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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतदलित साहित्य के अध्ययन से बदलती है राष्ट्रवाद, औपनिवेशवाद और आधुनिकता की स्थापित परिभाषा

दलित साहित्य के अध्ययन से बदलती है राष्ट्रवाद, औपनिवेशवाद और आधुनिकता की स्थापित परिभाषा

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दलित साहित्य एक ऐसा विषय है जिसको शहरी क्षेत्रों के उच्च जाति वालों द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है, या भारत की इस परिभाषा को हम सीखना नहीं चाहते हैं।

दलित इतिहास माह पर दप्रिंट दलितों से संबंधित मुद्दों पर लेख प्रकाशित कर रहा है।

“आपको क्या लगता है कि दलित घी और कांसर खा रहे हैं, आपको उन दलितों की कहानियों को भी सुनना चाहिए जो भूखों मर रहे हैं।“

मेरा प्रकाशक इस लेख में अंगलियात का हवाला दे रहा है, जो कि जोसेफ मैक्वान द्वारा गुजरात के दलितों पर लिखा गया पहला उपन्यास है। मैंने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया था, मेरी प्रकाशक अन्य क्षेत्रों से प्राप्त दलितों से संबंधित कहानियों और मेरे अंग्रेजी अनुवाद की तुलना कर रही थी।

प्रकाशक के मित्र का अवलोकन मेरे साथ एक मार्गदर्शक प्रश्न पर ठहर गयाः दलित जीवन से संबंधित कहानियों में क्षेत्रीय/ वर्ग/लिंग भिन्नता क्या हो सकती है?

अंगलियात के बाद से, गुजरात के वनाकारों को शिक्षा और आजीविका, आंशिक रूप से कपड़ा मिलों के माध्यम से, के अच्छे अवसर प्राप्त हुए थे, कुछ क्षेत्रों में ईसाई धर्म का प्रसार भी दिखाई दिया था। ऐसा संभव है कि किसी अन्य स्थान पर अनुसूचित जातियों की इतनी बड़ी संख्या बुनाई में संलग्न न मिले, या मिले भी तो हो सकता है कि यह अनुसूचित जातियों का हिस्सा न हो बल्कि अन्य पिछड़े वर्गों के लोग हों।

1978 में दया पवार द्वारा लिखा गया ’बलुता’ अंगलियात की अपेक्षा और अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली हो गया, जो कि पवार का बहुत ही उत्कृष्ट कार्य था। एक आत्मकथा, शायद दलित लेखन में लिखने वाला पहला व्यक्ति ’बलुता’ जिसने स्वयं कई अध्ययन किए हों, ने दया और दगदू के मध्य इस मामले को विभाजित कर दिया। राजनीतिक रूप से स्थापित, प्रशंसित और विवादित व्यक्ति ने अपने आप को एक ऐसी कहानी लिखने के लिए घिरा हुआ पाया जिसको लिखे जाने की आवश्यकता थी, जिस प्रकार एक दर्जी कपड़ों के टुकड़ों से कपड़े सिलता है उसी प्रकार दया पवार ने इस कहनी को लिखा है। दया ने दगदू की अविश्वसनीय यादों से कौआखाना, डॉक्स और बॉम्बे को लेकर एक स्केच तैयार किया था।
जब अंगलियात की उनके पड़ोसी क्षेत्र गुजरात से तुलना की जाती है तो मराठी बलूता और गुजराती अंगलियात के बीच काफी बड़ा अंतर सामने आता है। जहाँ एक व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूप से जीवन और समुदाय के उच्च स्तर का लुत्फ ले रहे हैं जबकि दूसरा अंगलयात है जो सुंदर और महाकाव्यत्मक वर्णन प्रदान करता है।

क्या यह भी सभी स्वभाव के अंतर हैं, जैसे क्षेत्रीय प्रकृति, उस स्थान का इतिहास या व्यक्तिगत स्वभाव? जिस प्रकार दलितों और सवर्णों के मध्य अंतर हो उसी प्रकार एक ही क्षेत्र में दो दलित समुदायों के मध्य अंतर काफी असहनीय हो सकते हैं।

मुझे लगता है कि दलित जीवन की विविधता पर लिखते समय एक ही सवाल पूछने के कई तरीके हो सकते हैं। उदाहरण के लिए देखा जाए तो एक समाजशास्त्री जनसांख्यिकीय अंतरों की तलाश कर सकता है जबकि एक राजनेता चुनावी प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए अपना कार्य शुरू कर सकता है। हम में से कुछ के लिए, दलित साहित्य जाति की अनुभवजन्य और अनुभवी दुनिया में झाँकने के लिए एक खिड़की प्रदान करता है। यह उतना ही अच्छा है और अपर्याप्त है, जितना भावनाओं के रंगों की कल्पना करने, रोजमर्रा की जिंदगी में चुप्पी साधने और देश के निजी तथा सार्वजनिक दोनों क्षेत्रो में जाति जैसी यादगार की लगातार दृढ़ प्रकृति की शुरूआत करने लिए अच्छा है।

दलित साहित्य का प्रधान भाग उन समुदायों द्वारा लिखना और प्रकाशित करना संभव हो पाया है जो की विभिन्न उप-जातियों, क्षेत्रों, भिन्न विचारधारात्मक मतों से आये हुए है।अपने बहुभाषी खातों (अनुवादकों द्वारा उपलब्ध कराए गए) में, हम एक भारत का सामना करते हैं कि शहरी ऊपरी जाति के पाठकों को अनदेखा करना चुनना है, या भारत की परिभाषा जिसे हम सीखना नहीं चाहते हैं।अपने बहुभाषी खातों में (अनुवादकों द्वारा उपलब्ध कराए गए),हम उस भारत से आमना-सामना करते हैं, जिसमें शहरी अपर-कास्ट के पाठक उसे अनदेखा करते है ,या उस भारत की परिभाषा को हम याद रखना नहीं चाहेंगे।दलित परिप्रेक्ष्य की एक प्रविष्टि राष्ट्रवाद, उपनिवेशवाद, आधुनिकता और कई राजनीतिक आंदोलनों, जैसे तेलंगाना और नक्सलवाद के संस्थागत विवरणों में परिवर्तन करता है।

जैसा कि मैंने यह कहा है, कि हाल के दिनों से दलित लेखन के दो उदाहरण मेरे दिमाग में हैं।

सुजाता गिडला की, “चींटियों के बीच घिरे हाथी (2017)” की कहानी हमें एक ‘अछूतֹ‘ ईसाई के जीवन पर आधारित एक माओवादी विद्रोही की कहानी बताती है और मनोरंजन व्यापारी अपनी कहानी “माई चांडाल लाइफ(2018 में अंग्रेजी अनुवाद)” में एक युवा नक्सली के रूप में बताते हैं। गिडला, डायस्पोरिक लेखक द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए एक और विवरण का एक दुर्लभ उदाहरण पेश करती हैं। व्यापारी की आत्मकथा का अनुवाद बंगाली से अंग्रेजी में सिपा मुखर्जी द्वारा किया गया है।

“हमें अपनी कहानियाँ विशेष रूप से एक-रंगीय कथाओं के रूप में अपने दिल में समाहित कर लेनी करनी चाहिए। हमें अपनी बर्बादी का साक्ष्य स्वयं ही होना चाहिए, इसलिए “प्यार के ग्यारह तरीके” (2018) नामक पुस्तक में ध्रुबो ज्योति कहती हैं कि आपको और हमें अपनी भूमिका को पहचनना होगा जो गंभीर तथा शक्तिशाली है।ध्यान दें कि अन्तरानुभागीय का अध्यन करना कितना मुश्किल हैकि दलित और समलैंगिक व्यक्ति दोनों होना संभव है और पूछें कि बाहरी रूप से इन रूपों में से कौन सा और कब अधिक कठिन है।

‘पी’ अक्षर की श्रृंखला के रूप में लिखा गया है जो कि कि कलकत्ता की बौद्धिक-शैक्षणिक मंडलियों से सवर्ण और ‘भद्रलोक’ में से है विलक्षण-दलित प्रेषक उसके लिए ज्ञान की बातें लाते हैंऔर हमारे लिये निहितार्थ, इस अंग्रेजी लेखन के अपर-कास्ट पाठक, वैश्विक कामुकता की नाजुकता और जाति की अयोग्यता से चिह्नित हैं।

विशेषाधिकार प्राप्त केंद्रों से निकाली गई पहचानों के लिए सवाल यह है: किस संदर्भ में यह कम प्रतिक्रिया को आकर्षित करेगा। “मुझे पता था कि मैं समलैंगिक और नीची जाति एक साथ नहीं हो सकती। मुझे पता था कि मैं लोगों के छोटे प्रहारों और निरपराध संदेहों और सहायक उदाहरणों को रोक नहीं सकती। इसलिए मैंने अपनी जाति को गुप्त रखा।”

मेरी बेटी ने इस लेख से मेरा ध्यान आकर्षित किया, लगभग दो दशकों बाद मैंने पहली बार दलित साहित्य के साथ अपनी परिचितता स्थापित की।इन वर्षों में, दलित साहित्य एक से अधिक तरीकों से विस्तारित हुआ है।ध्रुबो ज्योति के सवालों की तत्कालता और समकालीन प्रकृति, गिडला की डायस्पोरिक और अंग्रेजी लेखन की स्थितिऔर ब्यापारी के एक शहर के विवरण के बारे में हमने सोचा जैसा कि हम जानते थे कि दलित प्रवचन नए बदलावों को दर्शाते हैं–बदलाव, जिससे संस्था और अभिव्यक्तियों की श्रृंखला में वृद्धि हुई है, भले ही उसमें विधायी और सामाजिक परिवर्तन की जाँच की जाती है।
रीता कोठारी अशोक विश्वविद्यालय में(अंग्रेजी) की प्रोफेसर हैं।

दिप्रिंटके मासिक अभिलेख में दलित इतिहास के बारे में पढ़ें।

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