शिमला: एक समय था जब हिमाचल की देसी कांगड़ा चाय की महक दूर-दूर तक फैली थी. हरी-भरी धौलाधार घाटी के ढलानों से ताजी चुनी गई पत्तियों से बनी यह चाय काबुल और मध्य एशिया के पारखी लोगों की खासी पसंद थी. ये लंदन और एम्स्टर्डम में स्वर्ण पदक से सम्मानित हुई और इसे ‘भारत के किसी भी अन्य हिस्से में उत्पादित चाय से बेहतर’ करार दिया गया.
लेकिन यह सब 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों की बात है. पिछले कई दशकों में उत्पादकों और चाय पारखियों के इससे दूर होने की वजह से कांगड़ा टी की खुशबू एकदम खो ही गई थी. लेकिन अब एक बार फिर इस क्षेत्र की चमक लौटने की उम्मीद की जा रही है.
पिछले महीने, यूरोपीय संघ की कार्यकारी शाखा यूरोपीय आयोग ने कांगड़ा चाय को संरक्षित भौगोलिक संकेत (पीजीआई) टैग प्रदान किया, जो 11 अप्रैल से लागू होगा.
एक ईयू पीजीआई टैग केवल उन्हीं कृषि उत्पादों को मिलता है जो किसी विशिष्ट क्षेत्र की अद्वितीय पहचान हैं और सख्त गुणवत्ता मानकों पर खरे उतरते हैं. यह टैग उत्पादकों को इस लेबल के साथ बाजार में खुद को अलग साबित करने में मदद करता है, और एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय ग्राहक आधार प्रदान करता है. इससे बेहतर कीमत मिलना तो सुनिश्चित होता ही है, उत्पाद के नाम की नकल या दुरुपयोग के खिलाफ कानूनी सुरक्षा भी मिलती है.
कांगड़ा चाय उत्पादकों को उम्मीद है कि ये टैग एक बार फिर उनकी किस्मत चमका देगा और उन्हें अपने उत्पादन और मार्केटिंग में चुनौतियों का सामना करने में मदद करेंगे, जो कि बाजार में ‘नकली’ उत्पादों के कारण काफी ज्यादा बढ़ गई हैं.
कांगड़ा चाय की ब्लैक, ग्रीन और ओलांग वैराइटी विभिन्न ग्रेड में उपलब्ध है जैसा कि यूरोपीय संघ के संबंधित दस्तावेज से पता चलता है. ईयू एग्रीकल्चर हैंडल से किए गए एक ट्वीट में इसका जिक्र करते हुए ‘नटी, वुडी एरोमा वाली और स्वाद में मिठास’ वाली चाय बताया गया है.
Today we registered a new Geographical Indication from India! 🇪🇺🇮🇳#Kangra tea is grown 900-1,400 meters above sea level, on the slopes of the Dhauladhar mountain range in the Western Himalayas.
It has a nutty, woody aroma and a sweet aftertaste ☕️
→ https://t.co/ji1lpRCpsF pic.twitter.com/cfXvdQnnxj
— EU Agriculture🌱 (@EUAgri) March 29, 2023
इधर, भारतीय चाय बोर्ड का भी कहना है कि यह प्रसिद्ध दार्जिलिंग किस्म की तुलना में माइल्ड टेस्ट वाली होती है.
भारतीय चाय बोर्ड के पालमपुर स्थित फैक्टरी एडवाइजर अभिमन्यु शर्मा ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि कांगड़ा जिले के धर्मशाला, शाहपुर, नगरोटा बगवां, पालमपुर और बैजनाथ की 2,300 हेक्टेयर भूमि के साथ मंडी जिले के जोगिंदरनगर और चंबा के भटियात में भी कांगड़ा टी की खेती होती है.
शर्मा ने कहा कि ईयू पीजीआई टैग इस चाय को यूरोपीय और अन्य अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अपना पुराना गौरव फिर से हासिल करने का अवसर प्रदान करेगा.
पालमपुर के चाय उत्पादक और निर्यातक सचिन बुटेल ने भी दिप्रिंट के साथ बातचीत में इसी तरह की उम्मीदें जताईं.
उन्होंने कहा, ‘यह एक बड़ी उपलब्धि है. हितधारकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार के लिए उनकी मदद की जानी चाहिए ताकि यूरोपीय संघ के जीआई टैग के लाभों को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए अधिकतम उत्पादन विदेशी बाजारों में निर्यात किया जा सके.’
यह भी पढ़ेंः बॉलीवुड जैसी शादी नहीं- HP के गांवों ने स्थानीय परंपराएं बनाए रखने के लिए मेहंदी, सेहरा पर लगाई पाबंदी
उन्होंने कहा, ‘हमें यह सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक बाजार समर्थन की जरूरत है कि हमारे उत्पाद को सही मंच मिल पाए. भारतीय बाजार में पहले से ही बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा है.’
आइये एक नजर डालें कांगड़ा चाय के इतिहास, इस उद्योग को प्रभावित करने वाले मुद्दों और इस बाजार को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक किए गए प्रयासों पर….
कांगड़ा चाय का उत्थान और पतन
भारतीय चाय बोर्ड से जुड़े शर्मा ने बताया कि कांगड़ा चाय पहली बार एक ब्रिटिश की तरफ से उगाई गई थी और फिर इसे कई अन्य उत्पादकों ने आजमाया.
शर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘सहारनपुर और नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रांत में बॉटनिकल गार्डन सुपरिटेंडेंट विलियम जेम्सन ने 1849 में कांगड़ा में चाय का पहला पौधा लगाया था.’ साथ ही जोड़ा कि अगले एक दशक में इस क्षेत्र में लगभग दो दर्जन अन्य बागानों में चाय का उत्पादन किया गया.
शर्मा ने दावा किया, ‘चाय का उत्पादन क्षेत्र बढ़कर लगभग 10,000 एकड़ (करीब 4000 हेक्टेअर) हो गया है, जिससे सालाना 1,000 टन का उत्पादन होता है.’
कांगड़ा जिले के संबंध में 1882-83 का एक गजट बताता है कि यहां की चाय अन्य भारतीय किस्मों की तुलना में ‘शायद बेहतर’ थी. इसमें साथ ही इस बात को भी इंगित किया गया है कि इसकी मांग ‘लगातार बढ़ती जा रही है और पेशावर से काबुल और मध्य एशिया तक निर्यात के लिए मूल निवासी इसका उत्पादन कर रहे हैं.’ चाय ने अपनी गुणवत्ता की खासी साख जमाई और क्रमशः 1886 और 1896 में लंदन और एम्स्टर्डम के बाजारों में स्वर्ण पदक जीते.
हालांकि, 20वीं सदी कांगड़ा चाय के लिए अच्छी नहीं रही. 1905 में कांगड़ा में आए भूकंप ने चाय कारखानों और अन्य प्रतिष्ठानों को बुरी तरह क्षति पहुंचाई और स्थानीय लोगों को इससे उबरने में सालों लग गए.
तब से, विभिन्न कारणों से उद्योग कभी अपने उस मुकाम पर नहीं पहुंच पाया है, हालांकि सरकार इसे पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रही है.
सरकारी प्रयास जारी
पिछले साल, राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार ने अगले पांच वर्षों में हिमाचल के चाय उत्पादन को दोगुना करने का वादा किया था.
पिछले जून में तत्कालीन कृषि मंत्री वीरेंद्र कंवर ने संवाददाताओं से कहा था, ‘राज्य ने 2021-22 में करीब 10 लाख किलोग्राम चाय का उत्पादन किया. अगले पांच वर्षों में उत्पादन को बढ़ाकर 20 लाख किलोग्राम करने का प्रयास किया जा रहा है.’
यह भी पढ़ेंः ‘हिमाचल वाटर सेस विवाद’, मुख्यमंत्री सुक्खू ने अपनी सरकार का किया बचाव, बोले- यह राज्य का अधिकार
राज्य कृषि विभाग के एक अधिकारी के मुताबिक, चाय उत्पादन के लिए जोत क्षेत्र के विस्तार और इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए, पालमपुर स्थित चौधरी सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय ने मालन, कांगड़ा, बारा, बर्थिन, सुंदरनगर, बजौरा और धौलाकुआं में अपने कृषि अनुसंधान केंद्रों में 800 पौधे लगाए थे. उन्होंने कहा, ‘चाय के बागीचों को एक साथ जोड़ने की संभावनाओं का भी पता लगाया जा रहा है ताकि क्षेत्र घटने की भरपाई की जा सके.’
हालांकि, दिप्रिंट से बात करने वाले चाय उत्पादकों ने यह भी कहा कि वे चाहते हैं कि चाय की खेती कृषि विभाग के बजाय उद्योग विभाग के दायरे में आए, जैसा कि 2009 तक होता था.
किसानों का तर्क है कि चाय की खेती एक उद्योग है और इसलिए इसकी देखरेख उद्योग विभाग द्वारा की जानी चाहिए, जो कि मार्केटिंग के लिहाज से फायदेमंद होगा.
कांगड़ा के चाय उत्पादकों की समस्याएं क्या हैं?
हिमाचल प्रदेश में मौजूदा समय में चाय की खेती वाली लगभग 2,310 हेक्टेयर भूमि धौलाधार पहाड़ों की तलहटी तक ही सीमित है.
पूर्व में उद्धृत राज्य के कृषि विभाग के अधिकारी का कहना है कि कांगड़ा चाय उद्योग के सामने मुख्य चुनौती उत्पादन की है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में प्रति हेक्टेयर उपज में काफी गिरावट आई है. उन्होंने कहा कि श्रम और मार्केटिंग से जुड़ी चुनौतियां सबसे बड़ी समस्या हैं.
उन्होंने यह भी बताया, ‘अधिकांश चाय बागान बहुत पुराने हैं. ये आमतौर पर 80 वर्ष से अधिक पुराने हैं, जिससे उनकी उत्पादकता प्रभावित हो रही है.’
कांगड़ा में चाय उत्पादक समाज के सदस्य नवल ठाकुर ने कहा कि फिर से प्लांटेशन और कायाकल्प करना ‘बहुत महंगा’ पड़ता है और अधिकांश उत्पादकों ने इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने में कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखाई है.
चाय बागान मालिकों ने यह भी कहा कि बागानों को गिरवी रखने के लिए बैंकों की अनिच्छा के कारण उन्हें धन हासिल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.
बैजनाथ के एक चाय उत्पादक पवन कुमार ने बताया, ‘जिनके पास धन का अतिरिक्त स्रोत है, वे अपने बागानों में आवश्यक बदलाव कर सकते हैं, लेकिन जो पूरी तरह से चाय बागानों पर ही निर्भर हैं, उनके लिए पैसा जुटाना मुश्किल होता है.’
हिमाचल प्रदेश के भूमि राजस्व अधिनियम के तहत, चाय बागानों के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को बेचा नहीं जा सकता है, जिससे बैंकों के लिए इस भूमि को गिरवी रखकर कर्ज देने में कोई खास रुचि नहीं होती है, वे इसे बेचकर अपने पैसे की वसूली नहीं कर सकते हैं.
कई अन्य मसले भी है. इंडियन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के 2019 के एक अध्ययन में कहा गया है कि अधिकांश जोत—96 प्रतिशत—एक एकड़ (0.40 हेक्टेयर) से कम है.
पेपर में कहा गया है, ‘चाय बागानों के तहत क्षेत्र कुशल श्रम की कमी के साथ उच्च अचल संपत्ति दरों का आकर्षण घट रहा है.’ और मशीनीकरण की कमी ने भी उत्पादकता को प्रभावित किया है.
एस्टेट के मालिक सचिन बुटेल ने कहा कि छोटे चाय उत्पादक ‘बमुश्किल ही कोई कमाई’ कर पाते हैं, जबकि बड़े एस्टेट ‘श्रमिक मुद्दों और घटते लाभ’ जैसी मुश्किलों से जूझ रहे हैं.
उन्होंने कहा कि चाय की खेती एक श्रम प्रधान कार्य है और उद्योग में लाभ बहुत ज्यादा न होने के कारण नई पीढ़ी की चाय उत्पादन में ज्यादा कोई रुचि नहीं रह गई है. उन्होंने कहा, ‘गर्मी के मौसम में बहुत कम स्थानीय लोग काम करते हैं और 90 फीसदी काम के लिए हमें झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के प्रवासी मजदूरों पर निर्भर रहना पड़ता है.’
कोई लोकल मार्केट नहीं, खराब नकल बनी चुनौती
यद्यपि कांगड़ा चाय वैश्विक बाजार में काफी ख्यात है, लेकिन आमतौर पर हिमाचल प्रदेश में इसका उपयोग नहीं किया जाता है—यहां तक कि कांगड़ा जिले में भी नहीं.
कृषि विभाग के अधिकारी के अनुसार, 2021-22 में लगभग 4,000 किलोग्राम कांगड़ा टी विदेश निर्यात की गई, जिसमें प्राथमिक बाजार जर्मनी, यूके, रूस और फ्रांस थे. शेष 90 प्रतिशत चाय कोलकाता नीलामी यार्ड में भेजी गई, जहां 2021-22 में इसे 160 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा गया.
स्थानीय चाय उत्पादक दीपक शर्मा कहते हैं, ‘कांगड़ा की चाय के लिए कोई स्थानीय बाजार नहीं है. यहां उपजी ब्लैक टी कोलकाता और ग्रीन टी अमृतसर के बाजार में भेजी जाती है.’
उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि सरकार हिमाचल में कांगड़ा चाय को लोकप्रिय बनाने में मदद करे ताकि ‘स्थानीय लोग इसका सेवन करें और यहां आने वाले पर्यटकों के बीच भी इसकी मांग बढ़े.’
दीपक शर्मा ने आगे दावा किया कि नकली उत्पादों के बाजार की वजह से कांगड़ा की चाय ने अपनी प्रतिष्ठा गंवा दी है.
उन्होंने कहा, ‘कोलकाता के बाजार में, हमने सुना है कि हमारे उत्पाद को किसी अन्य चाय के साथ मिश्रित किया जाता है और कांगड़ा चाय के ब्रांड नाम के तहत बेचा जाता है. इससे कांगड़ा चाय की गुणवत्ता और प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.’
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः ‘कॉस्ट—कटिंग’ बनाम ‘अपमान’—हिमाचल में आपातकालीन कैदियों की पेंशन खत्म करने पर कांग्रेस-BJP में तकरार