नई दिल्ली: वुमेन हेल्प डेस्क (डब्ल्यूएचडी) वाले पुलिस स्टेशनों में तैनात अधिकारियों द्वारा महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों की रिपोर्ट दर्ज करने की अधिक संभावना होती है, खासकर पुरुष प्रधान और संसाधनों की कमी से जूझ रहे सामाजिक वातावरण में. यह बात भारत में पुलिस सुधार पर रैंडम आधार पर किए गए सबसे बड़े अध्ययन में सामने आई है.
अमेरिका में वर्जीनिया यूनिवर्सिटी और ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में तर्क दिया गया है कि सिर्फ महिला अधिकारियों को पुलिस बल में शामिल करना काफी नहीं है. बल्कि पुरुष और महिला अधिकारियों में लिंग आधारित हिंसा को लेकर संवेदनशील नजरिए का होना बेहद जरूरी है. अध्ययन के निष्कर्ष गुरुवार को पीयर-रिव्यू अकादमिक जर्नल साइंस में प्रकाशित हुए थे.
मध्य प्रदेश के 180 पुलिस स्टेशनों पर फोकस करते हुए, शोधकर्ताओं ने सुधार उपायों को ध्यान में रखते हुए रैंडम आधार पर यह अध्ययन किया था. टीम ने राज्य को चुना क्योंकि यह सामाजिक-आर्थिक संकेतकों और लिंग मानदंडों के मामले में उत्तरी भारत के अधिकांश हिस्सों के समान है.
अध्ययन में कहा गया है कि लिंग आधारित हिंसा के मामलों पर काबू पाने के लिए कानूनी तौर पर मामले दर्ज होने बेहद जरूरी हैं. लेकिन पुलिस के प्रति विश्वास की कमी और समाज में बदनामी के डर से ऐसे मामलों की रिपोर्ट काफी कम की जाती है.
इसके साथ ही, पुलिस की गैर-जिम्मेदार व्यवहार इस तरह के अपराध की घटनाओं और इन अपराधों को औपचारिक रूप से दर्ज करने की दर के बीच एक बड़ा अंतर पैदा करता है.
अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने डब्ल्यूएचडी की वजह से मामलों पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया. यहां कर्मचारियों को लिंग-आधारित मामलों के प्रति संवेदनशील होने के लिए प्रशिक्षित किया गया था. और साथ ही कानूनी सहायता, परामर्श, आश्रय, पुनर्वास और प्रशिक्षण की सुविधा के लिए वकीलों, मनोवैज्ञानिकों और गैर सरकारी संगठनों का एक सूचीबद्ध पैनल भी है.
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महिला हेल्प डेस्क की वजह से एफआईआर, डीआईआर में वृद्धि
अध्ययन में कहा गया है कि लिंग आधारित हिंसा को रोकने में मदद करने के लिए अक्सर लिंग-लक्षित पुलिस सुधारों की बात कही जाती है. लेकिन उनकी प्रभावशीलता के सबूत मिले-जुले रहते हैं.
शोधकर्ताओं ने पांच स्रोतों से डेटा एकत्र किया. इनमें अध्ययन के लिए मूल्यांकन किए गए पुलिस स्टेशनों पर मई 2018 और मार्च 2020 के बीच दर्ज अपराधों पर प्रशासनिक डेटा, इन पुलिस स्टेशनों में लगे सीसीटीवी डेटा, यहां कंप्लेंट दर्ज कराने आये लोगों, यहां के कर्मचारियों और सुरक्षा, राय और पुलिस के साथ संपर्क को लेकर नागरिकों का सर्वे शामिल था.
शोधकर्ताओं ने बिना डब्ल्यूएचडी वाले पुलिस स्टेशनों के डेटा की तुलना की. डब्ल्यूएचडी वाले पुलिस स्टेशन पूरी तरह से महिलाओं द्वारा चलाए जाते हैं. जबकि अन्य बाकी पुलिस स्टेशनों में महिला और पुरुष दोनों कर्मचारी तैनात होते हैं.
निष्कर्ष बताते हैं कि संसाधन की कमी और पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं के मामलों पर फोकस करने वाले प्रयास, पुलिस अधिकारियों को महिलाओं की सुरक्षा चिंताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकते हैं. अध्ययन बताता है कि 2018 और 2020 के बीच एफआईआर और घरेलू घटना रिपोर्ट (डीआईआर) दोनों मामलों में दर्ज किए गए मामलों की उच्च संख्या को देखा जा सकता है.
भारत में घरेलू हिंसा को एक डीआईआर में दर्ज किया जा सकता है. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (पीडब्ल्यूडीवीए)के तहत महिला अगर घरेलू हिंसा का शिकार है तो वह इसके खिलाफ आवाज उठा सकती है और पुलिस में इसकी शिकायत भी दर्ज करा सकती है. डीआईआर दाखिल करने के बाद नागरिक कार्यवाही शुरू की जाती है और मामला सामाजिक सेवाओं के लिए पास भेज दिया जाता है. पीड़ित के पास प्रोटेक्शन ऑर्डर और आर्थिक सहायता तक पहुंच का अधिकार होता है और मामले में आपराधिक कार्रवाई भी हो सकती है.पुलिस थानों में दर्ज की जाने वाली एफआईआर के विपरीत डीआईआर स्थानीय मजिस्ट्रेट के पास दायर की जाती है.
अध्ययन में कहा गया है कि डब्ल्यूएटडी की ट्रेनिंग के जरिए अधिकारियों को डीआईआर के बारे में पता चलता है और अन्य वह राज्य और नागरिक समाज एजेंसियों के साथ समन्वय करना सीखते हैं.
शोधकर्ताओं ने पाया कि एफआईआर दर्ज कराने में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए अतिरिक्त महिला अधिकारियों की उपस्थिति महत्वपूर्ण है. लेखक लिखते है कि यह लिंग-आधारित प्रभाव एफआईआर में दिखाई देता है लेकिन डीआईआर के साथ ऐसा नहीं है.
उनका सुझाव है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि डीआईआर के विपरीत एक प्राथमिकी अपने आप ही एक आपराधिक मामला शुरू कर देती है, जिसमें जांच और अदालती कार्यवाही के लिए पुलिस के समय की जरूरत होती है.
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‘डब्ल्यूएचडी महिलाओं के मामलों पर काम करने में मदद करते हैं’
अध्ययन में पाया गया कि महिला पुलिस अधिकारी डब्ल्यूएचडी ट्रेनिंग पर खासा ध्यान देती है.
लेखक लिखते हैं, ‘… डब्ल्यूएचडी ने महिलाओं के मामलों को एक महत्वपूर्ण काम के रूप में सामने लाने में मदद की. क्योंकि उन्हें अन्य अपराध रोकथाम कार्यों की तुलना में कम महत्व का माना जाता है. हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि डिस्क्रिप्टिव रिप्रजेंटेशन मायने रखता है. महिला अधिकारियों ने हेल्प डेस्क के प्रभाव को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’
अध्ययन में पुलिस-केंद्रित सुधारों की सीमाओं पर भी प्रकाश डाला गया.
पहला, प्रशिक्षण के बावजूद पुलिस के बीच के लैंगिक दृष्टिकोण को बदलना मुश्किल है, लेकिन महिला अधिकारी ने इन्हें काफी हद तक समझा.
दूसरा, इस तरह के अपराधों की रिपोर्ट करने वाली महिलाओं के सामने अभी भी कई बाधाएं हैं. नागरिक सर्वे से पता चला है कि केवल 10 प्रतिशत महिलाएं ही डब्ल्यूएचडी के बारे में जानती हैं.
अध्ययन में यह भी कहा गया है कि डब्ल्यूएचडी ने समाज में पैठ बना चुके उस सामाजिक और आर्थिक ढांचे को कम करने का काम किया है जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देता है और न्याय तक उनकी पहुंच को रोकता है. शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि लिंग आधारित हिंसा को रोकने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत होती है जो पुलिस सुधारों से परे हो.
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