भाजपा को पता है कि जिन राज्यों में 2014 में उसने पूरी की पूरी सीटें बटोर ली थीं वहां फिर यह करिश्मा असंभव है. इसलिए 2019 चुनाव की तैयारी अभी से शुरू.
नरेंद्र मोदी अविराम प्रचारक हैं. कांग्रेस पर उनका एकाग्र आक्रमण कई लोगों को अति लगता होगा लेकिन उनकी इस अति में एक मकसद छिपा है. मोदी के हावभाव या ‘बॉडी लैंग्वेज’ का अध्ययन एक बेमानी कवायद ही मानी जाएगी क्योंकि वे इतने परिपूर्ण कलाकार हैं कि अपने संवादों या अपनी अदाओं में कुछ भी अनकहा या अप्रदर्शित नहीं छोड़ते. एक वक्ता के रूप में वे दिमागी तौर पर इतने तैयार होते हैं कि वे ऐसी कोई चूक छोड़ते ही नहीं कि आप उनके दिमाग में ‘सचमुच’ क्या चल रहा है यह समझ सकें. वे प्रचारक की भूमिका में इस तरह निरंतर बने रहते हैं कि 2014 में भारी जीत के तुरंत बाद के भी उनके भाषणों से यही लगता था मानो वे फिर ताल ठोकने लगे हैं.
मैंने ऊपर जो भूमिका बांधी है वह उन लोगों को थोड़ा सावधान करने के लिए है, जो संसद के दोनों सदनों में मोदी के भाषणों से उनकी चिंता का अंदाजा लगाने लगें. वैसे, इसके लिए आपको कुछ और संकेतों का गहराई से समझना पड़ेगा. उनके ललाट पर रेखाएं बेशक गहरी हुई हैं. विपक्ष के प्रति उनमें जो स्थायी उपेक्षा भाव रहा है, उसकी जगह गुस्सा झलकने लगा है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस उनके सबसे बड़े सिरदर्द के रूप में फिर से उनके दिमाग में जगह बनाने लगी है. लोकसभा में दिए उनके भाषण में करीब दर्जन भर बार कांग्रेस का सीधा उल्लेख था, यानी 48 सांसदों वाली पार्टी के औसतन प्रति चार सांसद पर एक बार उल्लेख.
कांग्रेस के अलावा ‘परिवार’ का कई बार जिक्र था, जिसकी शुरुआत नेहरू से की गई उनके और उनके वारिसों में से हरेक के ‘पापों’ की गिनती गिनाई गई- नेहरू के मामले में कश्मीर, उनकी बेटी इंदिरा के मामले में इमरजेंसी, उनके बेटे राजीव के मामले में 1984 का सिख संहार, सोनिया के मामले में आंध्र प्रदेश का राजनीति-प्रेरित हड़बड़ी में किया गया विभाजन, और राहुल के मामले में अध्यादेश की प्रति को खुलेआम फाड़ना. राजनीतिक टिप्पणी के रूप में देखें तो यह ‘परिवार’ की चार पीढ़ियों पर एक जोरदार आरोपपत्र था. लेकिन अफसोस कि इस सबके कारण उन्हें खुद अपनी सरकार पर कुछ कहने का समय नहीं मिला.
आम विश्लेषण के तहत आप चाहें तो कह सकते हैं कि यह एक नाराज विपक्षी नेता बनाम मजबूत सत्ताधारी का, या हवा के रुख में बदलाव की आहट से परेशान सत्ताधारी का, टकराव है. कि वह इतना ज्यादा परेशान हो गया है कि कांग्रेस को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रहा है. लेकिन याद रहे कि मोदी की शैली को किसी पारंपरिक कसौटी पर नहीं परखा जा सकता. जो लोग उन्हें जानते हैं, जो उनके साथ मिलकर काम करते हैं वे बताते हैं कि वे किसी भी विरोध को कभी भी हल्के से नहीं लेते. और हां, मोदी हमेशा प्रचार की झोंक में रहते हैं. वरना उनकी पार्टी आज 19 राज्यों में सीधे या सहयोगियों के साथ मिलकर राज कैसे कर रही होती?
2019 की बड़ी परीक्षा के लिए कांग्रेस की दावेदारी जो भी हो, इस साल त्रिपुरा को छोड़कर बाकी हरेक राज्य के चुनाव में वही भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी होगी. कर्नाटक और मेघालय में तो वह सत्ता में है ही, उपचुनावों में अपनी सफलताओं के बाद उसे मध्य प्रदेश और राजस्थान में अपने लिए मौका बनता दिख रहा है. मोदी को पता है कि 2018 में जो छह-सात मिनी चुनाव होने जा रहे हैं वे 2019 के लिए जमीन तैयार करेंगे. कांग्रेस अगर कर्नाटक में काबिज रही तो साल के करीब अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बड़े इम्तहानों के लिए हवा उसके अनुकूल हो जाएगी. अगर इनमें से दो में वह कामयाब हो जाती है तो 2019 के लिए सभी दावेदारियां खत्म हो जाएंगी. दूसरी ओर, भाजपा अगर कर्नाटक जीत लेती है तो हवा बदल जाएगी और उसके लिए गुजरात और फिर राजस्थान उपचुनावों के कारण पैदा हुईं चिंताएं दूर हो जाएंगी.
मोदी उस आज्ञाकारी बल्लेबाज की तरह नहीं हैं, जो कोच की सलाह पर अगली गेंद की चिंता छोड़ केवल उसी गेंद पर ध्यान केंद्रित करके खेलता है जो उसे फेंकी गई है. मोदी तो ऐसे खिलाड़ी हैं, जो पिच, मौसम, अंपायर, मीडिया, सबके साथ खेलते हैं. उनका तरीका मध्ययुगीन विजय अभियानों वाला है जिसमें ‘सब कुछ विजेता का है’ वाली भावना प्रमुख होती है. यही वजह है कि जब चुनौती किसी भी तरह से कठिन लगे, जैसी कि गुजरात में लगी थी, तो हर तरह से जोर लगा दो और जरूरत पड़े तो डॉ. मनमोहन सिंह पर पाकिस्तानियों से मिलकर राज्य में एक मुस्लिम को मुख्यंमंत्री बनाने की साजिश करने का मनगढ़ंत आरोप भी उछाल दे. मोदी-शाह शैली ‘सर्वग्रासी राजनीति’ है. वे केवल जीतना नहीं चाहते, विपक्ष को नेस्तनाबूद करके दफन कर देना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ नहीं है, सिवा इसके कि आज छह महीने पहले वाली स्थिति नहीं है.
गुजरात में उम्मीद से ज्यादा करीबी नतीजे, राजस्थान उपचुनावों में भारी मतों से हार, ये सब ज्यादा स्पष्ट चिंताजनक संकेत हैं. दूसरे भी संकेत हैं. करीब छह महीने का यह सबसे लंबा अंतराल है जब राहुल ने अपने काम पर निरंतर ध्यान बनाए रखा है. उन्होंने अपनी पार्टी और जनता के बीच भी लोकप्रियता बढ़ाई है. आज दूसरी पार्टियां कांग्रेस की छतरी तले आने में हिचक रही हैं लेकिन अगर वह कर्नाटक पर पकड़ बनाए रखती है तो यह हिचक टूट सकती है. याद रहे कि मोदी और शाह केवल प्रचारकर्ता या नेता ही नहीं हैं, वे चुनाव इंजीनियर व वैज्ञानिक भी हैं. वे इतने तेज तो हैं ही कि कांग्रेस को वही 2014 की 44 सीट वाली पार्टी के तौर पर न देखते रहें. उन्हें पता है कि अगर तब उनकी पार्टी ने 17 करोड़ वोट हासिल किए थे, तो कांग्रेस ने ऐसे हताशाजनक चुनाव में भी 11 करोड़ वोट हासिल किए थे. भाजपा-एनडीए 2019 की चुनाव दौड़ में अभी भी कांग्रेस सहित सबसे बहुत आगे है. लेकिन कांग्रेस अगर 11 करोड़ से बढ़कर 13 करोड़ वोट पर भी पहुंच जाती है तब एनडीए का चेहरा एकदम बदल जाएगा. मोदी और शाह इसी स्थिति को टालने की जुगत में भिड़े हैं.
1984 के बाद, जब भारत ने स्पष्ट जनादेश देना बंद कर दिया था, तब मैंने गठबंधन सरकारों के लिए उस टेनिस मैच का उदाहरण देना शुरू किया था, जिसमें विजेता का फैसला नौ सेट में सबसे ज्यादा सेट जीतने पर होता ह¨. इसलिए भारत के उन नौ बड़े राज्यों के बारे में सोचिए, जहां राजनीतिक तकदीरें बदल सकती हैं. इस टेनिस मैच के नौ सेट के तौर पर ये राज्य हो सकते हैं- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (2014 में तेलंगाना समेत), मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, कर्नाटक, और तमिलनाडु. मैंने कहा था कि जो भी दल या गठबंधन इनमें से पांच जीत लेता है, वह भारत पर राज करने के लिए गठबंधन बना सकता है. इन राज्यों को मिलाकर कुल 351 सीटें हैं और इनमें से पांच राज्य जो जीत लेता है वह 200 का आंकड़ा तो पार कर ही सकता है. मैंने कहा था कि यह आंकड़ा नया 272 है क्योंकि यह पर्याप्त संख्या में छोटे दलों को अपनी ओर खींचेगा. 2014 में मोदी-शाह की जीत ने इस हिसाब को बेमानी कर दिया. उन्होंने अकेले भाजपा को 272 नहीं 282 सीटें दिला दी.
अब जरा गहराई से यह देखें कि यह संख्या कैसे पूरी हुई. तब आप समझ जाएंगे कि आज वे चिंता में क्यों हैं. 282 के आंकड़े में राजस्थान की पूरी, मध्य प्रदेश की दो छोड़ पूरी, महाराष्ट्र की 48 में से 42, उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 और बिहार की 40 में से 31 सीटें शामिल हैं. इनमें से कुछ सहयोगी दलों की हैं. इनके अलावा गुजरात, उत्तराखंड, और हिमाचल प्रदेश में सारी सीटें तथा झारखंड, छत्तीसगढ़, और हरियाणा जैसे छोटे राज्यों में लगभग सफाया. भाजपा की समस्या यह है कि उसकी 282 की संख्या में भारी योगदान हिंदी पट्टी तथा पश्चिम भारत के भगवा क्षेत्रों का है. दक्षिण तथा पूरब लगभग पूरी तरह बाहर रहा, हालांकि उनकी गिनती भी नहीं थी. एक तरह से भाजपा की 2014 की जीत 1977 में जनता पार्टी की जीत जैसी थी.
भाजपा को पता है कि जिन राज्यों में उसने पूरी की पूरी सीटें बटोर ली थीं वहां फिर यह करिश्मा असंभव है. यहां तक कि गुजरात में भी कुछ घाटा हो सकता है, भले ही मोदी वहां के उम्मीदवार हों और लोग अपनी हताशा को कुछ पल के लिए दबा लें. अगर आज आप भारत के राजनीतिक नक्शे पर नजर डालें तो पाएंगे कि 272 से ऊपर का आंकड़ा हासिल करना असंभव जैसा है. राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र (खासकर तब जब शिवसेना अलग हो जाए) और उत्तर प्रदेश में घाटा होना है. उत्तर-पूर्व से कुछ सीटें भले मिल जाएं मगर घाटे को पूरा करने के लिए कोई आगे आता नहीं दिख रहा.
यही वजह है कि हम भाजपा को स्पष्ट बहुमत के बिना एनडीए सरकार की संभावना पर विचार कर रहे हैं. कांग्रेस माफ करे, हम इसे सत्ता में नहीं देख पा रहे हैं. फिलहाल तो नहीं ही, जबकि इंडिया टुडे का सर्वेक्षण इसे भारी सुधार के बावजूद 100 से कुछ ज्यादा सीटें ही दे रहा है. छह महीने पहले यह कल्पना नहीं की जा सकती थी कि एनडीए में भाजपा को बहुमत नहीं मिलेगा. आज यह संभव लगता है. जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, बहुमत से वंचित नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर आधे मोदी भी नहीं रह पाएंगे. उनकी शैली सर्वसत्तावादी है, साथ लेकर चलने वाली नहीं. वे दिल्ली में पांच साल तक और गुजरात में 13 साल तक पूर्ण बहुमत से राज करने के बाद ‘इस हाथ दे उस हाथ लो’ वाली गठबंधन सरकार चलाना नहीं चाहेंगे. यही वजह है कि वे अभी से 2019 के लिए अभियान पर निकल पड़े हैं.