यह आशंका तो निराधार है कि असम एक मुस्लिम बहुल राज्य बन जाएगा, फिर भी ‘धरतीपुत्रों’ की चिंताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती.
असम आज ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है. राज्य में जातीय आबादियों का नाजुक समीकरण जबकि बेहद विस्फोटक बारूद जैसी शक्ल अख्तियार कर रहा है, राजनीतिक शक्तियां इस संकट को भुनाने की ताक में लगी हैं. और बाकी देश उत्तर-पूर्वी भाग में जो कुछ हो रहा है उसके प्रति हमेशा की तरह बेपरवाह है.
राज्य में नए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की तैयारी ने पुराने जख्मों को हरा कर दिया है. असम की राजनीति में ‘प्रवासियों’ का मुद्दा दशकों से हावी रहा है. आजादी के पहले और उसके बाद राज्य में ‘बाहरी लोग’ बड़ी संख्या में आते रहे हैं. इनमें देश के दूसरे हिस्सों से हिंदीभाषियों, झारखंड के आदिवासियों, पश्चिम बंगाल के हिंदू बंगालियों के अलावा नेपाल और बांग्लादेश के प्रवासी भी शामिल हैं. राज्य की आबादी में महत्वपूर्ण अनुपात- यह कितना है इस पर खूब गरमागरम बहसें होती रही हैं- बांग्लादेश की खुली सीमा पार करके आने वाले हिंदू तथा मुस्लिम प्रवासियों की आबादी का है. ये लोग भारत में या तो इसलिए आ जाते हैं कि उन्हें अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है या फिर ये आजीविका की तलाश में आते हैं. जरा इस तथ्य पर गौर कीजिए- देश के बंटवारे के समय बांग्लादेश (तब वह पूर्वी पाकिस्तान था) में हिंदुओं की आबादी 24 प्रतिशत थी, जो अब मात्र 9 प्रतिशत रह गई है. यह कोई रहस्य नहीं है कि बाकी आबादी कहां गई.
यह कोई नई बात नहीं है कि असम में बड़ी संख्या में प्रवासी आते रहे हैं. इस राज्य का इतिहास प्रवासियों के आगमन के लहरों से भरा पड़ा है. आजादी के बाद बड़े पैमाने पर आप्रवासन ने यहां आबादी के जातीय संतुलन को गड़बड़ा दिया है. सरकार ने यहां बसीं अलग-अलग भाषाभाषी आबादियों के आंकड़े जारी नहीं किए हैं लेकिन 2001 के बाद जनगणना के आंकड़े साफ दिखाते हैं कि असमीभाषी लोग अपने ही राज्य में किस तरह अल्पसंख्यक हो गए हैं. 1991 से 2001 के बीच यहां असमीभाषी लोगों की आबादी 58 प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत हो गई जबकि बांग्लाभाषी आबादी 21 प्रतिशत से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई. इस प्रवृत्ति के अनुसार, आज असमीभाषियों की आबादी 40 प्रतिशत और बांग्लाभाषियों की आबादी कुल अबादी की एक तिहाई होगी. धार्मिक समुदायों के लिहाज से देखें तो असम में मुस्लिम आबादी 1951 में 25 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 34 प्रतिशत हो गई.
आबादी के भाषायी और धार्मिक अनुपात में ये बदलाव बांग्लादेश सीमा के करीब के जिलों में ज्यादा हुए हैं. हालांकि यह प्रचार तो निराधार है कि असम मुस्लिम बहुल आबादी वाला राज्य बनता जा रहा है, फिर भी अहोमिया, बोडो तथा अन्य आदिवासी समुदायों समेत तमाम ‘धरतीपुत्रों’ की चिंताओं को एकदम खारिज भी नहीं किया जा सकता. ज्यादा आशंका इस बात है कि परिस्थिति जातीय टकराव तथा हिंसा के कगार पर पहुंच रही है.
आज यह ज्वालामुखी फिर फटने के कगार पर है. 1985 के असम समझौते की एक प्रमुख शर्त कहती है कि 25 मार्च 1971 को या इसके बाद असम में आए सभी प्रवासियों की पहचान करके उन्हें वापस भेजा जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, हालांकि असम गण परिषद दो बार सत्ता में आई. ऐसा ही समझौता आंदोलनकारी छात्रों के साथ 2005 में हुआ और उसमें भी यही वादा दोहराया गया. मामला जब अनसुलझा रह गया तो यह सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, जिसने आदेश दिया कि 1951 में जो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तैयार किया गया था उसे आज के हिसाब से संशोधित किया जाए ताकि सच्चे नागरिकों की पहचान हो. पिछले तीन साल से सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में यह संशोधन प्रक्रिया चल रही थी, जिसे 31 दिसंबर 2017 तक पूरा हो जाना था. राज्य सरकार ने इस तारीख को आगे बढ़ाने की अपील की थी लेकिन कोर्ट ने आदेश दिया कि उक्त तारीख तक सूची का पहला मसौदा जारी किया जाए.
इस मसौदे के जारी होते ही अफरातफरी और आशंकाएं फैल गईं. पंजीकरण के लिए कुल 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदनपत्र भरे थे जिनमें से 1.9 करोड़ के नाम ही इस सूची में दर्ज हैं. बेशक यह पहली सूची है और मात्र एक मसौदा है, लेकिन इसके साथ असंभव रूप से ऊंचे दावे जुड़ गए हैं. मुस्लिम समुदाय के बड़े नाम इस सूची से गायब हैं, और यह विवाद का कारण बन गया है.
जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं उनके तीन वर्ग है- वे ‘मूल निवासी’ जिन्होंने अधूरे दस्तावेज जमा किए, संदिग्ध मामलों वाले लोग, और उस विशेष वर्ग के लोग जिन्होंने पंचायत द्वारा जारी प्रमाणपत्र जमा किए. फिलहाल इस तीसरे वर्ग के लोगों को लेकर विवाद उभरा है. हाइकोर्ट ने उक्त प्रमाणपत्रों को खारिज कर दिया है और राज्य सरकार भी इस फैसले का समर्थन कर रही है. इस वर्ग में 27 लाख ऐसी मुस्लिम महिलाएं शामिल हैं जिनके पास कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है क्योंकि उनका विवाह कभी रजिस्टर्ड नहीं किया गया और जिनके पास कोई शैक्षिक डिग्री भी नहीं है. इन महिलाओं की नागरिकता खत्म हो सकती है.
यहीं पर राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. दुर्भाग्य से, सभी राजनीतिक दल अपने-अपने चुनावी गणित की फिक्र में लगे हैं. राज्य में सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रही कांग्रेस को इस समस्या को और गहरा करने का दोषी भले न मानें मगर वह इसकी उपेक्षा करने की दोषी तो है ही. उसने विदेशी प्रवासियों को असम में आने की छूट दे दी और उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया. उदार तथा प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग ने भी हालात की गंभीरता को नहीं समझा. वामदल बांग्लाभाषी प्रवासियों के मामलों में चुप्पी साधे रहे और इस समस्या के खिलाफ आवाज उठाने वालों की निंदा करते रहे.
‘धरतीपुत्रों’ की जायज चिंताओं को छात्रों तथा युवाओं ने 1977 से 1985 के बीच असम आंदोलन के जरिए आवाज दी. इस ‘विदेशी विरोधी’ आंदोलन के बाग्ला विरोधी तेवर को समझ पाना मुश्किल नहीं था, लेकिन यह आंदोलन मुस्लिम विरोधी राजनीति से एकदम अलग रहा. इसने अवैध प्रवासियों के मुद्दे को उछालने में तो सफलता पाई, लेकिन कोई प्रभावी समाधान नहीं दे पाया. असम गण परिषद की दो सरकारें भी इस मामले में दूसरी सरकारों की तरह विफल रहीं.
इस वजह से सांप्रदायिकता की राजनीति खुल कर होने लगी. पिछले कुछ वर्षों में भाजपा इस भाषायी तथा जातीय मुद्दे को सांप्रदायिक तथा धार्मिक रंग देने में सफल रही है. राज्य में भाजपा की राजनीति बांग्ला हिंदू वोट बैंक पर आधारित है. इसलिए इस दल का दोहरा एजेंडा है- बांग्ला हिंदू प्रवासियों को नागरिकता दी जाए मगर बांग्ला मुस्लिम प्रवासियों को नहीं. अब चूंकि भाजपा राज्य तथा केंद्र, दोनों जगह सत्ता में है इसलिए वह इस एजेंडा को लागू करने के लिए कानूनी और प्रशासनिक, दोनों उपाय कर सकती है. राज्य की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने पंचायतों द्वारा जारी प्रमाणपत्रों को खारिज किए जाने के कदम का समर्थन किया है. केंद्र की भाजपा सरकार नागरिकता अधिनियम 1955 में खतरनाक संशोधन करने की कोशिश में जुटी है. संसद में पेश किए जा चुके इस संशोधन विधेयक के अनुसार, नेपाल को छोड़ दूसरे पड़ोसी देशों से आने वाले प्रवासियों को भारतीय नागरिकता आसानी से दी जा सकती है बशर्ते वे मुसलमान न हों. इस तरह, बांग्लादेश के हिंदू प्रवासियों को विशेष दर्जा हासिल होगा मगर वहां के मुस्लिम प्रवासियों को नहीं. यह विधेयक कानून बन गया भारतीय नागरिकता के लिए धर्म भी एक शर्त बन जाएगी. जिन्ना का द्विराष्ट्र सिद्धांत यही तो था!
उम्मीद के मुताबिक, पूरा असम इस मसले पर विभाजित है. हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति एनआरसी को ढाल बनाकर ‘स्थानीय बनाम बाहरी’ विभाजन को हिंदू बनाम मुसलमान विभाजन बनाने में जुटी है. दूसरी ओर, कई मुस्लिम संगठन एनआरसी का ही विरोध कर रहे हैं. इस विभाजन के कारण स्थिति खतरनाक रूप से विस्फोटक होती जा रही है.
गनीमत है कि असम के हिरेन गोहांई तथा अपूर्व बरुआ सरीखे अग्रणी बुद्धिजीवियों ने एक तीसरा और विवेकपूण मार्ग अपनाया है. इसके तहत एनआरसी की प्रक्रिया का समर्थन किया गया है और अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा के उपाय करने की बात कही गई है. इन लोगों का मानना है कि असम के पुराने निवासियों की भाषायी, सांस्कृतिक तथा जातीय सरोकार जायज हैं, और यह कि विदेशियों की पहचान के लिए एक ठोस प्रक्रिया की जरूरत है. इसलिए एनआरसी से जुड़ी प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए और उसका समर्थन किया जाना चाहिए. इसके साथ ही, इस प्रक्रिया में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए. मुस्लिम महिलाओं की विशेष स्थिति के मद्देनजर, उन्हें पंचायतों द्वारा जारी प्रमाणपत्रों को वैध माना जाए. अंत में, नागरिकता कानून में प्रस्तावित संशोधन को वापस लिया जाए क्योंकि यह भारतीय संविधान और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के प्रतिकूल है.
इन विचारों पर राष्ट्रीय सहमति, असम में तथा उसके बाहर भी, बनाने की सख्त जरूरत है. लेकिन क्या कोई इन विचारों को सुनने के लिए राजी है? या हम अगले नेल्ली नरसंहार का इंतजार कर रहे हैं?
योगेंद्र यादव नई पार्टी स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं