नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार देर रात को अपने फैसले में महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के बहुमत साबित करने के लिए गुरुवार को राज्य विधानसभा में फ्लोर टेस्ट पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. एमवीए शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन है.
महाराष्ट्र सरकार में मंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों के एक गुट के इस महीने के शुरू में पार्टी से अलग होकर सरकार के खिलाफ बगावत कर देने के बाद राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने बुधवार को विश्वास मत का आदेश दिया था. बगावत के कारण विधानसभा में एमवीए का संख्याबल घट गया है.
शिवसेना ने शीर्ष कोर्ट के उस फैसले का हवाला देते हुए राज्यपाल के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें राज्य विधानसभा के डिप्टी स्पीकर की तरफ से सदस्यता रद्द करने के लिए जारी नोटिस का जवाब देने के लिए बागियों को 12 जुलाई तक का समय दिया गया था.
हालांकि, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जे.बी पारदीवाला की अवकाशकालीन पीठ ने बुधवार रात नौ बजे एक आदेश पारित किया, जिसमें फ्लोर टेस्ट निर्धारित समय के मुताबिक कराने की अनुमति दी गई.
पीठ ने कहा कि उसे फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाए गए महाराष्ट्र विधानसभा के विशेष सत्र पर रोक लगाने का कोई उचित आधार नजर नहीं आ रहा है, लेकिन साथ ही कहा कि विश्वास मत का नतीजा उसके समक्ष लंबित रिट याचिकाओं के नतीजों पर निर्भर करेगा.
पीठ ने कहा, ‘हमें नहीं लगता कि मामला व्यर्थ साबित होगा. मान लीजिए कि हमें बाद में पता चलता है कि फ्लोर टेस्ट बिना अधिकार कराया गया है तो हम इसे रद्द कर सकते हैं. यह एक अपरिवर्तनीय स्थिति नहीं है.’
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, शायद उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता थी कि विश्वास मत में हार अवश्यंभावी है.
दिप्रिंट यहां बता रहा है कि गुरुवार के विश्वास मत के पक्ष और विपक्ष में क्या दलीलें दी गईं और सुप्रीम कोर्ट ने किस आधार पर इसकी अनुमति दी.
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बेंच के समक्ष तर्क-वितर्क
शिवसेना के सचेतक सुनील प्रभु की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील दी कि जब तक बागी विधायकों की अयोग्यता के मुद्दे पर फैसला नहीं हो जाता, तब तक गुरुवार को फ्लोर टेस्ट नहीं कराया जा सकता.
उन्होंने तर्क दिया, ‘यह नहीं कहा जा सकता है कि बागी विधायक लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं.’
जवाब में बागी विधायक एकनाथ शिंदे की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल ने तर्क दिया कि अयोग्यता की कार्यवाही का लंबित होना विश्वास मत की कार्यवाही पर रोक लगाने का कोई आधार नहीं है, क्योंकि ये दोनों ही ‘अलग-अलग बातें’ हैं.
कौल ने तर्क दिया कि कानून में अच्छी तरह स्थापित परंपरा है कि फ्लोर टेस्ट (जिसमें किसी पदासीन मुख्यमंत्री को सभी उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बीच अपना बहुमत साबित करना होता है) में देरी नहीं होनी चाहिए और केवल अयोग्यता संबंधी कार्यवाही लंबित होने को पूरी प्रक्रिया को टालने का आधार नहीं बनाया जा सकता.
कौल ने कहा, ‘स्वाभाविक तौर पर लोकतंत्र की असली परीक्षा कहां पर होती है? सदन पटल पर. मैंने शायद ही कभी किसी पार्टी को फ्लोर टेस्ट से इतना डरते देखा हो.’
इस बीच, राज्यपाल की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि राज्यपाल ‘कुल मिलाकर’ इस तर्क से संतुष्ट थे कि फ्लोर टेस्ट कराया जाना आवश्यक है.
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पिछले मामलों का दिया गया उदाहरण
यह पहला मौका नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट को विश्वास मत या फ्लोर टेस्ट पर कोई फैसला लेना पड़ा है.
अप्रैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश में इसी तरह के परिदृश्य के दौरान इस मसले की गहराई से पड़ताल की थी.
तब कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को एक मौजूदा मुख्यमंत्री को यह निर्देश देने का अधिकार है कि वह फ्लोर टेस्ट का आयोजन कर साबित करें कि ‘सरकार के प्रति उनका (सदस्यों के) विश्वास बरकरार’ है.
शीर्ष कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि ऐसे फ्लोर टेस्ट आमतौर पर सत्ता में आने के बाद होते हैं, राज्यपाल को किसी पदासीन सरकार को फ्लोर टेस्ट का निर्देश देने की शक्ति प्रदान की गई है.
इसी तरह, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में तत्कालीन भाजपा सरकार के खिलाफ फ्लोर टेस्ट के लिए शिवसेना की याचिका पर विचार करते हुए राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट कराने और उसके लिए ‘समय सीमा’ निर्धारित करने का निर्देश दिया था.
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फ्लोर टेस्ट ‘जल्द से जल्द’ कराया जाना चाहिए
दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना की याचिका पर फैसला करते हुए कोर्ट ने कहा कि खरीद-फरोख्त से बचने के लिए जल्द से जल्द टेस्ट कराना जरूरी है.
कोर्ट ने टिप्पणी की, ‘ऐसी स्थिति में जब फ्लोर टेस्ट में देरी होती है, तो खरीद-फरोख्त की संभावना बनती है और यह कोर्ट पर दायित्व होता है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए कार्य करे. ऐसे मामले में तत्काल फ्लोर टेस्ट कराना ही सबसे प्रभावी तंत्र हो सकता है.’
सुप्रीम कोर्ट के पास इस तरह के फ्लोर टेस्ट का निर्देश देने की शक्ति नहीं होने की दलीलों को खारिज करते हुए शीर्ष कोर्ट ने पूर्व के आदेशों का उल्लेख किया जिसमें इसी तरह विश्वास मत कराया गया था.
उदाहरण के तौर पर 1998 में, सुप्रीम कोर्ट ने समग्र शक्ति परीक्षण के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा की बैठक बुलाने का आदेश दिया था क्योंकि मुख्यमंत्री पद के लिए दो लोग दावेदारी जता रहे थे.
कई मामलों में कोर्ट ने प्रक्रिया पूरी तरह निष्पक्ष होना सुनिश्चित करने के लिए पर्यवेक्षकों को भी नियुक्त किया है और यहां तक कि इस तरह के मतदान के दौरान वीडियोग्राफी का भी आदेश दिया है.
ऐसा माना गया है कि अदालत को संविधान के ‘प्रहरी’ की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी मिली हुई है और यह सुनिश्चित करना उसका दायित्व है कि ऐसे परीक्षण पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न हों.
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सदस्य चाहें तो वोटिंग में हिस्सा न लें
हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे फ्लोर टेस्ट का आदेश दिए जाने की स्थिति में सदस्यों को वोटिंग के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर, 2019 के कर्नाटक विधानसभा मामले पर विचार करते हुए कोर्ट ने 15 बागी विधायकों को विश्वास मत के दौरान इसमें हिस्सा न लेने का विकल्प दिया था.
अदालत ने तब कहा था, ‘इस स्तर पर यह बेहद जरूरी है कि संवैधानिक संतुलन बनाए रखा जाए और परस्पर विरोधी और प्रतिस्पर्धी अधिकारों को लेकर जो मुद्दे हमारे समक्ष उठाए गए हैं, उनका निपटारा हो.’
मध्य प्रदेश के मामले में, कोर्ट ने कहा था कि सदस्यों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही लंबित होने के कारण विश्वास मत को स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है.
इसे सदन की इच्छा का पता लगाने का सबसे ‘स्पष्ट तरीका’ करार देते हुए कोर्ट ने कहा था कि अयोग्यता और विश्वास मत पूरी तरह से अलग-अलग प्रक्रिया हैं.
(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)
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