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Monday, 27 October, 2025
होमदेशसालों तक ठुकराए जाने और भेदभाव झेलने के बाद ट्रांस टीचर जेन कौशिक को आखिरकार SC से मिला इंसाफ

सालों तक ठुकराए जाने और भेदभाव झेलने के बाद ट्रांस टीचर जेन कौशिक को आखिरकार SC से मिला इंसाफ

स्कूलों में नौकरी ढूंढते वक्त जेन को भेदभाव का सामना करना पड़ा, यहां तक कि जिन संस्थाओं को उनके अधिकारों की रक्षा करनी थी, वे भी असफल रहीं. अब जेन सिस्टम में बदलाव की मांग कर रही हैं.

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नई दिल्ली: कई सालों तक ट्रांसजेंडर होने के कारण ठुकराए जाने और भेदभाव झेलने के बाद टीचर जेन कौशिक को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिला है. कोर्ट ने प्राइवेट स्कूलों और राज्य सरकारों दोनों को उनके अधिकारों की रक्षा न करने के लिए जिम्मेदार ठहराया है.

17 अक्टूबर को आए इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर्स के साथ रोज़गार में होने वाले भेदभाव पर सख्त टिप्पणी की. न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 और 2020 के नियमों को ठीक से लागू करने में नाकाम रहीं, जबकि ये कानून कई सालों से लागू हैं.

कोर्ट ने कहा कि शिकायत निवारण तंत्र, कल्याण बोर्ड और शिकायत अधिकारी न होने के कारण ट्रांसजेंडर समुदाय को दिए गए कानूनी अधिकार सिर्फ “कागज़ी सुरक्षा” बनकर रह गए हैं.

इस केस के केंद्र में हैं जेन कौशिक — जिन्हें सिर्फ उनकी जेंडर आइडेंटिटी के कारण दो प्राइवेट स्कूलों में भेदभाव का सामना करना पड़ा. लंबे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कुल 2 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया — जिसमें केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश और गुजरात सरकार से 50-50 हज़ार रुपये और गुजरात के एक निजी स्कूल से 50 हज़ार रुपये शामिल हैं.

जेन ने दिप्रिंट को बताया, “यूपी के एक स्कूल में एक दिन एक छात्र को मेरी जेंडर आइडेंटिटी का पता चल गया और फिर प्रिंसिपल को भी पता चला. उसी दिन मुझे क्लास लेने से रोक दिया गया और तुरंत निकाल दिया गया. यहां तक कि मुझे हॉस्टल भी छोड़ने को कहा गया, जबकि दिल्ली जाने के लिए कोई ट्रेन नहीं थी. मुझे रात में अकेले बस से लौटना पड़ा — वो बहुत डरावना अनुभव था.”

दिल्ली की रहने वाली और दो मास्टर डिग्रियों (पॉलिटिकल साइंस और इंग्लिश) के साथ बी.एड. करने के बावजूद जेन को बार-बार स्कूलों से रिजेक्शन मिला.

उन्होंने कहा, “जब मैंने दिल्ली के स्कूलों में आवेदन किया और अपनी जेंडर आइडेंटिटी बताई, तो सब चुप हो गए. कुछ एचआर वालों ने साफ कहा कि प्रिंसिपल अब मेरा सीवी देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि मैं ट्रांसजेंडर हूं.”

2023 में जेन को गुजरात के एक स्कूल में टीचर पद के लिए चुना गया था, लेकिन जैसे ही स्कूल को उनकी पहचान का पता चला, उन्हें नौकरी देने से मना कर दिया गया.

जेन ने बताया, “उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि क्या मैं बच्चों पर गलत असर डालूंगी. नौकरी देने की बजाय उन्होंने कहा कि मुझे किसी बड़े शहर में काम करना चाहिए.”

बार-बार के इस भेदभाव ने जेन को मानसिक रूप से झकझोर दिया. उन्होंने कहा कि वे अब भी डिप्रेशन और एंग्जायटी के इलाज के लिए मनोचिकित्सक से मदद ले रही हैं.

संस्थागत नाकामी

सुप्रीम कोर्ट जाने से पहले जेन कौशिक ने कई अहम अधिकारिक संस्थाओं से मदद मांगी थी—जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद, लेकिन उन्होंने बताया कि इन समितियों ने उनकी गवाही को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया और स्कूलों के पक्ष में झुकाव दिखाया.

उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय महिला आयोग की एक समिति ने तो मुझसे यह तक नहीं पूछा कि मेरे साथ क्या भेदभाव हुआ. उन्होंने सिर्फ स्कूल के दिए गए बयानों पर भरोसा कर लिया.”

पुलिस से भी उन्हें कोई ठोस मदद नहीं मिली. उन्होंने कहा, “मुझे जब नौकरी से निकाला गया, तब मैं चाहती तो पुलिस को बुला सकती थी, लेकिन एक ट्रांसजेंडर महिला होने के नाते मुझे डर था कि वे असंवेदनशील व्यवहार करेंगे या अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करेंगे. बाद में दिल्ली महिला आयोग के मार्गदर्शन से ही मेरी शिकायत उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में दर्ज हो सकी.”

सुप्रीम कोर्ट का दो लाख रुपये मुआवज़ा आदेश भले ही उनके संघर्ष को मान्यता देता है, लेकिन जेन का कहना है कि यह रकम उनके आर्थिक और मानसिक नुकसान की पूरी भरपाई नहीं कर सकती.

उन्होंने कहा, “मैं छह-सात महीने तक घर पर रही, जबकि मेरी तनख्वाह 45,000 रुपये महीना थी. यह रकम मेरे मानसिक आघात और करियर पर पड़े असर की तुलना में कुछ भी नहीं है.”

जेन ने इस मामले को सिर्फ अपने व्यक्तिगत संघर्ष से आगे बढ़ाकर एक बड़े मुद्दे के रूप में भी रखा.

उन्होंने कहा, “NALSA 2014 (सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला जिसने ट्रांसजेंडर लोगों को ‘तीसरा लिंग’ माना), ट्रांसजेंडर पर्सन्स एक्ट 2019 और 2020 के नियमों के बावजूद इनका सही तरीके से लागू न होना सबसे बड़ी समस्या है. जब तक राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, भेदभाव यूं ही जारी रहेगा. ट्रांसजेंडर लोगों को आज भी दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह ट्रीट किया जाता है.”

जेन ने कहा, “यह सिर्फ पैसों का मामला नहीं है. यह दिखाई देने, सम्मान और प्रतिनिधित्व का सवाल है—स्कूलों, सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में. जब तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और कानूनों को पूरी तरह लागू नहीं किया जाएगा, तब तक कुछ नहीं बदलेगा.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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