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Wednesday, 25 December, 2024
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इंदिरा और राजीव तो छोड़िए, पहले सोनिया फॉर्मूले को सीखें राहुल

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राहुल गांधी को कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में तो खुद को स्थापित करने की जरूरत नहीं है, उन्हें राज्यों में जरूर नेतृत्व का निर्माण करना होगा जैसा कि सोनिया गांधी ने किया|

राहुल की राजनीति और उनके नेतृत्व के बारे में बात कीजिए, तो सबसे पहले उनकी तुलना उनके पिता से की जाती है या फिर उनकी दादी से. कांग्रेस के नए अध्यक्ष पर इन हस्तियों का गहरा तथा मजबूत प्रभाव तो रहा ही होगा लेकिन असल में राहुल को जिस सबसे बड़ी विरासत को संभालना है वह उनकी मां सोनिया गांधी की है, जो इस ‘ग्रांड ओल्ड पार्टी’ की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रही हैं.

वास्तव में तो राहुल इस विरासत के ही हिस्से हैं. इन वर्षों में वे परिवार में होने वाली चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं. सभी संकेत यही मिलते हैं कि कई महत्वपूर्ण फैसलों से पहले सोनिया इन चर्चाओं को बेहद गंभीरता से लिया करती थीं. इसलिए राहुल अपनी मां के अध्यक्षत्व के दौर के न केवल करीबी प्रत्यक्षदर्शी रहे बल्कि उसमें अपनी तरह से उन्होंने योगदान भी दिया. कुछ अजीब संयोग हैं कि पार्टी के शीर्ष पद पर दोनों के आरोहण के राजनीतिक संदर्भों में काफी कुछ समानताएं हैं.

सोनिया ने 14 मार्च 1998 को यह पद संभाला था, जब आम चुनावों में पार्टी की हार के दो सप्ताह भी नहीं बीते थे. उस समय जिन राज्यों में चुनाव हुए थे, उनमें गुजरात भी शामिल था. भाजपा वहां चुनाव जीती थी और उसके बाद से अब तक हारी नहीं है. लेकिन उसी साल अंत में जब कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली में चुनाव जीत लिया तो उनके अध्यक्षत्व को भारी बढ़ावा मिला. इसके कुछ ही महीने बाद 1999 में पार्टी ने कर्नाटक में भी चुनाव जीत लिया था.

राहुल के लिए भी दिल्ली को छोड़ ये ही राज्य अगली चुनौती हैं. बेशक उनका क्रम थोड़ा बदला हुआ होगा. पहले कर्नाटक, फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (जिसका गठन 1998 के बाद मध्य प्रदेश से काट कर किया गया). व्यापक तौर पर देखें तो राहुल को भी अपने अध्यक्षत्व की मजबूती उन्हीं प्रादेशिक इकाइयों से मिलेगी, जिनसे सोनिया को मिली थी. कई तरह से राजनीतिक अनुमान यही लगाए जा रहे हैं कि गुजरात चुनाव के बाद कांग्रेस को बढ़त ही हासिल होगी, जहां 2012 के उसके आंकड़े में हर छोटी बढ़त उसके लिए बोनस ही मानी जाएगी.

सोनिया के सामने अलग तरह की चुनौतियां थीं. मसलन, उनके विदेशी मूल के मुद्दे के कारण शरद पवार 1999 में कांग्रेस से अलग हो गए. उस समय सोनिया ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे दिया था, जिसके बाद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने धरना आर भूख हड़ताल कर दिया और उन्हें इस्तीफा वापस लेना पड़ा था.

राहुल के सामने फिलहाल ऐसी कोई समस्या नहीं है. उनसे नाराज अधिकतर पार्टीजनों ने पार्टी छोड़ दी है, यानी उनके लिए रास्ता साफ-सुथरा है और वे अपनी मर्जी से गाड़ी चला सकते हैं. ऐसी स्थिति उनके लिए पिछले सात वर्षों से बनी हुई है. सवाल वास्तव में बस उनके प्रदर्शन का रहा है.

सोनिया को अपनी सीमाओं का पूरा एहसास था. उन्होंने ऐसे लोगों को साथ रखा था, जो वफादारों की जमात में भले न गिने जाते हों, काम करके दिखा सकते थे. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, पी. चिदंबरम मजबूत हुए हालांकि वे ए.के. एंटनी, शिवराज पाटील, दिग्विजय सिंह या अहमद पटेल सरीखों की जमात में नहीं गिने जाते रहे हों, जो सोनिया के ज्यादा करीबी लोगों की जमात के माने जाते है. सोनिया को असली ताकत राज्यों से मिलती थी, जहां उन्होंने वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी (आंध्र प्रदेश), तरुण गोगोइ (असम), शीला दीक्षित (दिल्ली), विलास राव देशमुख (महाराष्ट्र), भूपिंदर सिंह हुड्डा (हरियाणा), और अशोक गहलोत (राजस्थान) सरीखों के नेतृत्व को बढ़ावा दिया था. इन मुख्यमंत्रियों ने हमेशा कांग्रेस अध्यक्ष का वजन पार्टी के भीतर और बाहर भी बढ़ाया. इन नेताओं ने पार्टी को पैसे और विस्तार, दोनों लिहाज से चुनाव लड़ने में सक्षम बनाए रखा.

अपने शुरुआती वर्षों में राहुल ने ऐसा उपक्रम शुरू किया था कि इसकी पूरी मशीनरी में सुधार हो. यह उस तौरतरीके के विपरीत था, जिसके जरिए नेहरू-गांधी परिवार ने सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस को एक प्रभावी पार्टी मशीनरी बनाए रखा था. तब कोई भी सुधार सरकार के जरिए किया जाता था, पार्टी के जरिए नहीं, जिसे मुख्यतः चुनाव जीतने के लिए चाकचौबंद रखा जाता था.

सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया था लेकिन राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया, जो सरकार की नीतियों को बुनियादी तौर पर प्रभावित करती थी. राहुल ने मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून आदि के जरिए जो कारगर हस्तक्षेप किए, वे इसी फोरम के जरिए किए. अध्यक्ष के तौर पर राहुल को भूमिकाओं में ऐसे बंटवारे के तौर पर बुनियादी बदलाव करना होगा. स¨निया में यह उलझन कभी नहीं थी. पार्टियों को आकांक्षियों को मौका तो देना ही चाहिए, जबकि इसका फैसला प्रायः जीतने की उनकी संभावना आदि के आधार पर किया जाता है.

आज भाजपा उस मंथन का सटीक उदाहरण है, जहां नए अध्यक्ष ने काम कर दिखाने वालों को अवसर दिए और यह किसी अनुकंपा के तहत नहीं किया गया. लेकिन कांग्रेस के विपरीत भाजपा नेतृत्व ने माना कि राज्यों में तो वह मजबूत है ही, उसे केंद्र को मजबूत करने की जरूरत है. और यह काम जारी है.

हरेक पार्टी अध्यक्ष को यह संतुलन बनाए रखने का रास्ता खोजना ही पड़ता है. सोनिया के विपरीत, राहुल को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में खुद को स्थापित करने की जरूरत तो नहीं है लेकिन सोनिया की तरह उन्हें प्रादेशिक नेतृत्व को मजबूत करना पड़ेगा. ऐसा करते हुए उन्हें कुछ छूट देनी पड़ेगी, खुद को कम जताना होगा और तंबू को फैलाना होगा. यह सब करना आज तब के मुकाबले कहीं अलग मामला है, जब उनके पिता या दादी के वर्चस्व के जमाने में कांग्रेस का सितारा बुलंद था. आज सोनिया का रास्ता ज्यादा मददगार होगा, सिर्फ इसलिए कि आज राष्ट्रीय राजनीति में अकेले कांग्रेस ही बड़ी ताकत नहीं है. इस मामले में सोनिया के अलावा जिस कांग्रेस अध्यक्ष को ज्यादा बड़ी चुनौती से रू-ब-रू होना है, वे राहुल ही हैं.

प्रणब धल समंता दिप्रिंट के एडिटर हैं

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