माना जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी के अगले अधिवेषन में सोनिया गांधी के लिए आजीवन संरक्षिका का एक नया पद बनाने का प्रस्ताव पारित हो सकता है.
अब जबकि 16 दिसंबर को राहुल गांधी कांग्रेस की बागडोर सम्हाल चुके हैं, तब राजनीतिक हलकों में कुछ ऐसे सवाल पूछे जा रहे है- इसके बाद निवर्तमान पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की क्या भूमिका होगी? वे पार्टी में भूमिका निभाती रहेंगी या खामोशी से नेपथ्य में जाकर गुम हो जाएंगी? वे रानी या रानी मां बन जाएंगी या केवल राहुल की मां बनकर रह जाएंगी? सोनिया के किसी भी वफादार (ओल्ड गार्ड) से ये सवाल पूछिए तो तुरंत पलटकर सवाल किया जाएगा- ‘क्या आपको लगता है कि जिस पार्टी की उन्होंने 19 वर्षों तक अध्यक्षता की है, उससे यकायक रिश्ता तोड़ लेंगी?’
अंतःपुर वालों का कहना है कि राहुल के आरोहण की पटकथा तो पांच साल पहले ही लिखी जा चुकी थी. 2013 में सोनिया जब 67 साल की हो गईं, तब उन्होंने अपने विश्वस्तों से कहा था कि 70 साल की हो जाने पर वे जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहेंगी. लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के कारण इसमें एक साल की देर हो गई. और अब अपने 71वें जन्मदिन के एक सप्ताह बाद उन्होंने पदभार सौंप दिया है.
हालांकि राहुल औपचारिक पदभार ग्रहण तो अगले सप्ताह करेंगे, लेकिन पार्टी अध्यक्ष की वास्तविक भूमिका वे करीब एक साल से निभा रहे हैं. स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद से सोनिया नेपथ्य में चली गई हैं और उन्होंने सभी महत्वपूर्ण फैसले राहुल पर छोड़ दिए हैं, चाहे वह विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे का हो या पार्टी पदाधिकारियों की निवुक्ति का या चुनावी गठजोड़ करने का. उत्तर प्रदेश हो या हाल में गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव, वे प्रचार अभियान से अलग रहीं. हालांकि वे चंद पार्टी नेताओं से कभीकभार मिलती रहती हैं लेकिन पिछले चार महीने से उन्होंने पार्टी का अपना कामकाज एकदम बंद कर दिया है.
सत्तर के दशक में ‘राजीव की गुड़िया’ के नाम से जानी गईं सोनिया पार्टी का 19 साल तक नेतृत्व करने के बाद अलग हो गई हैं. 1998 में पार्टी के पतन को थामने के लिए आगे आने के बाद से उन्होंने उथलपुथल भरा राजनीतिक जीवन जिया है. काफी जतन से अपनी एक रहस्यमय छवि बनाते हुए उन्होंने अपनी कमजोरियों को भी लाभ के अवसर में बदल दिया. उन्होंने चुनौती ऐसे समय स्वीकार की थी, जब उनकी पार्टी विपक्ष में थी और भाजपा उत्कर्ष पर थी. सोनिया संकोची थीं, अपने विदेशी मूल को लेकर सजग थीं, अल्पभाषी थीं और दूसरों की बात ज्यादा सुनती थीं लेकिन अपने काम को उन्होंने तेजी से सीख लिया और तमाम बाधाओं को पार करके उस शिखर तक पहुंच गईं, जहां आज वे हैं. उन्होंने यूपीए को एकजुट किया, जिसने 2004 से 2014 तक देश की बागडोर संभाली. वे देश में विपक्ष के नेता पद पर पहुंचने वाली पहली महिला बनीं.
इसका दूसरा पहलू यह है कि सोनिया ने पार्टी संगठन की अनदेखी की और नेपथ्य से सत्ता की डोर पकड़े रहीं. उन्होंने अपने पुत्र राहुल को आगे बढ़ाया, नेतृत्व की दूसरी पांत को उभरने नहीं दिया, जमीन से जुड़ी राजनीति नहीं की. नतीजा यह कि 2014 का चुनाव वे मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के हाथों हार गईं. तब से वे एक के बाद एक राज्य में उनकी पार्टी सत्ता गंवाती रहीं आर आज वह मात्र छह राज्यों में सत्ता में है.
अब जबकि पार्टी में सत्ता परिवर्तन हो रहा है, सवाल यह है कि सोनिया पार्टी तथा राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका अदा करेंगी? क्या वे संसद में पिछली बेंच पर बैठेंगी? क्या वे चुनावी राजनीति से तौबा कर लेंगी और राज्यसभा में चली जाएंगी? कई लोगों का कहना है कि वे पार्टी के रोजाना के कामकाज से अलग हो जाएंगी, लेकिन पार्टी नेताओं की ख्वाहिश है कि वे पार्टी तथा राहुल की संरक्षिका की भूमिका में रहें. वरिष्ठ कांग्रेस नेता एम. वीरप्पा मोइली ने हाल में जोर देकर कहा कि पार्टी में उनकी भूमिका में कोई ‘अवमूल्यन’ नहींं होगा और वे मार्गदर्शन देती रहेंगी.
कांग्रेस कार्यसमिति के एक सदस्य ने यहां तक कहा कि उनके लिए एक नया, आजीवन पद बनाने का प्रस्ताव अगले महाधिवेशन में रखा जा सकता है. कुछ लोग चाहते हैं कि वे कांग्रेस संसदीय दल की नेता और यूपीए की अध्यक्ष बनी रहें, क्योंकि अगर वे विघ्नहर्ता की भूमिका में रहेंगी तो क्षेत्रीय क्षत्रप उनकी बात मानेंगे. ममता बनर्जी, शरद पवार, या लालू यादव सरीखे वरिष्ठ नेता राहुल के नेतृत्व में काम करना शायद न चाहें, लेकिन उन्हें सोनिया को स्वीकार करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होगी. माकपा नेता सीताराम येचुरी ने हाल में एक टीवी इंटरव्यू में साफ-साफ कह दिया कि ‘‘सोनिया ही विपक्ष को जड़े रख सकती हैं. राहुल ने बागडोर संभाली तो विपक्ष बिखर जाएगा.’’
तो, अगर सोनिया ही सब कुछ करेगी, तो राहुल की भूमिका क्या होगी? पार्टी से यह आवाज उठ रही है कि वे संगठन को मजबूत करेंगे. इसलिए सब कुछ राजनीतिक परिस्थिति पर और सोनिया के स्वास्थ्य पर निर्भर है. पार्टी सोनिया का दामन तब तक नहीं छोड़ना चाहेगी जब तक राहुल जम नहीं जाते, लेकिन उस परिवार में क्या योजना बन रही है यह कोई नहीं जानता. बेटे को पार्टी अध्यक्ष के पद पर बिठाना सोनिया का पुराना लक्ष्य रहा है, जिसे उन्होंने हासिल कर लिया है.
कल्याणी शंकर स्तंभ लेखिका हैं, हिंदुस्तान टाइम्स की राजनीतिक संपादक और वाशिंगटन स्थित संवाददाता रह चुकी हैं