जलवायु परिवर्तन का मुद्दा पर्यावरण दिवस के साथ ही तब ज्यादा जोर पकड़ता है जब गर्मी चरम पर होती है. इत्तफाक से ये दोनों ही मौके मई-जून की गर्मी के समय होते हैं. इसी वक्त सबसे ज्यादा पेड़ लगाने की याद आती है, पेयजल से लेकर नदियों के सूखने और पहाड़ों पर आग की चिंताएं सताती हैं. लेकिन वैश्विक स्तर पर ये मामला इतना सरल नहीं है. इस बहाने घनी साजिशों से पृथ्वी घिरी हुई सी मालूम देती है. दो खेमे हैं जो ज्ञान-विज्ञान, तर्क-कुतर्क, आंकड़े और शोध से एक दूसरे को पटककर परास्त करने को आस्तीनें चढ़ाए हुए हैं. जबकि सबसे असहाय या तो पृथ्वी है या फिर वे प्राणी जिनको इन साजिशों की बलि चढऩा है या फिर खुद ही फैसला करने को देर-सबेर मैदान में उतरना है.
भारत में जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर कोई उल्लेखनीय खेमेबंदी नहीं है. हर तरह की विचारधारा वाले पर्यावरण को बचाने की हिमायत करते हैं. इसके उलट विकसित देशों में इस मुद्दे पर बहस न सिर्फ तीखी है, बल्कि सत्ता के उलट-पुलट होने की नौबत भी इस मुद्दे पर शुरू हो गई है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रवाद ‘अमेरिका फर्स्ट’ इस मुद्दे को इस कदर उछाल चुका है कि तमाम लोग उलझन में पड़ गए हैं कि आखिर सच है क्या?
ट्रंप समर्थकों की ओर से भी ढेरों शोध, तर्क और आंकड़े पेश हो रहे हैं जिनको झुठलाना आसान नहीं है. इस खेमे का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग एक छलावा है और रॉकफेलर जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों से फंड हासिल करके खाए-अघाए वामपंथियों की साजिश है. ऐसा करके ये वामपंथी वैश्विक सरकार बनाने की जुगत में हैं जिससे पूरी दुनिया को अपने हिसाब से नियंत्रित कर सकें.
बात यहीं नहीं रुकती, वे कहते हैं बाकायदा सोची समझी चाल के तहत 22 अप्रैल का दिन छांटकर पृथ्वी दिवस मनाने को तय किया गया, जिस दिन लेनिन का जन्मदिन होता है. उनका दावा है कि दुनियाभर में पसरे ऐसे वामपंथी समूहों को मिलने वाली वित्तीय सहायता के सबूत हैं. हालांकि जब एक ऐसे समर्थक से साक्ष्य उपलब्ध कराने को कहा तो जवाब मिला कि ये आपको इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध नहीं हो पाएगा.
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इसी बात को सक्रिय वामपंथी समूह दूसरे तरीके से व्याख्या करते हैं. उनका कहना है कि बहराष्ट्रीय निगमों के फंड से चलने वाले एनजीओ दुनिया को पूंजीवाद से संघर्ष से भटका रहे हैं. शोषण-उत्पीड़न के साथ पृथ्वी के पूंजीवादी विनाश पर पर्दा डालने की कोशिश हो रही है, जो कि बहुराष्ट्रीय निगमों की साजिश है. ऐसा संभव है कि कुछ बहुराष्ट्रीय निगम मिलकर पूरी दुनिया को मुट्ठी में करके संसाधनों की लूटपाट की योजना बना रहे हों. इससे इनकार नहीं है कि छद्म वामपंथी बहुराष्ट्रीय निगमों की साजिशों में शामिल हों.
जलवायु परिवर्तन की चिंता आखिर कितनी बड़ी
ये तो रहा वैचारिक वार-पलटवार. फिलहाल गहराई से चर्चा इस बात पर होना ही चाहिए कि वास्तव में ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज की फिक्र कितनी बड़ी है या फिर कितनी बड़ी होना चाहिए. इसी सिलसिले में पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता हो चुका है जिसमें लगभग 200 देश शामिल हो चुके हैं, लेकिन अमेरिका अलग हो चुका है. समझौते में शामिल देश तो ये मान ही रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से भविष्य खतरे में पड़ेगा और इसलिए अभी से हमें वे सभी कदम उठाने चाहिए जो कार्बन उत्सर्जन को कम करके पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करें या कम करें. ऐसी खबरें आती ही रहती हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और ऐसा हुआ तो समुद्र का जलस्तर बहुत बढ़ जाएगा. कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में इस कदर तैर रही है कि सांस लेना मुहाल हो गया है.
ताजा खबर ये आई है कि इस सप्ताह के अंत में आर्कटिक महासागर के पास तापमान 84 डिग्री फारेनहाइट था क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. हवाई के मौना लोआ वेधशाला ने हाल में आकलन किया है कि बीते आठ लाख साल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मौजूदगी सबसे ज्यादा है. औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर लगभग 50 प्रतिशत बढ़ गया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है जो हाल के दशकों में जलवायु के गर्म होने का प्राथमिक कारण है.
इसके उलट दूसरे तथ्य और आंकड़े भी सामने आ रहे हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रचार को छलावा बताने वाले विद्वान कह रहे हैं कि कार्बन डाइ ऑक्साइड की वातावरण में खासी कमी आई है जो कि चिंताजनक है. इस गैस की बदौलत ही पेड़-पौधे प्रकाश संशलेषण करके भोजन हासिल करते हैं और मानव समाज को ऑक्सीजन देते हैं. कार्बन डाइ ऑक्साइड की कमी होने से मानव समाज और अन्य प्राणियों के जीवन पर संकट मंडरा रहा है.
कार्बन डाइ ऑक्साइड से नफा या नुकसान
किसी भी खेमेबंदी से अलग जलवायु वैज्ञानिक विजय जयराज का कहना है कि कैलिफोर्निया में मेरा चचेरा भाई टेस्ला खरीदने के लिए उत्साहित है. इसलिए कि यह पर्यावरण के अनुकूल है. भारत में मेरे दोस्त भी इलेक्ट्रिक कार खरीदने के लिए उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन्हें ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में मदद मिलेगी.
लगभग हर पर्यावरण नीति अब कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) उत्सर्जन को कम करने पर जोर दे रही है. लेकिन एक जलवायु वैज्ञानिक के रूप में पक्ष विपक्ष के नजरिए से शोध में पाया कि सीओ टू के उत्सर्जन से वास्तव में ग्रह को फायदा होगा, नुकसान नहीं.
लिटिल आइस एज के बाद, 18 वीं शताब्दी में वर्तमान वार्मिंग की प्रवृत्ति शुरू हुई. सीओ टू वार्मिंग में योगदान देता है. लेकिन यह सिद्धांत कि यह प्रमुख कारण है, गलत है. असल में सूर्य और महासागर प्रमुख भूमिका निभाते हैं. 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति से पहले मानव गतिविधि से सीओ टू उत्सर्जन लगभग नहीं था. सीओ टू वार्मिंग का प्राथमिक चालक है, तो इससे पहले कोई वार्मिंग नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन कई वार्मिंग की घटनाएं हुईं.
दो पिछले 2000 वर्षों में हुए रोमन वार्म पीरियड और मध्यकालीन वार्म पीरियड ने मानव सभ्यता को काफी नुकसान पहुंचाया. 17 वीं शताब्दी के लिटिल आइस एज से एकमात्र वैश्विक स्तर की जलवायु से संबंधित क्षति हुई. हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं है कि बढ़ते तापमान से भविष्य में गंभीर वैश्विक स्तर की समस्याएं पैदा होंगी.
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सीओ टू उत्सर्जन से हमें लाभ हुआ है, न कि नुकसान. अधिक सीओ 2 के साथ पौधे बेहतर बढ़ते हैं. वे पौधों को उन जगहों पर बढऩे में सक्षम बनाते हैं जहां पहले बहुत ठंडक थी. बेहतर प्रकाश संश्लेषण उन्हें रोगों और कीटों का बेहतर विरोध करने में सक्षम बनाती है. सीओ टू उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन के दहन का अपरिहार्य उपोत्पाद है, प्रदूषण नहीं. ये हमें कूलिंग से बचाने में मदद करती है. विकासशील देशों में गरीबी को कम करने के लिए जीवाश्म ईंधन की जरूरत और संभावनाएं हैं.
ग्लोबल वार्मिंग नहीं मिनी आइस एज में दाखिल हो रही धरती
जलवायु परिवर्तन आंदोलन के विरोधी खेमे का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग को बेवजह मुद्दा बनाया जा रहा है जबकि दशकों का रिकॉर्ड बता रहा है कि ऐसा कुछ भी नहीं है. मौजूदा समय का तापमान वर्ष 1930 के आसपास जैसा है. मौसम चक्र में ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं. सच बात तो ये है कि मौसम में बदलाव के लिए मुख्य तौर पर सूर्य की हलचल जिम्मेदार है. सूर्य की मौजूदा हलचल पर ताजा शोध ये है कि पृथ्वी एक छोटे हिमयुग की ओर रुख कर रही है. मतलब हकीकत ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रचार के ठीक उलट है.
वेबसाइट ‘स्पेस वेदर’ का कहना है कि सूरज इस साल 79 दिनों तक बिना रोशनी के रहा है, वर्ष 2009 की तरह. इसका अध्ययन सूरज पर धब्बे के आधार पर होता है. कुछ ऐसे कि भट्टी से लपटें न निकलें, हालांकि आग रहे. बताया जा रहा है कि ग्राउंड-आधारित न्यूट्रॉन मॉनिटर और ऊंचाई वाले कॉस्मिक किरण गुब्बारे कॉस्मिक किरणों में नई वृद्धि दर्ज कर रहे हैं. सौर चक्र के इस चरण के दौरान सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र और सौर हवा कमजोर हो जाती है.
जैसी आशंका है, वैसा नजारा 1645 और 1715 के बीच हुआ था. तब भोजन की कमी भी हुई. साथ ही न्यूनतम वैश्विक तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की कमी देखी गई. नासा का कहना है कि हम जिस मौसम को महसूस करते हैं वह सूर्य के चक्र में छोटे बदलावों से प्रभावित होते हैं.
नासा के लैंगली रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक मार्टिन मिलिंकक ने चेतावनी दी है कि वातावरण में शीतलन प्रवृत्ति स्पष्ट है. पृथ्वी की सतह के ऊपर, अंतरिक्ष के किनारे की ओर वातावरण गर्म ऊर्जा खो रहा है. यही रुझान जारी रहता है, तो इसका मतलब जल्द ही ठंड का रिकॉर्ड कायम होगा. इंग्लैंड में सनस्पॉट गतिविधि और सर्दियों के बीच संबंध का विश्लेषण किया गया. शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान में कमी दुनियाभर में नहीं थी, लेकिन विशिष्ट क्षेत्रों में स्थानीय थी. भारत पर नजर डालें तो बर्फ देरी तक उत्तराखंड के पहाड़ों में पड़ी, संभवता ये भी इसी प्रभाव से हो.
बहरहाल, ऐसा क्यों होता है, इस पर वैज्ञानिक ठोस बात कहने की स्थिति में नहीं हैं. मध्ययुग में मिनी हिमयुग के दौरान बड़े पैमाने पर ज्वालामुखी विस्फोट हुए. जिसके बाद संभवत: पृथ्वी के तापमान में भी कमी आई थी. विशिष्ट उथल-पुथल होगी, ये तय है.
महासागरों का जलस्तर नहीं बढ़ रहा
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को धोखा बताने वालों का शोध आधारित ये भी दावा है कि दस अंटार्कटिक कोस्टल स्टेशनों पर बीते दस वर्षों में वॉर्मिंग का एक भी संकेत नहीं मिला है. कुछ जगह तो तीन दशक से वॉर्मिंग की जगह शीत का संकेत मिला है. प्रमुख ज्वालामुखी भी ठंडे पड़े हैं. इसके विपरीत हो ये रहा है कि धर्मग्रंथों में वर्णित प्रलय सरीखी कल्पना से लोगों को डराने की कोशिशें हो रही हैं और ग्रेटा थुनबर्ग नाम की किशोरी को मसीहा के तौर पर स्थापित किया जा रहा है.
ऐसा खूब प्रचारित किया जा रहा है कि ग्लेशियर पिघलने या ध्रुवों की बर्फ पिघलने पर समुद्र का जलस्तर ऊंचा हो रहा है. जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. सच्चाई ये है कि गलत धारणा बनाने के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने समुद्र स्तर का डेटा बदल दिया. ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं की एक टीम ने इसका खुलासा किया है. उन्होंने पाया कि हिंद महासागर स्तर स्थिर है. डॉ.अल्बर्ट पार्कर और डॉ. क्लिफोर्ड ओलेर ने हाल ही में अर्थ सिस्टम एंड एनवायरनमेंट नामक पत्रिका में ये आश्चर्यजनक शोध प्रकाशित किया. नासा की एक हालिया रिपोर्ट ने भी दिखाया कि समुद्र का स्तर वास्तव में पिछले कुछ वर्षों से नीचे की ओर जा रहा है.
ये सभी शोध और आंकड़ें दिमाग को खोलने वाले हैं. आसपास का अनुभव क्या कहता है और आंकड़े क्या कहते हैं इसको समझने की जरूरत है. ग्लोबल वार्मिंग का प्रचार सच है या झूठ इसको भी समझा जाए, लेकिन ये सच है कि मनुष्य प्रकृति का मामूली हिस्सा है और इस हिस्से ने प्रकृति के विनाश की कोशिश की तो उसका बचना मुमकिन नहीं है.
(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)