उन्होंने मुझसे हेल्लो कहा और अपना हाथ मेरे सर पर रख दिया।
मैंने उनसे कहा, “मैं आपसे उस समय मिलना चाहूंगी जब अपेक्षाकृत आप खाली हों।”
उन्होंने कहा, “मुझे आपसे मिलकर ख़ुशी होगी यदि आप मेरी बेटी की तरह आती हैं।”
मैंने विरोध किया, लेकिन मैं आपसे एक पत्रकार की भांति मिलना चाहूंगी।
फिर उन्होंने मेरा कान खींचा और कहा, “हम पत्रकारों के साथ अलग तरह से व्यवहार करते हैं” सुझाव दे रहा था कि वह अपने सच्चे आत्म को ‘मेरी तरह एक लड़की के पत्र’ पर प्रदर्शित नहीं करता। मैंने उनकी बातों को नजर अंदाज किया और दिन के बाकी कामों के लिए वहां से निकल आई।
फिर पिछले महिने मैं एक अधिकारी के ऑफिस में गई थी जिसे मैं पहले कभी नहीं मिली थी। उसने मुझसे हसते हुए नमस्कार किया जो एक अधिकारी तौर पर बिल्कुल असमान्य था और उसने मुझसे बैठने के लिए एक सीट के लिए पूछा। मैंने एक बातचीत शुरू करने की कोशिश की और मैं उसे अपनी आखों की तरफ देखने के लिए कोशिश कर रही थी लेकिन वह सीधे स्पष्ट रूप से मेरे ब्लाउज की ओर देख रहा था।
जाहिर सी बात है कि वह मेरे प्रश्नों पे गौर नहीं कर रहे थे। तो इसलिए मैने अपनी कुर्सी पीछे की ताकि मेरी छाती के बजाय उनको मेरे कंधे दिखें। मेरी इस हरकत पर उन्होंने अपना रूख बदलते हुए नाराजगी जताने का नाटक किया। उसने मुझे देखा और चिल्लाया और यह कहते हुए अचानक से मीटिंग समाप्त कर दी कि “क्या आप हमारे मीडिया अधिकारी से बात कर सकती हैं, मैं अभी व्यस्त हूं।“ मैं वहां से उठी और मीटिंग छोड़कर कर चली आई।
इतना ही नहीं मेरे साथ ऐसा फिर से हुआ। इस महीने की शुरुआत में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश मुझसे साझा कर रहे थे कि यह बताना बहुत मुश्किल है कि किस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 का उपयोग करके “झोला-टाइप” महिला वकील निडर होकर परेशान करतीं हैं। उन्होंने निराशा के साथ कहा, उन्होंने कहा कि वे स्वाधीनता, अधिकार, स्वतंत्रता” के अलावा कुछ नहीं देख सकती हैं। उन्होंने आगे कहा कि “उनमें से बहुत की अभी तक शादी तक नहीं हुई है, वे पारिवारिक न्यायालयों में केस लड़ रही हैं, हमारे परिवारों के पुरूष ऐसे मामलों से निपटने के लिए अधिक मुस्तैद नहीं है, आखिर हम जानते हैं कि एक परिवार कैसे काम करता है।”
मैंने खुद को मुस्कुराने के लिए मजबूर किया।
जैसे ही मैं जाने के लिए उठ रही थी, उन्होंने कहा, “वैसे बेटा, आप मैरिड हो या आप भी आरटिक्ल 21 टाइप (क्या आप शादीशुदा हैं या आप उन आर्टिकल 21 टाइप में से एक हैं)? मैंने लज्जित ढंग से कहा, “आर्टिकल 21 टाइप” वे हँसे और बात वहीं पर खत्म हो गई।
आर्टिकल 21 एक नागरिक के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित है।
कई और भी ऐसे ही बड़े-बड़े उदाहरण है जिनको कोई भी आसानी से नजर अंदाज कर देता है क्योंकि इन पर बोलकर हमें अपनी ही ऊर्जा स्त्रोत खोने के अलावा भला क्या मिलेगा, और बेशर्मी के साथ “वास्तविक पत्रकार” के रूप में हमें देखा नहीं जा रहा है।
किसी को यह नहीं सोंचना चाहिए कि तमिलनाडु के गवर्नर का “दादाजी” के जैसा इशारा कुछ-कुछ कहता है। या लक्ष्मी सुब्रह्मण्यम का उनको बुलाना एक विपथन है।