सबरीमाला एक सबक है कि एक शक्तिशाली संस्था जब आस्था से संबंधित मसलों की व्याख्या करते हुए क़ानून तथा संविधान के सिद्धांतों को आंख मूंदकर लागू करती है तो उसके क्या अनपेक्षित नतीजे निकलते हैं.
ऐसा लगता है कि केरल के हिंदुत्ववादी नेता पोंगापंथी ही हैं. या फिर उनमें दुष्ट किस्म का ज़बरदस्त हास्यबोध भरा है. नहीं तो वे सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का विरोध क्यों करते कि सबरीमाला के मंदिर में सभी महिलाओं को प्रवेश की इजाज़त दी जाए, चाहे वे 10 से 50 के बीच की उम्र की क्यों न हों जब वे रजस्वला होती हैं. सबरीमाला मंदिर तो भगवान अयप्पा का है, जो भगवान शिव और भगवान विष्णु के नारी रूप मोहिनी के पुत्र थे. इन नेताओं को तो जजों का सम्मान करना चाहिए था, उन्हें आशीर्वाद देना चाहिए था.
संविधान पीठ का 4-1 के बहुमत से दिया गया आदेश चाहे कितना भी नेकनीयती भरा क्यों न हो, इसने हिंदुत्ववाद को वह मौका प्रदान कर दिया है, जो आरएसएस-जनसंघ-भाजपा नेताओं की दो पीढ़ियां हासिल करने में विफल रहीं— केरल में फलने-फूलने का राजनीतिक औचित्य. इस अदालत ने उन्हें अपने अंतिम मोर्चे पर ला खड़ा किया है.
अंतिम मोर्चा इसलिए कि तमिलनाडु में दो प्रतिस्पर्धी पार्टियों (द्रमुक और अन्नाद्रमुक) में से कोई एक, भाजपा से गठबंधन कर सकती है. लेकिन यह केरल में ही है कि दोनों प्रतिद्वंद्वी (एलडीएफ-माकपा गठबंधन और यूडीएफ़-कांग्रेस गठबंधन) भाजपा से बराबर नफरत करते हैं. आरएसएस वहां अपना पैर जमाने की जद्दोजहद में जुटा है और इसके कार्यकर्ता वामपंथी कार्यकर्ताओं से खूनी लड़ाई में गुत्थमगुत्था हैं. फिर भी तिरुवनन्तपुरम चुनाव क्षेत्र को छोड़कर, जहां वह कांग्रेस के शशि थरूर को झटका देने के कगार पर पहुंच गई थी, वह राज्य में हिंदू वोट को एकजुट करने में विफल रही है.
इस अदालती आदेश ने केरल, और आरएसएस/भाजपा को पहली बार हिंदू भावनाओं से जुड़ा एक मुद्दा थमा दिया है. क्या वे इस मुद्दे को भुनाते हुए एक व्यापक अपील पैदा कर सकेंगे? या प्रबल मलयाली संशयवाद इसे बेमानी कर देगा? यह जानने के लिए आपको केरल की अनूठी राजनीति के ज़्यादा जानकार लोगों से बात करनी पड़ेगी. वैसे, आप देख सकते हैं कि हिंदुत्ववादी ताकतों को रास्ता सूझ गया है. आरएसएस और उसके सहयोगियों ने केरल ही नहीं बल्कि उसके बाहर के उस पूरे क्षेत्र से महिला कार्यकर्ताओं को बुलाकर सबरीमाला में ज़ोरदार विरोध खड़ा कर दिया है. अगर इन महिलाओं में से कई को आप शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते हुए सुनें तो आप समझ लें कि वे आरएसएस की व्यवस्था में दीक्षित हैं. अब वे केरल में पूरी ताकत से आ जुटे हैं, और क्यों न जुटें. राजनीतिक और लोकतान्त्रिक प्रतिस्पर्द्धा केवल एक वाम, और इस वाम से भी वाम तक ही सीमित नहीं रह सकती. सो, केरल में हिंदू दक्षिणपंथ का स्वागत कीजिए. और आपके
स्वातंत्र्यवादी महामहिमों का बहुत-बहुत धन्यवाद!
सबरीमाला एक सबक है कि एक शक्तिशाली संस्था जब आस्था से संबन्धित मसलों की व्याख्या करते हुए कानून तथा संविधान के सिद्धांतों को आंख मूंदकर लागू करती है तो उसके क्या अनपेक्षित नतीजे भी निकलते हैं. ऐसा करने के लिए यह मान लेना होगा कि आस्था, चाहे कोई भी हो, तर्कपूर्ण होती है. यह एक कठिन मान्यता है.
क्या दैवी अवतारों का, या एक ही देवता के कई-कई रूपों का विचार तर्कपूर्ण माना जा सकता है? यह मामला इतना जटिल हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया का कामकाज संभालने वाले लोग काली को देवी दुर्गा बता सकते हैं. दुर्गा माता को तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वैसे भी एक देवी के कई रूप हैं, लेकिन क्या आप किसी शोधार्थी द्वारा जांचा गया कोई ऐसा शोधपत्र प्रस्तुत कर सकते हैं जो किसी दैवी हस्ती या कुंवारी माता के कई रूपों का अनुमोदन करता हो? या शिव, और विष्णु के नारी रूप मोहिनी से भगवान अयप्पा के जन्म लेने का? या प्रलय के दिन के मृतोत्थान का? क्या कोई अदालत यह सबूत मांग सकती है कि कुरानेपाक पैगंबर को सचमुच अल्लाह की सौगात है? या कई जनजातीय आस्थाओं, जीवात्मवाद, सूर्य-चंद्र की उपासना, बलि प्रथा के लिए?
हमारा समाज एक मिश्रित समाज है जिसमें अनगिनत आस्थाएं, मान्यताएं, प्रथाएं साथ-साथ चल रहीं हैं. यहां कोई आदमी किसी पेड़ या पत्थर पर सफ़ेद या गेरुआ रंग लगा देता है या किसी उपेक्षित पड़ी कब्र के ऊपर एस्बेस्टस की कुछ चादरें लगा देता है और अनगिनत लोग वहां इबादत करने लगते हैं. क्या अदालतें इन पर उठने वाले सवालों पर विचार कर सकती हैं? क्या कोई ईसाई महिला सुप्रीम कोर्ट से यह अपील कर सकती है कि वह कैथोलिक चर्च में महिलाओं को समान अधिकार तथा पद दिलाने का आदेश दे? या ईसाई पुरोहितों के चयन के लिए यूपीएससी सरीखी संस्था बनाने का? क्या कोई हिंदू महिला जजों से यह आदेश देने की अपील कर सकती है कि आरएसएस के शीर्ष पदों पर पुरुषों का एकाधिकार खत्म करके उसमे महिलाओं को भी जगह दी जाए? आरएसएस का नेतृत्व कोई ‘सरसंघचालिका’ करे तो कितना अच्छा लगे. और कौन जाने कभी ऐसा भी हो जाए. लेकिन इतना तय है कि यह किसी अदालत के आदेश से नहीं होगा.
हम काफी शांतिपूर्वक एक-दूसरे से मिलकर रह रहे हैं तो इसकी वजह यह है कि हम भारतीय लोग एक जनसमुदाय की तरह अपने पड़ोसियों को उनके मुताबिक रहने देते हैं. और, एक राज्य के तौर पर कुल मिलाकर आस्था के सवाल पर दूसरों के मामले में कम से कम दखल देते हैं. हिंदू कोड बिल पर भारी बहस होती रही है, और वह अभी भी विवादास्पद है. मैं पूरी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि जवाहरलाल नेहरू ने संसदीय बहस और बहुमत के ज़रिये हिंदू निजी क़ानूनों तथा प्रथाओं में जो सुधार कर दिए, सुप्रीम कोर्ट की पीढ़ी दर पीढ़ी सर्वोत्कृष्ट पीठें भी नहीं कर पातीं.
संसद ने शाह बानो फैसले को उलट दिया. उसी अदालत ने अब तीन तलाक को गैरकानूनी घोषित कर दिया है, और चूंकि आज शासक दल की राजनीति अलग है इसलिए इसे अपराध भी घोषित किया जा रहा है. लेकिन क्या किसी राज्य में पुलिस घरों में घुसकर लोगों को गिरफ्तार कर रही है या उन पर मुकदमा चला रही है? क्या इससे, पहले से ही असुरक्षित, खुद को घेरेबंदी में महसूस कर रहे समुदाय में खलबली नहीं मचेगी? तीन तलाक तो एक भयावह मध्ययुगीन प्रथा है. कई इस्लामिक देशों तथा समाजों ने इसे खारिज कर दिया है. भारत के मुसलमानों को भी यही करना चाहिए. लेकिन इसके लिए आवाज़ उनके भीतर से उठनी चाहिए, न कि एक ‘उदार’ अदालत द्वारा अनुमोदित आपराधिक कानून से लैस पुलिस की ओर से.
सबरीमाला पर दिए गए आदेश का औचित्य समझ में आता है कि यह व्यक्तिगत स्वाधीनता की खातिर किया गया. आप किसी स्त्री को अपने आराध्य देवता की पूजा करने से सिर्फ इसलिए कैसे रोक सकते हैं कि वह रजस्वला है और अपनी कामुकता से देवता के कौमार्य को भंग कर सकती है? बहुत अच्छा तर्क! इसके साथ आपने समानता के पक्ष में ज़ोरदार पहल कर दी है. और संपादकीय लिखने वालों से लेकर प्राइम टाइम पर किराए पर उपलब्ध होने वाले ऐक्टिविस्ट की ओर से वाहवाही का इंतज़ाम भी कर लिया.
लागू न किए जा सकने वाले अदालती आदेशों पर क्या एक भी शोधपत्र उपलब्ध है? उन पर कोई सार्वजनिक बहस? बहुत पहले एक अदालती आदेश जो बार-बार जारी होता रहा वह दोपहिया वाहन चलाने वाली महिलाओं (चाहे वे किसी भी धर्म की हों) के लिए हेलमेट अनिवार्य करने का था. लेकिन सिखों के विरोध के बाद इसे रद्द कर दिया गया. वैसे, ज़्यादा से ज़्यादा समझदार सिख महिलाएं चुपचाप हेलमेट पहनने लगी हैं, और कोई भीड़ उन्हें रोक नहीं रही है. मैं नहीं मानता कि बाइक की शौकीन गुल पनाग कभी बिना अच्छे हेलमेट के बाइक चलाती होंगी. उन्हें किसी अदालती आदेश की ज़रूरत नहीं पड़ी, न ही उन्हें रूढ़िपंथी निषेधों की चिंता करनी पड़ी. ज़्यादा से ज़्यादा सिख महिलाएं मजबूरी में नहीं बल्कि समझदारी से यह काम कर रही हैं.
अदालत अब कुछ मुस्लिम फिरकों में लड़कियों के खतने के मुद्दे पर विचार कर रही है. अदालत इसे गैरकानूनी घोषित कर सकती है, लेकिन क्या वे इस आदेश को लागू करवा सकती हैं? मैं आपसे वादा कर सकता हूं की भाजपा शासित महाराष्ट्र और गुजरात, जहां इन फिरकों की अधिकांश आबादी रहती है, भी पुलिस को इस खतने के लिए लोगों पर मुकदमा दायर नहीं करने देगी. आप जानते हैं कि हमारे नेता लोग कभी-कभी जजों से भी स्मार्ट होते हैं. यहां तक कि तीन तलाक पर इतनी संवेदनशील नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भी इस खतने के मसले पर चुप है. पीएम तो बोहरी सैयदना और उनके पुरोहितों से काफी संपर्क में रहते हैं. याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने वाराणसी में एक कब्र को लेकर शिया-सुन्नी विवाद पर 40 साल पहले दिये गए अपने आदेश को स्थगित कर दिया क्योंकि राज्य सरकार ने कह दिया कि इसे लागू नहीं किया जा सकता.
किसी विवादास्पद मसले पर अपारंपरिक नज़रिये से, या राजनीतिक औचित्य के सिद्धांत को लेकर तयशुदा नज़रिये से अलग कुछ सोचने के साथ खतरा यह है कि उसे गलत ही समझा जाएगा. इसलिए मुझे इसे फिर से बेदाग बनाना ही होगा. क्या महिलाओं को सबरीमाला मन्दिर में प्रवेश न दिया जाए? मेरा जवाब यह है कि उन्हें ज़रूर प्रवेश दिया जाए. क्या सिख महिलाओं को बिना हेलमेट के बाइक पर फर्राटे भरने दिया जाए? जवाब: बिलकुल नहीं. तीन तलाक़? यह मुस्लिम महिलाओं के साथ भयावह अन्याय है. उसी तरह जिस तरह उनका खतना अन्याय है. इन सबको खत्म होना ही चाहिए. लेकिन इसे समाज के भीतर के सामाजिक तथा राजनीतिक सुधारकों के ऊपर छोड़ देना चाहिए.
क्या इन सबको सिर्फ न्यायिक हस्तक्षेप से दुरुस्त किया जा सकता है? पूरे सम्मान लेकिन आग्रह के साथ मेरा जवाब होगा-नहीं. वरना इसके अनपेक्षित नतीजे मिलेंगे. जैसे एक मुकम्मिल दुनिया की तलाश में अदालत ने केरल में भाजपा को एक ऐसे मकसद के साथ पैर रखने की गुंजाइश बना दी, जो जितना नैतिक या आध्यात्मिक है, उतना ही राजनीतिक है.
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