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Sunday, 22 December, 2024
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किसानों के ‘लोंग मार्च’ से, कामरेडों को फ़ीनिक्स की तरह उदय हो पाने की मिली है आशा

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दशकों से, महाराष्ट्र में कम्युनिज्म सुस्त-सा था, परन्तु किसानों के विरोध की शक्ति ने इसमें एक नई जान फूँक दी. क्या वे इसका लाभ उठा सकते हैं?

त्रिपुरा में हुई ‘प्रतिक्रांति’ व लेनिन की प्रतिमा पर बुलडोजर चलाने के हफ़्ते के अन्दर ही, यहां से 3000 किलोमीटर दूर, उत्तर पश्चिमी महाराष्ट्र के नासिक में लाल झंडा फहराया गया. यह झंडा उसी सीपीआई (एम) के नेतृत्व में फहराया गया, जिसके बारे में मत था कि इसे केसरिया सुनामी ने परास्त कर दिया है.

राजनीतिक वर्ग व मीडिया, कम्यूनिस्टों के इस अचानक फिर से जिन्दगी पाने से भौंचक्का रह गया. असल में, कामरेड स्वंय भी विश्वास नहीं कर पाये कि आखिरकार उनके ग्रामीण आधार का पूरा सफाया नहीं हुआ था. सीपीआई (एम) संबंधित आल इंडिया किसान सभा (एआईकेएस) किसी समय भारत के कई हिस्सों में एक शक्तिशाली आन्दोलन था. पचास व साठ के दशक में, काम्युनिस्ट, ‘बातचीत व नीति’ मापदण्ड निश्चित करते थे. यह केवल 70 के दशक के अंत व 80 के दशक में हुआ कि किसान आन्दोलन का वैचारिक उपरिकेन्द्र ‘राईट’ की तरफ मुड़ गया जब शरद जोशी ने उनका नेतृत्व किया व मांग की कि बाजार की ताकतें, उपभोक्ता बाजार में, कृषि उत्पादन के साथ-साथ सब्जियों और अनाजों का मूल्य निर्धारण करें.

शरद जोशी ने सी. राजा गोपालाचारी द्वारा स्थापित निर्जीव हो चुकी ‘स्वतंत्रता पार्टी’ को पुनजीर्वित करने की कोशिश भी की, जो कि कृषि व उद्योग के लिए मुक्त बाजार आधारित पूंजीवादी सिद्वान्तों की हिमायती थी. यह वो समय था, जब उग्र कामरेड भूमि व राज्य कृषि क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे थे.

पचास व अस्सी के दशकों में कृषि मोर्चे पर राईट व लेफ्ट की ऐसी चरम स्थिति थी. नेहरू मार्ग ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के रूप में बीच का रास्ता अपनाने के हक में था. यह 1960 में महाराष्ट्र राज्य के बनने के बाद वाई .बी. चह्वाण के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए, उनके नेतृत्व में हुआ. वह एक प्रतिबद्व नेहरू अनुयायी थे.

पहले, चह्वाण वैचारिक रूप से एम. एन. राय से प्रभावित थे, जो कि प्रसिद्ध मार्क्सवादी क्रांतिकारी से पूर्ण मानवतावादी बन गए थे. चवान के अधीन कृषि नीति ने लेफ्ट की तरफ मोड़ ले लिया. इस नीति के प्रमुख लक्षण थे, ‘भूमि किसान की, सहकारी कृषि व बैंकिग, और कृषि उत्पाद का आश्वासित मूल्य’.

काम्युनिस्टों ने फिर भी समर्पण नहीं किया और खेतिहर मजदूर, भूमिहीन, गरीब व छोटे जमीदारों और यहां तक कि मध्य किसानों को भी संगठित किया. दरअसल, हरित क्रांति ने बड़ी लालसाओं व इसके साथ ही बड़े पैमाने पर असंतोष भी पैदा किया. यहां तक कि चवान ने खुले रूप से कहा कि हरित क्रांति का लाभ अगर सब तक नहीं पहुचंता तो यह ‘लाल’ में भी बदल सकती है.

कम्यूनिस्ट चाहे बंटे हुए भी थे, फिर भी वे शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में मजबूत थे. मुम्बई व पूणे में ज्यादातर फैक्टरियों में मजबूत उग्रवादी ट्रेड-यूनियन थी. मुम्बई शहर, खासतौर पर टेक्सटाईल बेल्ट और इसके इर्द-गिर्द और पूणे तक लाल झण्डे में शामिल थे. उनकी विधान संबंधी मौजूदगी कम होते हुए भी शक्तिशाली थी.

लेफ्ट का उदारीकरण से पहले व बाद का पतन

कहा जाता है कि 1991 के उदारीकरण के बाद लेफ्ट राजनीतिक रूप से प्रभावहीन हो गया, परन्तु असल में इसका पतन अस्सी के दशक में ही शुरू हो गया था. तकनीकी आधुनिकीरण, कार्यों का कम्पयुटरीकरण, कार्यकर्ताओं की बढ़ती अपेक्षाएं, कार्यक्षेत्रों में नए उभरते अनुक्रम, सफेदपोश व शारीरिक श्रम वाली नौकरी में बढता मतभेद, महिलाओं के बढ़ते रोजगार, और उभरता मध्यम वर्ग, धीरे-धीरे काम्यूनिस्टों के हाथों से निकल गया

कम्यूनिस्टों ने रंगीन टीवी, कम्पयूटरों, मोबाईल टेलिफोन और जानकारी व संचार प्रणाली का विरोध किया. परिवारों तथा फैक्टरियों में टकराव थे.

युवा लड़के-लड़कियों की आधुनिक गैजेट व फैशन की मांग, मीडिया व मॉल, आईटी इंडस्ट्री को नए अवसरों के रूप में देखना, विज्ञापन, व्यापार, प्रबंधन और सबसे जरूरी युवा आईआईटी / आईआई म ग्रेजुएटों को यूएस में नई शुरूआत मिलना – यह सब कामरेडों के लिए बिल्कुल अलग ही, एक नयी बात थी.

उग्र वामपंथियों के पुत्र व पुत्रियां न केवल अपने ऊपर वैचारिक प्रभाव को, बल्कि अपने माँ-बाप को भी छोड़ रहे थे, जिनको वे रूढ़ीवादी समझते थे. परिवारों में अंसतोष था कि कुछ गलत है. युवा, लेफ्ट विचारधारा को पुराना मानते थे. शहरों से ‘ट्रेड युनियन’ आन्दोलन असल में, टेक्सटाईल उद्योग के विनाश के बाद, गायब हो गया. बहुत कामरेड़ों की मानसिकता को वैचारिक धक्का तब लगा जब सोवियत यूनियन टूट गया व चीन ने अपने आप को ‘बाजार आधारित समाजवाद’ (मार्किट बेस्ड समाजवाद) में बदल दिया.

‘किसान लोंग मार्च’

इसी पृष्ठभूमि के साथ किसान लोंग मार्च ने आकार लिया. बीजेपी व नरेन्द्र मोदी द्वारा धोखा दिए जाने की सामूहिक भावना ने इसे बल दिया. पिछले चार सालों से किसान मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं, क्योंकि उन्हें मौसम की अनिश्चितता, बढते ऋण, आय में गिरावट, और बढ़ रही उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है.

एआईकेएस और अजीत नाव्ले तथा अशोक दाव्ले जैसे नेता, व्यापक व बड़े पैमाने पर फैली निराशा और क्रोध को चैनलाइज करने में कामयाब रहे. परन्तु शहरी-निम्न-मध्यम वर्गीय व कामकाजी समूहों से मिला समर्थन भी उतना ही जरूरी था जिसके बिना वे पांच से ज्यादा दिनों तक नासिक से मुम्बई तक मार्च न कर पाते.

‘किसान लोंग मार्च’-यह शब्द 1936 के ‘माओ’ के नेतृत्व में चीन में हुए लोंग मार्च से मिला है – में पुरूष व महिलाएं, बुजर्ग व अधेड़, शामिल थे, जिन्होनें पूरे मार्ग व मुम्बई को ‘लाल’ कर दिया. साठ के दशक के बाद से नगर ने ऐसा शानदार, चमकदार लाल रंग, टीवी स्क्रीनों पर भी नहीं देखा जिसने कामरेडों को खाक से फीनिक्स तक उभरने की आशा दी है. पर क्या ऐसा होगा ?

कुमार केतकर को कांग्रेस ने राज्यसभा के लिए नामांकित किया है.

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