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Tuesday, 19 November, 2024
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पहाड़ियों को ST का दर्जा दिया जाना तय होने के साथ J&K के गुर्जर, बकरवालों को सता रहा उपेक्षा का डर

पिछले हफ्ते जम्मू-कश्मीर दौरे के दौरान अमित शाह ने पहाड़ियों के लिए एसटी श्रेणी में आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन गुर्जरों और बकरवालों को अब डर सता रहा है कि इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ सकती है, खासकर तब जब उनमें कई लोगों के पास अभी गुजर-बसर के लायक जरूरी सुविधाएं भी नहीं है.

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बारामूला/अनंतनाग: 14 साल की सबरीना अपने घर के एक अंधेरे कोने में गंदे कपड़ों के ढेर में कुछ खंगाल रही हैं. थोड़ी देर बाद वह हार मानकर पड़ोस में रहने वाली अपने दोस्त के पास दौड़ कर जाती हैं, और उसके कान में कुछ फुसफुसाती हैं. इसके बाद दोनों लड़कियां पास के जंगल में जाती हैं, जहां वे आस-पास के गांवों की कश्मीरी महिलाओं द्वारा फेंके गए कपड़े के टुकड़ों को भी खंगालती हैं. उन्हें बहुत कुछ मिल जाता है, जो इस महीने के मासिक धर्म के ख़त्म होने तक के लिए सबरीना की जरूरत के हिसाब से पर्याप्त है.

सबरीना की सहेली उसे सलाह देती है, ‘जाओ, अब लेट जाओ ताकि तुम्हें फिर से शौच की इच्छा न हो.’ ‘शौचालय’ का इस्तेमाल करने का मतलब है गांव से दूर एक जंगल के एक खुले क्षेत्र तक 30 मिनट तक चलना – यह सबसे अच्छे हालात में भी परेशान करने वाला होता है, और इससे भी ज्यादा परेशानी तब होती है जब वह अपनी मासिक धर्म वाले समय में हो.

कुछ ही मीटर की दूरी पर, मोहम्मद राजा रफीक लकड़ी के टुकड़ों को छांटने में लगे हैं. वह आग जलाने की तैयारी कर रहे हैं, क्योंकि अंधेरा हो रहा है. उनका 10 साल का बेटा दिन में जंगल से लकड़ियां लेकर आया था, जो उसके दैनिक कामों में से एक है.

जम्मू और कश्मीर के पहलगाम के मामल इलाके – जो एक चट्टानी और गाड़ियों के चलने के लायक नहीं माने जाने वाली सड़क पर 15 मिनट की पैदल चढ़ाई वाला स्थान हैं – में रहने वाले 400 के आसपास की संख्या वाले गुर्जरों के लिए बहुत थोड़ी ही बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं.


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मामल की गुर्जर बस्ती में सबरीना (सबसे बाएं) जैसी लड़कियों में मासिक धर्म के दौरान सफाई की कमी है. वे आमतौर पर जंगल में छोड़े गए कपड़े के स्क्रैप पर निर्भर रहते हैं | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

बच्चे स्कूल नहीं जाते क्योंकि यह बहुत दूर स्थित है और टाटा सूमो जो उन्हें वहां ढो कर ले जा सकती है 40 रुपये प्रति सवारी किराया वसूलती है, जिसका खर्च वे नहीं उठा सकते. यहां के बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त एक मोबाइल (घुमन्तू) शिक्षक पिछले छह माह से दिखा ही नहीं है.

पहलगाम के अन्य हिस्सों में भी यही हालात है. अनंतनाग जिले में स्थित इस इलाके में गुर्जरों, जो एक अनुसूचित जनजाति (एसटी) के तहत आने वाले समुदाय हैं, की काफी आबादी है.

अब, यहां कई लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि विकास को उन तक पहुंचने में और भी अधिक समय लगेगा.

उनका मानना है कि मोदी सरकार ने पहाड़ी समुदाय के लिए आरक्षण की घोषणा करके जीरो सम गेम (ऐसी स्थिति जिसमें एक व्यक्ति या समूह किसी अन्य व्यक्ति या समूह को खोने के कारण ही कुछ पा सकता है) खेल शुरू कर दिया है.

जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले हफ्ते की अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान इस कदम की घोषणा की थी तो पहाड़ियों को इस बात की बहुत खुशी हुई कि उन्हें अंततः एसटी का दर्जा मिल सकता है, जो गुर्जर और बकरवाल समुदायों को तीन दशक से अधिक समय पहले दिया गया था.

इन सभी तीन गैर-कश्मीरी भाषी समुदायों में हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग शामिल हैं, और वे अनंतनाग और बारामूला जिलों के अलावा पीर पंजाल क्षेत्र में केंद्रित हैं.

हालांकि, पहाड़ी लोगों का कहना है कि उनके लिए आरक्षण ‘जरुरी’ है और यह उन्हें गुर्जरों और बकरवालों के समान ही अवसर प्रदान करेगा, मगर बाद वाले दो समुदायों के वर्गों को यकीन है कि यह अंततः उनको की घाटा पहुंचाएगा, भले ही शाह ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस मामले में ऐसा नहीं होगा.

कई लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि यह कदम राजनीति से प्रेरित है; खासकर यह देखते हुए कि जम्मू-कश्मीर में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने की संभावना है.

‘हमारे ही हिस्से में सेंध लगाएंगे पहाड़ी’

सभी सामाजिक वर्गों के गुर्जरों का मानना है कि यदि पहाड़ी लोगों के लिए आरक्षण लागू किया जाता है तो उन्हें इसका नुकसान होगा.

एक तरफ जहां गुर्जर समुदाय के उन्नतिशील तबके के सदस्य – कॉलेज के छात्र, सरकारी नौकरी धारक, स्थानीय नेता आदि – सोचते हैं कि पहाड़ी लोगों के लिए आरक्षण ‘हमारे हिस्से के अवसरों को कम कर देगा’, वहीँ जो गुर्जर दूरदराज के इलाकों में घोर गरीबी के बीच रहते हैं उन्हें लगता है कि उन्हें विकास क्रम में और भी पीछे धकेल दिया जाएगा.

अनंतनाग जिला विकास परिषद, एक स्थानीय शासी निकाय जिसे केंद्र सरकार द्वारा साल 2020 में जम्मू और कश्मीर पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करने के बाद गठित किया गया था – के अध्यक्ष मोहम्मद यूसुफ गोरसी कहते हैं, ‘हमें एसटी का दर्जा इसलिए मिला था क्योंकि हम सदियों से सामाजिक रूप से वंचित और उत्पीड़ित हैं. आरक्षण हमें शिक्षा और नौकरियों में प्रतिनिधित्व देता है ताकि हम उस जीवन स्तर से बाहर निकल सकें.’

गोरसी के अनुसार, पहाड़ी लोगों को गुर्जरों के समान चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा है. वे कहते हैं, ‘पहाड़ी यह अभिजात वर्ग से हैं, जिनके पास – दूरदराज के इलाकों में रहने वाले कुछ लोगों को छोड़कर – सभी संसाधनों तक पहुंच है. हमारा केवल इतना कहना है कि आरक्षण आवश्यकता किसे है, इसका विश्लेषण करने के बाद ही इसे दिया जाए. उन्हें आरक्षण मिलता है तो हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है, हमें बस चिंता है कि वे हमारे हिस्से में ही सेंध लगाएंगे.’

समुदाय के अन्य लोगों जैसे रफीक, के लिए केवल अपनी न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को पूरा करना ही एक संघर्ष जैसा है. उनके लिए शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण एक गौण विषय है. रफीक कहते हैं, ‘हमारी प्राथमिकता पानी, बिजली और एक स्थायी घर है. उसके बाद ही हम शिक्षा या नौकरी के बारे में सोच सकते हैं. मैं एसटी समुदाय से हूं लेकिन मुझे वह भी नहीं मिलता जिसका मैं हकदार हूं. हम जिन हालत में रहते हैं, उन्हें देखिए. यह कदम जो हमारा है, उसे भी हम तक पहुंचने नहीं देगा.’

वह आगे कहते हैं: ‘इन आरक्षणों से उन लोगों को फायदा होता है जिनके पास पहले से ही खुद के गुजारे के लिए बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध है. यह कदम हमें और अलग-थलग कर देगा.’

रफीक की पड़ोसन – 50 वर्षीया आयशा बानो – भी इसी तरह की बातें करती हैं.

वे कहती हैं, ‘हमारे पास खाने के लिए खाना नहीं है, हम गंदे नाले का पानी पीते हैं. हमारे बच्चे शारीरिक मजदूरी (मैनुअल लेबर) के लिए जाते हैं, क्योंकि हम मुश्किल से खुद का गुजरा करने के लिए कुछ कमा पाते हैं. कभी-कभी हमें एसटी होने की वजह से कुछ लाभ मिल जाते हैं … अगर वे इसे भी हल्का बना देते हैं, तो फिर (हमारे पास) क्या बचेगा?’

आयशा बानो अपने घर में | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

रफीक के मुताबिक, सरकार का यह ऐलान सिर्फ सियासी फायदे और वोट के लिए है.

वे कहते हैं, ‘इस सरकार ने कहा था कि वे 2006 के वन अधिकार अधिनियम को लागू करेंगे, जो कहता है कि हमें उस जमीन पर एक स्थायी घर बनाने की अनुमति दी जाएगी जिस पर हम रह रहे हैं. लेकिन पिछले एक साल से जमीन पर कुछ भी नहीं हुआ है. उन्होंने अभी-अभी इस पहाड़ी मुद्दे को उठाया है क्योंकि उन्हें इन चुनावों में सीटों को जीतने के लिए उनके समर्थन की जरुरत होगी.’


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पहाड़ी लोगों का कल्याण या ‘राजनीतिक हथकंडा?

आरक्षण की मांग को लेकर लंबे समय से लड़ रहे पहाड़ी लोगों के बीच अगर इसे लागू किया जाता है, तो यह पहली बार होगा जब भारत में किसी भाषाई समूह को आरक्षण का लाभ मिलेगा. हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि यह आरक्षण कैसे लागू किया जाएगा.

पिछले हफ्ते दिए गए अपने भाषण में, अमित शाह ने उल्लेख किया था कि पहाड़ी लोगों के लिए आरक्षण उस तीन सदस्यीय आयोग के निष्कर्षों के आधार पर दिया जाएगा, जिसे मार्च 2020 में न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जी.डी. शर्मा के नेतृत्व में भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी रूप लाल भारती, और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी मुनीर अहमद खान की सदस्यता के साथ स्थापित किया गया था.

जम्मू-कश्मीर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग आयोग’ नामक इस पैनल का गठन इस श्रेणी में किसी भी समूह को शामिल करने के लिए जरुरी मानदंडों की पड़ताल करने और यह निर्धारित करने के लिए किया गया था कि क्या उन्हें आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए.

इसे संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जाति आदेश, 1956 और संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जनजाति आदेश, 1989 की परख करने और उसी के अनुसार अपनी सिफारिशें देने का भी काम सौंपा गया था.

हालांकि, शाह ने स्पष्ट रूप से यह उल्लेख नहीं किया था कि पहाड़ी लोगों को एसटी का दर्जा दिया जाएगा या जम्मू-कश्मीर के भीतर एक बढे हुए आरक्षण का लाभ, मगर उन्होंने गुर्जरों और बकरवालों को आश्वस्त किया था कि उनका आरक्षण कोटा ‘1 प्रतिशत भी कम’ नहीं होगा.

पहाड़ियों के लिए आरक्षण के ऐलान के एक दिन बाद 5 अक्टूबर को अमित शाह की बारामूला रैली में भारी भीड़ उमड़ी. रैली में उपस्थिति में कई पहाड़ी लोग खुशी के मूड में थे | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

यदि पहाड़ी लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाना है, तो यह सरकार द्वारा अध्यादेश पारित होने के बाद ही राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से हो सकता है. श्रीनगर के नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता हसनई मसूदी कहते हैं, ‘हमें नहीं लगता कि शाह ने पहाड़ी लोगों को एसटी दर्जा देने का वादा किया था. उन्होंने सिर्फ इतना कहा था कि उन्हें ‘आरक्षण’ दिया जाएगा. शायद उनका मतलब राज्य सेवाओं और शिक्षा संस्थानों में बढे हुए आरक्षण से था. इसके अलावा, उन्होंने यह बात कही हो कहती है कि ये आरक्षण अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद लाए गए हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि ये आरक्षण पहले के अधिनियम का एक हिस्सा थे.’

साल 2019 में, जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने के बाद, जम्मू और कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2019 पारित किया गया था, जिसने जम्मू और कश्मीर आरक्षण अधिनियम, 2004 में संशोधन किया और कुछ आरक्षित श्रेणियों के लिए राज्य सरकार के पदों पर नियुक्ति और पदोन्नति तथा व्यावसायिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का प्रावधान किया था. व्यावसायिक संस्थानों में सरकारी मेडिकल कॉलेज, डेंटल कॉलेज और पॉलिटेक्निक शामिल हैं.

संशोधित आरक्षण नियमों में पहाड़ी भाषी लोगों को ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों’ के रूप में वर्गीकृत करना भी शामिल है.

इससे पहले सीधी भर्ती के लिए अनुसूचित जाति को 8 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 10 प्रतिशत, कमजोर और वंचित वर्ग को 2 प्रतिशत, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से सटे इलाकों के निवासियों को 3 प्रतिशत और पिछड़े क्षेत्रों के निवासियों को 20 प्रतिशत प्रतिशत आरक्षण प्राप्त था. साथ ही, पूर्व सैनिकों और दिव्यांग व्यक्तियों को क्रमशः 6 प्रतिशत और 3 प्रतिशत पर ‘क्षैतिज आरक्षण’ प्राप्त था .

हालांकि, सरकार ने संशोधनों के जरिये सीधी भर्ती में विभिन्न श्रेणियों के आरक्षण प्रतिशत को युक्तिसंगत बनाया. पिछड़े क्षेत्रों के निवासियों को 10 प्रतिशत, पहाड़ी भाषी लोगों को 4 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था.

कश्मीर के बारामूला में स्थित एक पहाड़ी बस्ती में खेलता बच्चों का एक समूह | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

कश्मीर के स्थानीय राजनेताओं के अनुसार, यदि पहाड़ी लोगों को एसटी का दर्जा दिया जाता है, तो भाजपा इलाके की सात विधानसभा सीटों में अपना राजनैतिक विस्तार कर सकती है. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के आदिवासी प्रकोष्ठ के युवा अध्यक्ष तालिब हुसैन कहते हैं, ‘यह उन सात विधानसभा सीटों पर वोट बटोरने का सियासी हथकंडा है, जो पहाड़ियों का मजबूत गढ़ माने जाते है.’

उन्होंने कहा, ‘वे सभी पहाड़ी लोगों, जिनमें राजपूत और ब्राह्मण भी शामिल हैं, को आदिवासियों के दायरे में कैसे डाल सकते हैं? यह तो असंवैधानिक है! किसी समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने के लिए उसका सामाजिक रूप से पिछड़ा होना जरूरी है. पहले भी उन्होंने [छत्तीसगढ़ में] इस श्रेणी में 12 समुदायों को जोड़ा था, लेकिन किसी ने विरोध नहीं किया. लेकिन अब अगर वे इसमें पहाड़ी लोगों को शामिल करते हैं, तो इसके खिलाफ प्रतिक्रिया जरूर होगी.’

हुसैन के अनुसार यह समस्या वाली बात है कि किस एक खास भाषाई समूह को आरक्षण देने का वादा किया गया है.

वे कहते हैं, ‘गुर्जर और बकरवाल – चाहे वे पंजाब, हरियाणा, कश्मीर में हों, या अफगानिस्तान में – के रीति-रिवाज एक समान हैं, वे एक समुदाय हैं. दूसरी ओर, पहाड़ी लोगों में उनकी भाषा के अलावा कुछ भी समानता नहीं है. भाषा कब से आरक्षण देने की कसौटी बन गई?’


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‘एसटी का दर्जा मिला तो सभी वोट बीजेपी को जाएंगे’

उधर राज्य के धरातल पर शाह के वादे का असर होता दिख रहा है.

उरी के नजदीक बारामूला के हिलन हाकापथरी क्षेत्र में रहने वाले पहाड़ी लोगों के मामले में, यदि उन्हें एसटी का दर्जा दिया जाता है, तो इस इलाके से उनके सभी वोट भाजपा को जाएंगे.

मोहम्मद लतीफ खान, उस इलाके के सरपंच जहां गुर्जरों और बकरवालों के साथ-साथ पहाडि़यों की मिली-जुली आबादी पीढिय़ों से रह रही है, ने कहा, ‘अगर (एसटी) दर्जा दिया जाता है, तो सभी पहाड़ी लोगों के वोट भाजपा को दिए जाएंगे. हम निश्चित रूप से उस सरकार का समर्थन करेंगे जो हमारी लंबे समय से चली आ रही मांग पर विचार कर रही है.’

लतीफ का दावा है कि इलाके के 2,500 वोटों में से करीब 1,700 पहाड़ी लोगों के हैं.

उनके अनुसार, गुर्जर और बकरवाल हिलन हाकापथरी में रहने वाले पहाड़ी लोगों की तुलना में अधिक ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ हैं.

बारामूला के हिलान हाकापथरी इलाके के सरपंच मो. लतीफ खान (दाएं) ने पहाड़ी लोगों के लिए आरक्षण की घोषणा के लिए भाजपा की सराहना की. तारिक अहमद खान (बाएं) भी उनसे सहमत हैं | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

उनका दावा है, ‘यहां के पहाड़ी लोग गुर्जर और बकरवालों, जिन्हें उनके एसटी दर्जे के कारण सरकारी नौकरियां मिली है, की तुलना में आर्थिक रूप से कमजोर हैं. उनके बच्चे यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की परीक्षा पास करते हैं. केंद्रीय सेवाओं के लिए उनके साथ प्रतिस्पर्धा करना हमारे लिए बहुत कठिन है. इन प्रतियोगी परीक्षाओं में उनके बच्चों के लिए ‘कट ऑफ’ जहां बहुत कम होता है, वहीँ हमारे बच्चों को सामान्य वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है.’

लतीफ कहते हैं, ‘उनके पास आदिवासी बच्चों के लिए बने विशेष स्कूल हैं, बच्चों को छात्रवृत्ति प्राप्त है, जबकि हमारे पास कुछ भी नहीं है. हमारे पास भी उनके जैसे ही संसाधनों की कमी और कठिनाइयां हैं, लेकिन वे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं क्योंकि उनके पास यह [एसटी] का दर्जा है. चूंकि हम किसी सूची में नहीं आते हैं, इसलिए हम नुकसान में हैं.’

एक मजदूर के रूप में काम करने वाले इसी इलाके के एक अन्य पहाड़ी तारिक अहमद खान भी इस बात से सहमत हैं.

तारिक कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि वे वोट के लिए ऐसा कर रहे हैं, लेकिन जब तक हमें फायदा पहुंच रहा है, तब तक हमारे लिए यह बात क्या मायने रखती है? अगर वह हमारे बच्चों को केंद्र सरकार में नौकरी के लिए आवेदन करने का मौका देते हैं, तो हम सब अमित शाह के साथ हैं. वे भी आईएएस, आईपीएस अफसर बन जायेंगें.’

श्रीनगर-जम्मू हाईवे पर चलती बकरवाल महिलाएं. वे सर्दियों के लिए कश्मीर से जम्मू की ओर पलायन कर रहे हैं | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

‘हमारा आरक्षण वापस ले लो, पर हमें बुनियादी मर्यादा तो दो’

जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर शिशुओं लेकर चल रही महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को का एक बड़ा समूह, अपने घोड़ों और भेड़ों के साथ, सर्दियों के मौसम से बचने के लिए कश्मीर से जम्मू के किश्तवाड़ क्षेत्र की ओर जा रहा है. उन्हें अपने गंतव्य तक पहुंचने में एक महीने से अधिक का समय लगेगा.

इस खानाबदोश समूह के लिए, आरक्षण का कोई महत्व नहीं है. उन्हें बस अपने जानवरों के लिए दवाएं और जम्मू जाने के लिए परिवहन सुविधा की जरूरत है.

कालू खेर, जो कश्मीर के सोनमर्ग से 340 किमी दूर स्थित जम्मू के अखनूर जाने के रास्ते में है, कहते हैं, ‘हमें हमारे नेताओं द्वारा बताया गया था कि पहाड़ी लोगों को एसटी का दर्जा दिया जा रहा है, लेकिन इसकी परवाह कौन करता है? हम एसटी समुदाय से हैं, लेकिन हमें मिल क्या रहा है? हमारी सभी भेड़ें, बकरियां पिछले महीने एक बीमारी से संक्रमित होने के बाद मर गईं. हमने सरकारी पशु अस्पतालों में मदद की गुहार लगाई लेकिन उन्होंने हमें निजी अस्पतालों में जाने के लिए कहा, जहां वे दवा के लिए 500 से 2,000 रुपये लेते हैं. क्या आपको लगता है कि हम इसका खर्च वहन कर सकते हैं?’

कश्मीर के सोनमर्ग से जम्मू के अखनूर जा रहे बकरवाल समुदाय के कालू खेर | क्रेडिट: अनन्या भारद्वाज

उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है. हम महीनों पैदल चलते हैं, रात में सड़क पर रहते हैं, अपने महिलाओं, बच्चों, शिशुओं के साथ … और वे ‘फायदों’ की बात करते हैं. हम चुनाव के दौरान ही बिरादर (भाई) बनते हैं, जब उन्हें हमारे वोट की जरूरत होती है. हमारे सभी एसटी वाले फायदे वापस ले लें, पर हमें जीवन की बुनियादी मर्यादा तो दें.’

पैदल ही 291 किमी दूर किश्तवाड़ जा रहे मोहम्मद अख्तर कहते हैं,’क्या हम सभी को ले जाने के लिए वाहन की मांग करना बहुत अधिक है? उन्होंने हमें एक ट्रक उपलब्ध करवाने का वादा किया और हम बहुत खुश थे. सारी कागजी कार्रवाई हो चुकी थी, पर आखिरी समय में उन्होंने हमें बताया कि अभी कोई वाहन उपलब्ध नहीं है. उनका कहना है कि वे हमें एक महीने के बाद, 15 नवंबर को, वाहन देंगे. वे नहीं समझते कि तब तक हमारे सभी जानवर मर जाएंगे.’

वे आगे बढ़ने से पहले कहते हैं, ‘वे जब चाहें हमारा इस्तेमाल करते हैं. मगर, जब हमारी सहायता करने की बात आती है तो वे मुंह मोड़ लेते हैं. अब कृपया मुझे जाने दें, हमें आगे बहुत लंबा रास्ता तय करना है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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