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Sunday, 29 September, 2024
होमदेशशांतिनिकेतन में कोरोनावायरस के कारण नहीं मनाई जाएगी बंगाल की विश्वप्रसिद्ध होली 'दोल उत्सव'

शांतिनिकेतन में कोरोनावायरस के कारण नहीं मनाई जाएगी बंगाल की विश्वप्रसिद्ध होली ‘दोल उत्सव’

देश भर में मनाई जाने वाली होली जहां होलिका, प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप के पौराणिक मिथक से जुडी है वहीं बंगाल का दोल राधा और कृष्ण के प्रेम के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है.

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कोलकाता: बंगाल जो आज सोचता है, वह बाकी देश कल सोचता है. ऐसा कहा जाता है. यहां देश के बाकी हिस्सों से एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है. बंगाल की होली की कई ऐसी खासियतें हैं जो इसे देश के दूसरे हिस्सों में मनाई जाने वाली होली से अलग करती हैं. पूरे देश में जहां रंगों का यह त्योहार होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है वहीं बंगाल में इसे फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ही मनाया जाता है. राज्य में इस त्योहार को होली नहीं, बल्कि दोल उत्सव या दोल जात्रा कहा जाता है. एक अंतर यह भी है कि देश भर में मनाई जाने वाली होली जहां होलिका, प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप के पौराणिक मिथक से जुडी है वहीं बंगाल का दोल राधा और कृष्ण के प्रेम के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है.

लेकिन इस साल कोरोनावायरस का असर बंगाल की होली पर भी नज़र आ रहा है. शांतिनिकेतन में कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर की ओर से स्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय में बसंतोत्सव दशकों से बिना नागा हर साल होली के मौके पर आयोजित होता रहा है. यह परंपरा टैगोर ने ही शुरू की थी. लेकिन अबकी कोरोना के डर से विश्वविद्यालय प्रबंधन ने नौ मार्च को इसे आयोजित नहीं करने का फैसला किया है. इस आयोजन के दौरान हजारों की तादाद में देशी-विदेशी लोग जुटते रहे हैं.

वहीं बंगाल में होली या दोल का त्योहार राधा और कृष्ण के प्रेम के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है. बांग्ला कैलेंडर का आखिरी त्योहार होने की वजह से राज्य में इसे बसंत के स्वागत के तौर पर भी मनाया जाता है. यानी बंगाल में दोल उत्सव महज पौराणिक कथाओं पर आधारित एक त्योहार ही नहीं बल्कि बसंत के स्वागत और रबी की फसल कटने का आनंद जताने का उत्सव भी है. दोल का मतलब झूला होता है और जात्रा का मतलब यात्रा. यहां यह त्योहार अपने शाब्दिक अर्थों में मनाया जाता है. महिलाएं इस दिन लाल किनारे वाली सफेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं. प्रभात फेरी के दौरान झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रखी जाती है और गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं. दोल जात्रा के दौरान ज्यादातर चैतन्य महाप्रभु की ओर रचित भक्तिरस के गीत भी गाए और बजाए जाते हैं. प्रभात फेरी के दौरान और इसके बाद अबीर और रंगों से होली खेली जाती है.

दोल उत्सव मनाती बंगाल की महिलाएं | फोटो : प्रभाकर मणि तिवारी

माना जाता है कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन राधा जब अपनी सखियों के साथ झूला झूल रही थी तो भगवान कृष्ण ने चुपके से उनके चेहरे पर फाग या गुलाल मल कर पहली बार राधा के प्रति अपने प्रेम का इजहार किया था. इस खुशी में उस दिन उन दोनों यानी राधा-कृष्ण को एक रंग-बिरंगी पालकी में बिठा कर पूरे शहर में घुमाया गया था. बंगाल का दोल उत्सव उसी परंपरा पर आधारित है.


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पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहां मिली-जुली आबादी वाले इलाकों में मुसलमान और ईसाई तबके के लोग भी हिंदुओं के साथ होली खेलते हैं. इन दोनों समुदाय के लोग राधा-कृष्ण की पूजा से भले दूर रहते हों, रंग और अबीर लगवाने में उनको कोई दिक्क़त नहीं होती. कोलकाता का यही चरित्र यहां की होली को सही मायने में सांप्रदायिक सद्भाव का उत्सव बनाता है.

देश के बाक़ी हिस्सों की तरह, बंगाल में भी दोल उत्सव के दिन नाना प्रकार के पकवान बनते हैं. इनमें पारंपरिक मिठाई संदेश और रसगुल्ला के अलावा नारियल से बनी चीज़ों की प्रधानता होती है. समाजशास्त्री डा. वीरेन कुमार लाहिड़ी बताते हैं, ‘पूरे देश में होली का त्योहार प्रेम और भाईचारे के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है. लेकिन बंगाल का दोल उत्सव उससे भी एक कदम आगे है. यह महज एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति का उत्सव भी है. यही वजह है कि जात-पात और धर्म से ऊपर उठते हुए राज्य के विभिन्न हिस्सों में कई गैर-हिंदू आदिवासी समुदाय भी अपने-अपने तरीके से इस त्योहार का पालन करते हैं.’ वह कहते हैं कि दोल उत्सव बांग्ला समाज की नसों में गहरा रचा-बसा है. अब एकल परिवारों की तादाद बढ़ने से होली का स्वरूप कुछ बदला जरूर है. लेकिन दोल उत्सव में अब भी वही मिठास है, जिससे मन झूले की तरह डोलने लगता है.

शांतिनिकेतन की होली का जिक्र किए बिना दोल उत्सव की चर्चा अधूरी ही रह जाएगी. पश्चिम बंगाल में बीरभूम जिले के शांतिनिकेतन में कविगुरु रबींद्रनाथ ठाकुर ने बेहतर शिक्षा मुहैया कराने के लिए विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. लेकिन यह विश्वविद्यालय दोल के मौके पर बसंतोत्सव के आयोजन की वजह से पूरी दुनिया में अपनी खास जगह बना चुका है. रबींद्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले बसंत उत्सव की परंपरा शुरू की थी. विश्वविद्यालय परिसर में इस अनूठे आयोजन का गवाह और हिस्सा बनने के लिए हर साल देश-विदेश से यहां भारी भीड़ जुटती रही है. लेकिन कोरोना वायरस के आतंक की वजह से अबकी पहली बार विश्वविद्यालय प्रबंधन ने बसंतोत्सव का आयोजन नहीं करने का फैसला किया है. यही नहीं, परिसर में होली खेलने पर भी पाबंदी लगा दी गई है.


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कोलकाता के जोड़ासांको स्थित रबींद्र भारती विश्वविद्यालय में भी शांतिनिकेतन की तर्ज पर ही बसंत उत्सव का आयोजन किया जाता है. अंतर यही है कि यहां होली के दो-तीन दिनों पहले से ही इसका आयोजन शुरू हो जाता है. यहां पहली बार वर्ष 1962 में दोल और बसंत उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई थी जो अब तक जस की तस है. इस दौरान नाटक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस दौरान पूरे परिसर में कविगुरू के गीत गूंजते रहते हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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