जाने-माने वकील कपिल सिब्बल तीन तलाक और अयोध्या में मालिकाना से जुड़े मुकदमों मे वकालत कर चुके हैं, और कांग्रेस उनके घातक बयानों की निंदा करने की जगह टालमटोल करती रही है.
जब कोई प्रमुख वकील आपके राजनीतिक दल के अंदरूनी गुट का हिस्सा हो, तब प्रायः आप सार्वजनिक तौर पर उसका बचाव करते रहते हैं जबकि वह अदालतों में बेपरवाह होकर राजनीति करता रहता है. यूपीए राज में केंद्रीय मंत्री रह चुके कपिल सिब्बल ऐसे ही एक वकील हैं. दूसरों की बजाय उन्हें कहीं ज्यादा यह सफाई देते रहना पड़ता है कि उनके बयानों को कांग्रेस का बयान न माना जाए. लेकिन कई लोगों को लगता है कि सिब्बल अपने पेशे और राजनीति के बीच की रेखा को जानबूझकर धुंधली करते रहते हैं. 2017 में वे तीन तलाक और रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामलों के लिए अदालत में वकालत कर चुके हैं. इन दोनों मामलों ने धार्मिक तथा राजनीतिक भावनाओं को खूब भड़काया है.
शाह बानो मामले में उलटी मार खाने के बाद कांग्रेस धार्मिक महत्व के मामलों पर ‘सार्वजनिक’ रुख स्पष्ट करने से परहेज करती रही है. इससे पार्टी को न केवल सैद्धांतिक पहलू को लेकर निर्णय लेने की पर्याप्त छूट मिलती है बल्कि उसे राजनीतिक नतीजं पर भी गौर करने का भी काफी समय मिल जाता है.
लेकिन, सिब्बल कहां रुकने वाले हैं.
झटका नंबर एक
अयोध्या में मालिकाना संबंधी मुकदमे में वकालत करते हुए सिब्बल ने बेहद राजनीतिक रंगत वाला कानूनी तर्क पेश कर दिया और अदालत से अपील कर दी कि वह 25 साल पुराने इस मुकदमे को 2019 तक के लिए मुल्तवी कर दे. उनका कहना था कि उन्हें पूरा यकीन है कि अदालत का फैसला 2019 लोकसभा चुनाव के फैसले को प्रभावित कर सकता है.
उनके इस बयान से तीन सवाल उठ खड़े होते हैं. एक तो यह कि क्या वे इस मामले में निजी हैसियत से वकालत कर रहे हैं? अगर नहीं, तो उन्होंने अपनी निजी चिंता क्यों जाहिर की? दूसरे, क्या वे इस सिद्धांत में विश्वास नहीं करते कि न्याय में देरी करने का अर्थ है न्याय से वंचित करना? तीसरे, जिस देश में चुनाव होते ही रहते हैं वहां के लिए, क्या वे यह मानते हैं कि कानूनी फैसलों के लिए कोई ऐसी खिड़की बनाई जा सकती है कि वे चुनावों पर प्रभाव न डाले?
सिब्बल के तर्क पर चलें तब तो अदालतों को दीवानी मुकदमों पर प्रतिबंध ही लगा देना चाहिए क्योंकि वे चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं. दुर्भाग्य से कांग्रेस ने सिब्बल का खुल कर बचाव किया है और प्रकारांतर से यह मान लिया है कि अयोध्या प्रकरण का चुनावी महत्व है. इससे मंदिर के मसले पर कांग्रेस के रुख को लेकर सवाल भी खड़े होते हैं. एक पेशेवर वकील का बचाव करके अपनी किरकिरी कराने की बजाय पार्टी को खुल कर मांग करनी चाहिए कि इस मामले का निबटारा किया जाए. यह मसला पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि के ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकती है.
झटका नंबर दो
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील सिब्बल ने तीन तलाक पर प्रतिबंध का विरोध किया था और इसे ‘‘आस्था का मामला’’ कहा था. उन्होंने यह तो माना था कि यह एक कुप्रथा है, एक पाप है, लेकिन वे ऐसी चीज के बचाव पर उतर आए जो बचाव करने के लायक है ही नहीं. इसके लिए वे एक के बाद एक लचर तर्क देते गए. यहां तक कि उन्होंने इस प्रथा को सामान्य बताने की कोशिश की और इसे पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिफल बताकर इसका बचाव किया. अंततः, तीन तलाक संवैधानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरी और सिब्बल तथा कांग्रेस को एक जाहिर-सी बात कहने की हिम्मत न करने के लिए शर्मसार होना पड़ा. फैसले के बाद दोनों ने इस पर प्रतिबंध का स्वागत तो किया लेकिन तब तक काफी नुकसान हो चुका था.
जब कि पूर्व कानून मंत्री तीन तलाक जैसी घृणित कुप्रथा का बचाव कर रह थे, कांग्रेस ने अपना रुख स्पष्ट करने से परहेज किया. पार्टी ने न तो सिब्बल के विचारों से खुद को अलग किया, न ही प्रतिबंध का विरोध किया. इसने पीड़ित पक्ष, मुस्लिम महिलाओं को यह संदेश दिया कि कांग्रेस तीन तलाक को ठीक मानती है. नेहरू के सेकुलर, उदारवादी मूल्यों की रक्षा करने का दावा करने वाली पार्टी ने ऐसे प्रतिगामी मसले पर अडिग चुप्पी क्यों साधे रखी?
झटका नंबर तीन
राहुल गांधी के विवादास्पद सोमनाथ मंदिर दौरे पर भाजपा ने उनके धर्म को लेकर कुछ बेमानी सवाल खड़े किए. अगले ही दिन सिब्बल फिर से मनमौजी राजनेता की भूमिका में दिखे. भाजपा को धर्म के बारे में नसीहतें देकर न केवल वे उसके जाल में फंसे बल्कि उन्होंने यह भी आरोप लगा दिया कि प्रधानमंत्री मोदी ‘असली’ हिंदू नहीं हैं. कोई चतुर नेता जब फिसलन भरी जमीन पर होता है तब वह लापरवाही बरतने लगता है.
कांग्रेस ने सिब्बल के आरोप से खुद को अलग नहीं किया, न ही उसने राजनीतिक विमर्श में धर्म के घालमेल की निंदा की. वास्तव में, राहुल के धर्म के बारे में प्रमाण पेश करके उसने भाजपा के आख्यान को ही आगे बढ़ाया.
मोदी राज ने निस्संदेह भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी है, जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ने चुनावी लाभ की गारंटी के लिए धर्म की घुट्टी का उपयोग किया है. दोनों ही मजहब की शतरंज के मोहरे बन गए हैं, जिसकी आशंका हमारे दिग्गज पूर्वजों ने जाहिर की थी.
लेखक नीतिगत टीकाकार हैं और नई दिल्ली में रहती हैं।