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Monday, 25 November, 2024
होममत-विमतअरविंद केजरीवाल-अंशु प्रकाश विवाद: उन थप्पड़ों की गूंज दूर तक जाएगी

अरविंद केजरीवाल-अंशु प्रकाश विवाद: उन थप्पड़ों की गूंज दूर तक जाएगी

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नेताओं और नौकरशाहों के बीच झगड़े कोई नई बात नहीं हैं मगर दिल्ली के मुख्यमंत्री के निवास पर विधायकों का मुख्य सचिव को थप्पड़ मारना गिरावट की इंतिहा है, इसने दोनों तबकों के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है.

इसमें शायद ही किसी को शक होगा कि आम आदमी पार्टी (आप) गली-मोहल्लों में टक्कर लेने वालों की पार्टी है. इसके आलोचकों समेत अधिकतर लोग मानेंगे कि दिल्ली में जब इसने 70 में से 67 विधानसभा सीटें जीत कर नरेंद्र मोदी की भाजपा को करारा झटका दिया था, तभी से केंद्र सरकार ने उसके साथ शीतयुद्ध छेड़ रखा है. उसने इसे दिल्ली को हासिल अधूरे राज्य के दर्जे के तहत प्राप्त सीमित अधिकारों का भी उपयोग करने दिया है. इसमें भी ज्यादा संदेह नहीं है कि राज्य के मुख्य सचिव, 1986 बैच के वरिष्ठ, मृदुभाषी, सबके चहेते आइएएस अधिकारी अंशु प्रकाश के साथ सोमवार की रात मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निवास पर मारपीट की गई.

निर्वाचित राज्य सरकारं और नौकरशाहों में झगड़े प्रायः होते रहते हैं. यह भी कोई नई बात नहीं है कि राज्यों के मुख्यमंत्री आइएएस-आइपीएस समेत सरकारी कर्मचारियों को अपमानित करते रहते हैं. इनमें से कुछ को इसमें परपीड़ा सुख भी मिलता है.

मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तब उन्हें तबादलों की रानी कहा जाता था और उन्हें चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं थी. इस अधिकार पर उन्हें गर्व भी था. 2005 में मेरे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में उन्होंने बड़ी शान से इसका जिक्र भी किया था. हम उस समय जब हुमायूं रोड पर उनके निवास में उनका इंटरव्यू ले रहे थे तब उनके गुरु कांशीराम पहले माले पर कोमा में पड़े थे. मायावती ने तब बताया था कि जब वे पहली बार अपने इस गुरु से मिली थीं तब वे आइएएस की परीक्षा की तैयारी कर रही थीं. कांशीराम ने उनसे परीक्षा की फिक्र छोड़कर राजनीति में उतरने को कहा था, ‘‘मैं तुम्हें वह बना दूंगा जिसके इशारों पर आइएएस अफसर नाचेंगे.’’ कांशीराम ने अपना वादा निभाया और बहनजी ने भी अफसरों को नचाने का वादा पूरा किया. 2007 के चुनाव के दौरान बदायूं की एक सभा में हमने उन्हें तालियां बजाती भीड़ से यह कहते सुना था, ‘‘ब्यूरोक्रेसी मेरे नाम से थर-थर कांपती है.’’

वे उनका इतनी जल्दी-जल्दी तबादला करती थीं कि कई तो अपने परिवार को भी नई पोस्टिंग वाली जगह नहीं ले जा पाते थे. वे परिवार को परेशान न करने, बच्चों की पढ़ाई का ख्याल रखने के लिए नई जगह पर सर्किट हाउस में जाकर टिका करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि पता नहीं कितनी जल्दी यहां से भी हटा दिया जाए. कई अधिकारी केंद्र में या प्रतिनियुक्ति पर चले जाते थे.

ऐसे जिन बेरहम राज्यों को मैं जानता हूं उनमें हरियाणा का भी यही हाल था, खासकर बंसीलाल और ओम प्रकाश चौटाला का. वहां अफसरों के तबादले जल्दी-जल्दी होते थे, उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले, विजिलेंस की जांच और पिछली सरकार के चहेतों को ‘खड्डे लाइन’ में भेजना चलता रहता था.

इस तरह के राजनीतिक प्रतिशोध के कई सच्चे उदाहरण मैं गिना सकता हूं. लेकिन चार दशक की अपनी पत्रकारिता में मुझे ऐसी कोई घटना याद नहीं आती है कि किसी मुख्य सचिव तो क्या किसी वरिष्ठ अधिकारी की इस तरह पिटाई की गई हो, वह भी उसके मुख्यमंत्री के निवास में. यहां मैं बीते दिनों के बिहार में माफिया नेताओं द्वारा हत्याओं के मामले नहीं गिना रहा हूं. वह तो अलग ही मामला है.

मेडिकल रिपोर्ट, अब तक उपलब्ध वीडियो रेकॉर्डिंग और अंशु प्रकाश की तीन दशक की साख से तो यही संकेत मिलता है कि उन पर हमला किया गया था. इसलिए उस तथ्य पर कोई बहस नहीं हो सकती. अब मुख्यमंत्री के ही सहायक वी.के. जैन ने साफ-साफ कह दिया है कि प्रकाश पर हमला किया गया था.

बीतते समय के साथ ‘आप’ के प्रवक्ताओं तथा नेताओं के रुख भी बदले हैं- स्पष्ट खंडन से लेकर ज्यादा उग्र प्रतिवाद तक: ‘‘महज दो थप्पड़ों’’ की जांच के लिए आप पुलिस को मुख्यमंत्री निवास में भेज सकते हैं लेकिन जज लोया की ‘‘हत्या’’ के लिए अमित शाह से पूछताछ करने की हिम्मत नहीं है. आप इसे ईंट का जवाब पत्थर से देना कह सकते हैं लेकिन मैं इसे संवैधानिक गुस्ताखी जैसी बात कहूंगा. आपके ही साथ काम करने वाले मनुष्य के साथ हुए दुव्र्यवहार के लिए पछतावा तो दूर, सहानुभूति या समर्थन के दो शब्द तक नहीं हैं. बताया जाता है कि उत्तमनगर से आप के विधायक नरेश बालयान ने शुक्रवार को यह बयान दे दिया कि काम न करने वाले ऐसे अफसरों की तो पिटाई ही की जानी चाहिए. वैसे, आप की नेता आतिशी मारलेना ने इस बयान की तुरंत कड़ी निंदा की. उन्होंने ट्वीट किया कि सभी सरकारी कर्मचारियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिए और ‘आप’ की सरकार दिल्ली के विकास के लिए उनके साथ मिलकर काम करने में विश्वास करती है.

दिल्ली में केजरीवाल की ‘आप’ और केंद्र में मोदी की भाजपा के बीच जंग तीन साल से जारी है. इसके अलग-अलग रूप सामने आते रहे हैं मगर ज्यादातर वार केंद्र ने ही किए हैं. एक के बाद एक, उपराज्यपाल आए और सबने राज्य सरकार के फैसलों को दबा देने का ही काम किया. निर्वाचित सरकार द्वारा अधिकारियों की तैनाती या इस बारे में उसकी इच्छाओं का कभी सम्मान नहीं किया गया बल्कि उन्हें उलट दिया गया या खारिज कर दिया गया. सीबीआइ ने मुख्यमंत्री के प्रमुख आइएएस अधिकारी राजेंद्र कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और उनके यहां छापे मारे, जिनका कोई खास मतलब नहीं था. जो भी हो, उसने जो रकम बताई वह भी संदेहास्पद लगती है. ‘आप’ सरकार जिस ऐंटी करप्शन शाखा को बहुत चाहती थी, उसका नियंत्रण उससे छीन लिया गया. सबसे ताजा घटना तो आप के 20 विधायकों को लाभ के पद पर बने रहने के आरोप में उनकी सदस्यता रद्द करने और उसी सप्ताह उसे राष्ट्रपति से मंजूर करा लेने में चुनाव आयोग की तत्परता का है. पिछले शुक्रवार को पूर्व सूचना या चेतावनी देने का शिष्टाचार बरते बिना मुख्यमंत्री निवास में जिस ढिठाई से तलाशी ली गई वह इस जंग का ही एक और वार था.

यह सिलसिला लंबा है और बताता है कि केंद्र की ओर से लालफीताशाही तथा प्रक्रिया संबंधी हमले किस हद तक पहुंचे हैं. ‘आप’ जवाब में जबानी हमले ही करती रही है, जिनमें कुछ नामचीन भी हैं और कुछ बदनाम भी, मसलन केजरीवाल ने मोदी को ‘‘कायर और मनोरोगी’’ तक कह डाला. लेकिन शारीरिक हिंसा की ताजा घटना तो अभूतपूर्व है.

जब हम किसी चीज को अभूतपूर्व कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि यह एक नए चलन की शुरुआत है. क्या सरकारी कर्मचारियों से मारपीट अब नया चलन बनेगा? हम ‘आप’ को गली-मोहल्ले में लड़ाई लड़ने वालों की पार्टी तो कहते हैं मगर यदि वह इस तरह की राजनीतिक हिंसा को मान्यता देती है, तो दूसरे ऐसे भी ज्यादा कठोर नेता हैं जो इससे गलत सबक ले सकते हैं. जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि कोई ईमानदार अधिकारी मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री के ऐसे आदेश का पालन करने से मना करता है जिसे वह गलत मानता है. तो क्या उसी पिटाई आपके निवास पर हुई बैठक में की जाएगी या उसके अपने निवास में? इस मामले पर एक तर्क हमें यह भी सुनाई पड़ा कि मुख्य सचिव या नौकरशाहों को तो राशन से वंचित ढाई लाख लोगों का सामना नहीं करना पड़ता. तो क्या नेता लोग नौकरशाहों को इस भीड़ के हवाले कर देंगे? क्या वरिष्ठ अधिकारियों को अपने निर्वाचित नेताओं के निवास पर पुलिस सुरक्षा में जाना पड़ेगा?

राजनीतिक नेतृत्व और सरकारी महकमों के बीच का रिश्ता बहुत नाजुक होता है. कई मसलों पर उनके बीच विवाद हो जाता है जो प्रक्रिया, सिद्धांत या व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से संबंधित हो सकता है. अच्छे नेता जानते हैं कि इनसे कैसे निबटा जाता है. मुख्यमंत्री एक राज्य का नेता होता है, भले ही उसे दिल्ली के मुख्यमत्री की तरह सीमित अधिकार क्यों न हासिल हो. मतभेदों-विवादों को हल करना, विवाद बुरा रूप न ले यह देखना, जरूरत पड़े तो मसले को ऊंची संवैधानिक सत्ता के पास ले जाना उसका काम है. इन सबसे भी बात न बने तो सार्वजनिक विरोध करने, मीडिया में शोर मचाने (जिसमें ‘आप’ माहिर है) के विकल्प तो उपलब्ध हैं ही. लेकिन आपके मुख्य सचिव की पिटाई हो जाए, भले ही आपके निवास पर उसे ‘‘केवल दो थप्पड़’’ मारे जाएं, तो यह कोई गर्व करने की बात तो नहीं हुई.

2014 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऐंटीसिपेटिंग इंडिया’ (हार्पर कॉलिन्स) की प्रस्तावना में मैंने लिखा था कि नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और केजरीवाल की त्रिमूर्ति हमारी राजनीति के शानदार चेहरे हैं और ये पत्रकारों के जीवन को कभी उबाऊ नहीं होने देंगे. मैंने यह उम्मीद भी जाहिर की थी कि तीनों में परिवर्तन आएगा- मोदी मुख्यधारा में आकर संयमित होंगे, राहुल सार्वजनिक झिझक और टालमटोल छोड़ेंगे, केजरीवाल व्यवस्थागत शांति की ओर मुड़ेंगे. इस सप्ताह जो कुछ घटा उसने साबित कर दिया है कि मेरी अंतिम अपेक्षा बिलकुल गलत थी.

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