भारत हालांकि अपने बजट का 30 प्रतिशत प्रतिरक्षा पर खर्च करता है लेकिन आधुनिक अस्त्र-शस्त्र की जरूरतें पूरी करने के लिए उसे और संसाधन जुटाने होंगे.
अब जबकि वर्ष 2018-19 का बजट आने में चंद हफ्ते रह गए हैं, भारत के प्रतिरक्षा महकमे के सामने एक ऐसा यक्षप्रश्न खड़ा है जिसकी वह अनदेखी नहीं कर सकता. सवाल यह है कि क्या हम रक्षा तंत्र के आधुनिकीकरण पर अनपेक्षित रूप से कम खर्च नहीं कर रहे हैं, या हम जरूरत से ज्यादा विशाल सैन्यबल का भार नहीं उठा रहे हैं, जो बढ़ता ही जा रहा है? आदमी और मशीन के बीच चुनाव करने का कठिन सवाल आ खड़ा हुआ है.
भारत या तो अपने रक्षा बजट में अच्छी खासी वृद्धि करे या सैन्यबल में भारी कटौती करके उसे उचित स्तर पर लाकर उसे ज्यादा दक्ष, बेहतर साजोसामान से लैस बनाए. इन दो विकल्पों में चुनाव करना आसान नहीं है. भारत अपने प्रतिरक्षा पर जिस तरह खर्च कर रहा है, उसे आप दो तरह से देख सकते हैं. अगर आप सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के पैमाने से देखेंगे तो लगेगा कि वह सेना पर कम खर्च कर रहा है. जीडीपी के अनुपात में रक्षा बजट का वैश्विक पैमाना 2-2.5 प्रतिशत का है लेकिन भारत जीडीपी का मात्र 1.6 प्रतिशत खर्च कर रहा है, जबकि चीन 2.1 प्रतिशत और पाकिस्तान 2.36 प्रतिशत कर रहा है. अगर आप देश के वार्षिक बजट के- जो सड़क, रेलवे और बिजली जैसे बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के लिए होता है- अनुपात में देखेंगे तो लगेगा कि इसका 30 प्रतिशत भाग सेना को देकर हम उस पर असामान्य रूप से ज्यादा खर्च कर रहे हैं.
जो भी हो, वह स्थिति तेजी से करीब आ रही है जब कदम वापस खींचना मुश्किल हो जाएगा. भारतीय रक्षा बजट बनाम वैश्विक प्रवृत्ति के विपरीत सैन्यबल में वृद्धि की यह स्थिति बनी रही तो अटपटे किस्म से बिखरी सेना को पारंपरिक जुगाड़ किस्म की व्यवस्था से ही काम चलाना पड़ेगा. क्या ऐसा कोई चाहेगा?
संसद में कानून बनाने वाले लोगों के सवालों का यांत्रिक ढंग से जवाब दिया जाता है, उसकी भाषा नौकरशाही ने तय कर रखी है, और मंत्री महोदय यथासंभव संक्षेप में ही जवाब देने की कोशिश करते हैं. वैसे, यह व्यवस्था कभीकभार ऐसे एकाध वाक्य उछाल देती है, जो ऊपरी तौर पर दृष्टिगोचर होने वाली चीज से ज्यादा कुछ का अंदाजा दे देते हैं. रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे ने ‘मेक इन इंडिया’ के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि “रक्षा क्षेत्र में मैनुफैक्चरिंग को मुख्यतः रक्षा उपकरणों के पूंजीगत अधिग्रहण से बढ़ावा मिल रहा है”.
हालांकि मंत्री महोदय ने लोकसभा में अगस्त में भी इन्हीं शब्दों में यही जवाब दिया था लेकिन यह एक वाक्य रक्षा के क्षेत्र में मेक इन इंडिया की विफलता की कुंजी है. निजी क्षेत्र अरब डॉलर मूल्य के हथियार निर्माण को तभी शुरू कर सकता है जब उनका एकमात्र खरीदार रक्षा मंत्रालय वास्तव में खरीदारी के ऑर्डर पेश करे.
लंगड़ा बजट
इसके लिए मंत्रालय को अधिग्रहण का मोटा बजट मिले ताकि वह ठेके पर दस्तखत के समय अग्रिम भुगतान के अलावा बाद में किस्तों के भुगतान के लिए भी उसका उपयोग कर सके. दुर्भाग्य से इन वर्षों में रक्षा बजट इतना कमजोर हो गया है कि आधुनिकीकरण के लिए बेहद छोटा हिस्सा ही उपलब्ध हो पाता है. यह राशि इतनी कम है कि सबसे आशावादी उद्योगपति भी इस क्षेत्र में निवेश करने से पीछे हट जाएगा.
रक्षा महकमे पर संसद की स्थायी समिति ने बजट पर सबसे विश्वसनीय आंकड़ा प्रस्तुत किया है. भाजपा नेता मेजर जन. (रिटा.) बी.सी. खंडूरी के नेतृत्व वाली यह समिति हाल में ऐसी रिपोर्टें देती रही है, जो सूचनाओं का खजाना है. ये रिपोर्टें साफ बताती हैं कि रक्षा मंत्रालय के पूंजी व्यय बजट में निरंतर गिरावट आई है- 2007 में यह 41 प्रतिशत थी, जो 2016-17 में घटकर 32 प्रतिशत हो गई. इसकी एक बड़ी वजह सैन्यबलों के वेतन में ताजा संशोधन है. इसका मतलब यह है कि सेनाएं अपने संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा भाग अपने उपकरणों के आधुनिकीकरण पर न खर्च करके अपनी परिसंपत्तियों- गोला-बारूद से लेकर ईंधन, वेतन और बुनियादी ढांचे- के रखरखाव पर खर्च कर रही हैं.
प्रतिबद्धता के प्रश्न
आंकड़े बताते हैं कि सिकुड़ते पूंजी बजट के भीतर भी नई खरीद के लिए वास्तव में उपलब्ध पैसा बहुत कम है. उदाहरण के लिए, थलसेना में नई खरीद के लिए 2016-17 में मात्र 2,080 करोड़ रु. यानी कुल पूंजीगत भाग का 14 प्रतिशत ही उपलब्ध था. इसकी वजह यह है कि बाकी रकम खरीद की परंपरा या प्रतिबद्ध देनदारियं के कारण अटक गई. यह रकम पहले खरीदे गए साजोसामान- टैंक, मिसाइल, बख्तरबंद गाड़ियों आदि- की किस्तें भरने में चली गई जबकि ये सामान अभी सेना को मिली भी नहीं हैं. इसी साल वायुसेना को नई खरीद के लिए 3,250 करोड़ रु. उपलब्ध थी, जबकि पूंजीगत अधिग्रहण बजट का 89 प्रतिशत भाग पहले खरीदे गए सिस्टम की किस्तें भरने में चला गया. यह रकम तो दूसरी छोटी-मोटी खरीदारियों की तो छोड़िए, 58,000 करोड़ रु. के राफेल सौदे में अग्रिम भुगतान के लिए भी पर्याप्त नहीं होगी.
इस असंतुलन की एक वजह इस सरकार को यूपीए राज से विरासत में मिला रक्षा बजट भी है. यूपीए सरकार ने कई बड़ी रक्षा खरीदारियों- अधिकतर सरकार-से-सरकार के बीच के ठेकों- के करार कर लिये और अब भाजपा का जो रक्षा बजट मिला है उसमें से उनकी किस्तों का भुगतान हो रहा है.
अगर यही सब चलता रहा- क्योंकि इसे बदलने की कोई कोशिश नहीं दिख रही है- तो संभावित नतीजा यही होगा कि सेना कमजोर पड़ती जाएगी.
बजट बढ़ाएं, फौज घटाएं
इसे दुरुस्त करने का एक जाहिर तरीका यह है कि रक्षा मंत्रालय को एक बार बड़ा उछाल दिया जाए या उसके बजट में संशोधन किया जाए. सेना में इस बात को लेकर काफी असंतोष है कि जीडीपी का केवल 1.62 प्रतिशत भाग ही उसके नाम आवंटित किया गया है. जबकि उसे 2 प्रतिशत से ज्यादा मिलना चाहिए. इस मुहिम के समर्थकों का कहना है कि वैश्विक मानक तो 2 से 2.5 प्रतिशत का है यानी सरकार रक्षा को प्राथमिकता नहीं दे रही है. वे कहते हैं कि 1988 में भारत में जीडीपी के 3.18 प्रतिशत के बराबर भाग सेना दिया जाता था, यानी अब उसे घटाकर आधा कर दिया गया है.
इस पर दूसरे तरीके से यह विचार किया जा सकता है कि भारत को रक्षा पर कितना खर्च करना चाहिए या वह कितना खर्च कर सकता है. एक आम गलत धारणा यह है कि मेक इन इंडिया अधिग्रहण की लागतों को घटा देगा क्योंकि हम अपने यहां सस्ते में सामान बना लेंगे. वास्तव में, मेक इन इंडिया अभिक्रम के प्रारंभिक वर्षों में लागतों में भारी वृद्धि होगी क्योंकि बुनियादी ढांचे को खड़ा करना पड़ेगा और उत्पादन मुनाफे से नीचे के स्तर पर शुरू होगा.
उदाहरण के लिए, तैयार रैफेल की खरीद पर जो खर्च होगा वह भारत में लड़ाकू जेट विमान के उत्पादन पर होने वाले खर्च का आधा होगा. फिलहाल भारत अपने सालाना पूंजीगत खर्च का 29.5 प्रतिशत भाग अकेले रक्षा मंत्रालय पर खर्च कर रहा है. यह उस पैसे में से आता है जो सड़कों, बंदरगाहों, आवासों, सीमा पर बुनियादी ढांचे आदि के निर्माण के लिए होता है.
दूसरा विकल्प यह है कि देश के सैन्यबल में कमी की जाए. भारत एकमात्र बड़ा देश है जिसने पिछले कुछ वरषों में सैनिकों की संख्या बढ़ाई है. नए माउंटेन स्ट्राइक कोर के लिए 40,000 सैनिकों की भर्ती की मंजूरी दी जा चुकी है.
इसके विपरीत सभी बड़े देशों की सेनाएं अपनी संख्या घटा रही हैं. इसकी जगह ऐसी चुस्त सेना तैयार की जा रही है, जो पूरी तरह चाकचौबंद हो और जिसे फटाफट लड़ाई के मैदान में पहुंचाया जा सके. सबसे बड़ी मिसाल तो चीन की है जिसने इस साल सैन्य सुधारों के तहत फौज की संख्या में 3 लाख की कटौती की है.
भारत ने भी पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर द्वारा गठित ले. जन. (रिटा.) डी.बी. शेतलकर कमेटी की सिफारिश पर ‘राइट साइज’ की सेना तैयार करने और उसके खर्चों को संतुलित करने की पहल की है. इन सिफारिशों के तहत 57,000 सैनिकों की ड्युटी बदली जा रही है, संख्या कम नहीं की जा रही है इसलिए यह रक्षा बजट को मौजूदा चक्र से उबारने के लिए काफी नहीं है.
इतिहास हमें यही सिखाता है कि आधे-अधूरे उपाय संकट ही पैदा करते हैं.