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Saturday, 16 November, 2024
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राफेल घोटाला मोदी का बोफोर्स नहीं है

राफेल को लेकर विपक्ष के प्रचार में कई सीमाएं हैं- न कोई वीपी सिंह है, न कोई पुख्ता कहानी है, न सबूत, न ही कोई नारा.

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मोदी के कट्टर आलोचक भी अब तक यह नहीं कह रहे हैं कि राफेल घोटाला मोदी के लिए बोफोर्स जैसा है. लेकिन वे मानते हैं कि वे उस तरफ बढ़ रहे हैं जब यह उनके लिए जादुई अस्त्र अथवा ब्रम्हास्त्र साबित हो सकता है, कुछ महीने पहले जो अपने को अजेय समझते थे, उन्हें इसकी मदद से परास्त किया जा सकता है. लेकिन वे मानते हैं कि इसमें अभी कुछ चीजों की कमी है.

पहली, इंडिया टुडे-एक्सिस के सर्वे में सामने आया है कि देश के ग्रामीण इलाकों में ज्यादा लोग राफेल के बारे में नहीं जानते. सर्वे में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में केवल 21 प्रतिशत लोग जानते हैं कि राफेल क्या है. इससे लिए निश्चित तौर पर हम पत्रकारों को दोष दिया जा रहा है.

दूसरी बात, वीपी सिंह जैसा नैतिक ताकत वाला नेता नहीं है जिसके संदेश सुनकर मतदाता राजी हो जाएं. विशेष तौर पर कांग्रेस और राहुल गांधी इसके लिए उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि उन पर बोफोर्स समेत तमाम घोटालों का साया मंडरा रहा है.

विपक्ष, खासकर राहुल गांधी ने तय किया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव प्रचार को राफेल के इर्द गिर्द केंद्रित करेंगे. इससे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और क्रोनिज्म यानी याराना पूंजीवाद के आरोप में मदद मिलेगी. अगर मोदी एक ऐसे बिजनेसमैन के साथ वास्ता बढ़ा सकते हैं जो विवादित है, जिसकी कई कंपनियां संकट में हैं, तो क्या आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे ऐसे बिजनेसमैन से नजदीकी बढ़ाने से इनकार कर देंगे जो ज्यादा सफल और ज्यादा धनवान है? पहले के ‘सूटबूट की सरकार’ के सूत्रीकरण के उलट, उनकी जरूरत है कि राफेल का मुद्दा केंद्र में बना रहे.

विपक्ष इस बात का रोना रोता है कि मीडिया उसके पास नहीं है, रामनाथ गोयनका के इंडियन एक्सप्रेस की तरह कोई अखबार नहीं है जो बोफोर्स काल की तरह जनमत तैयार करे और संसद को हिला दे. राफेल का मसला दो साफ सुथरे व्यक्तित्व- प्रशांत भूषण और अरुण शौरी- पर टिका है.

राहुल इस अश्वमेध यज्ञ के अश्व नहीं हैं और न ही मोदी की बीजेपी में अंदर से अब तक कोई बगावत हुई है. अपना इतिहास पलट कर देखिए. साहसी और विश्वासपात्र जगजीवन राम ने इंदिरा गांधी के खिलाफ और वीपी सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ बगावत की थी, जिसने क्रमश: 1977 और 1988-89 के समीकरण बदल दिए.

यह आशा करना कि किसी जगह से कोई दूसरा वीपी सिंह उभरेगा, अवास्तविक है. क्योंकि पहली बात तो वीपी सिंह की निजी छवि भ्रष्टाचार से मुक्त और त्याग की थी जिन्होंने कैबिनेट में टॉप का पद त्याग दिया था. दूसरे, वे वाजपेयी या मोदी की तरह अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन उन्होंने 30 साल पहले एक जटिल रक्षा सौदे उस जादुई भाषा में लोगों को बताया जिसे वे समझ सकते थे.

वीपी सिंह ने 1987 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था, जहां से राजीव गांधी का ग्राफ नीचे जाना शुरू हुआ. उन्होंने संसद से भी इस्तीफा दे दिया और इलाहाबाद से चुनाव लड़ने का फैसला किया. बोफोर्स में दलाली के आरोप के बादल घिरने के बाद इस सीट से सांसद अमिताभ बच्चन ने इस्तीफा दिया था, इसलिए इस संसदीय सीट का विशेष आकर्षण था. योजना एकदम पुख्ता थी लेकिन उनके दोस्त और दुश्मन दोनों निश्चिंत थे कि वे बोफोर्स को मुद्दा बनाने सफल नहीं होंगे. एक गोपनीय मुद्दे से गांव के गरीब लोग खुद को कैसे जोड़ सकते हैं?

सिंह ने अपने अंदाज में इस समस्या से पार पा लिया. उन्होंने भरी गर्मी में मोटरसाइकिल पर, गले में गमछा लपेट कर, एक राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह प्रचार किया, जैसा योगंद्र यादव आजकल करते हैं. वे गांव के लोगों से सरल सा सवाल पूछते थे. क्या आपको अंदाजा है कि राजीव गांधी ने आपके घर में सेंध लगा दी है?

फिर वे अपने कुरते की जेब से एक माचिस निकालते थे और लोगों को दिखाते थे. इस माचिस को देखो. जब आप अपनी बीड़ी, हुक्का या चूल्हा जलाने के लिए चार आने (25 पैसे) की माचिस खरीदते हैं तो एक चौथाई टैक्स के रूप में सरकार को जाता है. सरकार इस पैसे से स्कूल, अस्पताल, सड़क और नहर बनाती है और सेना के लिए हथियार खरीदती है. यह आपका पैसा है. अगर कोई सेना के लिए हथियार खरीदने के नाम पर इसका कुछ हिस्सा चुरा ले तो क्या यह आपके घर में सेंध लगाना नहीं है?

बोफोर्स का मुद्दा, अंत में जो तथ्य सामने आए, उससे ज्यादा वीपी सिंह के कहानी कौशल का मामला था. उन्होंने कहा, राजीव गांधी का कहना है कि उनको बोफोर्स का प्रमाणपत्र है कि उन्होंने घूस नहीं दिया है. फिर पूछते थे कि क्या यह उस विक्षिप्त की तरह की हरकत नहीं है जो पागलखाने से एक प्रमाणपत्र हासिल कर ले कि वह स्वस्थ है और फिर पूछे कि अगर आपके पास ऐसा प्रमाणपत्र नहीं है तो आप स्वस्थ कैसे हो सकते हैं?

यह बताने के लिए कि केवल राजीव गांधी ने ही यह घूस लिया है, वीपी सिंह एक कहानी सुनाते थे: एक सर्कस में एक शेर था, एक घोड़ा था, एक बैल और एक बिल्ली थी. वे आसपास रहते थे. एक रात किसी ने पिंजड़े खोल दिए. अगली सुबह सर्कस के मालिक को घोड़े और बैल का कंकाल मिला. क्या किसी को शक है कि उन्हें किसने खाया होगा? शेर ने या बिल्ली ने? अगर इतनी बड़ी रकम खाई गई है तो क्या किसी बेचारी बिल्ली ने खाया है? सिर्फ शेर के जैसे राजीव ही खा सकते हैं.

और अंत में वे कांग्रेस की होर्डिंग्स पर लगी राजीव गांधी की मुस्कराती हुई तस्वीर पर तंज करते हुए कहते थे कि मुझे नहीं पता वे किस पर मुस्करा रहे हैं, ‘अपनी चाल पर, हमारे हाल पर, या स्विटजरलैंड के माल पर’. वे कहा करते थे कि मैं यह वादा नहीं कर सकता कि आपके लिए नहर या ट्यूबवेल बनवाऊंगा, लेकिन जिस सूराख से आपका पैसा बह रहा है, उस सूराख को जरूर बंद कर दूंगा.

सिंह की प्रतिभा पर कभी संदेह नहीं किया गया. लेकिन उनके पैंतरे ने इसलिए भी काम किया क्योंकि वह एक मुफीद केस था. बोफोर्स होता या न होता, कांग्रेस अपनी ढलान पर थी.

विपक्ष के पास आज वीपी सिंह नहीं हैं. लेकिन क्या राफेल अब तक कहीं भी वैसी खबर बन सका है जैसा बोफोर्स बना था?

बोफोर्स और राफेल के बीच एक खास अंतर है. बोफोर्स से अलग, राफेल के बारे में हर पक्ष इस बात पर सहमत है कि यह सबसे अच्छे लड़ाकू विमान का सौदा है. क्योंकि इसका चुनाव कांग्रेस ने किया था. दोनों को लेकर आरोप भी अलग हैं. राफेल मामले में आरोप है कि मोदी सरकार 126 की जगह सिर्फ 36 विमान खरीद रही है. बोफोर्स मामले में वीपी सिंह स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि जब सेना के जवानों ने पहली बार बोफोर्स दागा तो इसने बैक फायर किया और अपने ही कई जवानों की जान ले ली. राफेल के बारे में ऐसा कोई नहीं कह सकता.

जैसा कि टीएन निनान ने अपने लेख में कहा है, दूसरा अंतर यह था कि बोफोर्स की तरह राफेल मामले में पुख्ता सबूत नहीं हैं. ओलांद का बयान उस मामले से अलग है जिसमें स्विडिश नेशनल आॅडिट ब्यूरो ने पाया था कि ऐसे फर्जी अकाउंट में पैसे डाले गए हैं जिनका भारत से लिंक था. राफेल में एकमात्र स्वीकार्य आरोप पूंजीपति से जुड़े पक्षपात (क्रोनिज्म) का है. जिस कॉरपोरेट कंपनी का रक्षा क्षेत्र में उत्पादन का कोई अनुभव नहीं है, उसे आॅफसेट का फायदा क्यों दिया जा रहा है? हालांकि, क्रोनिज्म भयंकर है, लेकिन क्या यह पर्याप्त है जिसके आधार पर मोदी के वोटर उनके खिलाफ हो जाएंगे?

यह राफेल को लेकर किए जा रहे प्रचार की सीमाएं हैं. वीपी सिंह प्रतिभाशाली थे, लेकिन उनके पास बहुत जोरदार नारे भी थे: ‘वीपी सिंह का एक सवाल, पैसा खाया कौन दलाल.’ इसने काम किया क्योंकि आप सोचते थे कि वास्तव में पैसा खाया गया है. राफेल मामले में विपक्ष इससे बहुत दूर है.

और अंतिम शिकायत मीडिया की. तब यह बहुत छोटा था लेकिन राजीव गांधी पहले ताकतवर प्रधानमंत्री थे जिनके विध्वंस में मीडिया ने केंद्रीय भूमिका निभाई. आज यह कहना आसान है कि सभी पत्रकारों ने समझौता कर लिया है या मोदी से डरते हैं, इसलिए आप क्या उम्मीद करते हैं?

लेकिन आपके पास यह स्वीकार करने की विनम्रता होनी चाहिए कि आज बोफोर्स के जैसी स्टोरी नहीं है. दूसरा, हो सकता है कि मोदी का ग्राफ गिर रहा हो, लेकिन मोदी अभी उतने अलोकप्रिय नहीं हुए हैं जितने अलोकप्रिय राजीव गांधी 1988 में हुए थे. राजीव ने कई ऐसे कदम उठाए थे जो उन्हें उल्टे पड़े. मोदी पर आरोप अभी वैसा असर नहीं कर रहे हैं. तीसरा, भाजपा में कोई बागी नहीं है. यशवंत सिन्हा, कीर्ति आजाद और शत्रुघ्न सिन्हा वीपी सिंह नहीं हैं. और अंतिम बात, जिन पत्रकारों को बोफोर्स ने घेरना चाहा था, तीन दशक बाद भी उनमें से न तो कोई दोषी पाया गया, न ही कुछ बरामद हुआ. रक्षा घोटालों में संदेह की दीवारें अब और ऊंची हो गई हैं.

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

(यह लेख 09 नवंबर, 2018 को प्रकाशित हुआ था. इसे आज पुन​र्प्रकाशित किया जा रहा है.)

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