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Sunday, 17 November, 2024
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आरएसएस के स्वयंसेवक क्यों भगवा ध्वज की पूजा करते हैं और इसे अपना ‘गुरु’ मानते हैं

जब आरएसएस की शुरुआत हुई, तो कई स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक डॉ. हेडगेवार को 'गुरु' के रूप में नामित किया जाए, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने फैसला किया कि भगवा ध्वज ही 'गुरु' होना चाहिए.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत पूजन करते हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरु पूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है. इस साल यह उत्सव 24 जुलाई को मनाया जा रहा है.

जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें; क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था. इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया.

सन 1925 में अपनी स्थापना के तीन साल बाद संघ ने सन् 1928 में पहली बार गुरुपूजा का आयोजन किया था. तब से यह परंपरा अबाध रूप से जारी है और भगवा ध्वज का स्थान संघ में सर्वोच्च बना हुआ है.


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भगवा ध्वज की पूजा क्यों

भगवा ध्वज को ही संघ ने अपनी व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है. भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है. भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं थी. इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है. जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से अन्वेषण करने का विषय है. संघ के अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने इस रोचक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह रहे व प्रख्यात विचारक व चिंतक के रूप में विख्यात एच.वी. शेषाद्रि ने अपनी पुस्तकआरएसएस: ए विज़न इन एक्शन’ में लिखा है ,  ‘भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है. जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने इस ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरु के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की.’

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP), भारतीय मजदूर संघ (BMS), वनवासी कल्याण आश्रम (VKA), भारतीय किसान संघ (BKS) और विश्व हिंदू परिषद् (VHP) जैसे कई संगठनों के ध्वज भी भगवा रंग के ही हैं. इस तरह देश भर में संघ की हज़ारों शाखाओं में तो विशिष्ट आकार के भगवा ध्वज प्रतिदिन फहराए जाते ही रहे हैं.

शेषाद्रि इस बात की भी चर्चा करते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाहर मजदूरों के बीच काम करते हुए भगवा ध्वज को आम स्वीकृति दिलाना कितना चुनौतीपूर्ण था; क्योंकि इस क्षेत्र में लंबे समय से दुनिया भर में सक्रिय साम्यवादी आंदोलन और उसके लाल झंडे का खासा प्रभाव था. भारतीय मजदूर संघ ने मजदूरों के बीच भी उस केसरिया झंडे को स्वीकृति दिलाई, जो विश्व-कल्याण का प्रतीक है. शेषाद्रि के अनुसार मार्च 1981 में भारतीय मजदूर संघ ने अपने छठे राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब साम्यवादी प्रभाववाले महानगर कलकत्ता की सड़कों पर विशाल जुलूस निकाला था, तब लोग हजारों हाथों में परंपरागत लाल झंडे की जगह केसरिया झंडे देखकर आश्चर्यचकित रह गए थे. कलकत्ता के प्रमुख अखबारों ने उस समय मजदूरों के बीच उभरी इस नई केसरिया ताकत को महसूस किया था.

संघ के महाराष्ट्र प्रांत कार्यवाह एन.एच. पालकर ने भगवा ध्वज पर एक रोचक पुस्तक लिखी है. मूलत: मराठी में लिखी यह पुस्तक सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी. बाद में इसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ. 76 पृष्ठों की इस पुस्तक के अनुसार, सनातन धर्म में वैदिक काल से ही भगवा ध्वज फहराने की परंपरा मिलती हैं.

पालकर के अनुसार, ‘वैदिक साहित्य में ‘अरुणकेतु’ के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज को हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा प्राप्त रही. यह ध्वज हिंदुओं को हर काल में विदेशी आक्रमणों से लड़ने और विजयी होने की प्रेरणा देता रहा है. इसका सुविचारित उपयोग हिंदुओं में राष्ट्ररक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत् करने के लिए होता रहा है.’

पालकर ने भगवा ध्वज के राष्ट्रीय चरित्र को सिद्ध करने के लिए कई ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया है. कुछ घटनाएं इस प्रकार हैं :

• सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह ने जब हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हजारों सिख योद्धाओं की फौज का नेतृत्व किया, तब उन्होंने केसरिया झंडे का उपयोग किया. यह ध्वज हिंदुत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक है. इस झंडे से प्रेरणा लेते हुए महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल में सिख सैनिकों ने अफगानिस्तान के काबुल-कंधार तक को फतह कर लिया था. उस समय सेनापति हरि सिंह नलवा ने सैनिकों का नेतृत्व किया था.

• जब राजस्थान पर मुगलों का हमला हुआ, तब राणा सांगा और महाराणा प्रताप के सेनापतित्व में राजपूत योद्धाओं ने भी भगवा ध्वज से वीरता की प्रेरणा लेकर आक्रमणकारियों को रोकने के लिए ऐतिहासिक युद्ध किए. छत्रपति शिवाजी और उनके साथियों ने मुगल शासन से मुक्ति और हिंदू राज्य की स्थापना के लिए भगवा ध्वज की छत्रछाया में ही निर्णायक लड़ाईयां लड़ीं.

• पालकर मुगलों के आक्रमण को विफल करने के लिए दक्षिण भारतीय राज्य विजयनगरम् के राजाओं की सेना का भी उल्लेख करते हैं, जिसमें भगवा ध्वज को शौर्य और बलिदान की प्रेरणा देनेवाले झंडे के रूप में फहराया जाता था. मध्यकाल के प्रसिद्ध भक्ति आंदोलन और हिंदू धर्म में युगानुरूप सुधार के साथ इसके पुनर्जागरण में भी भगवा या संन्यासी रंग की प्रेरक भूमिका थी.

• भारत के अनेक मठ-मंदिरों पर भगवा झंडा फहराया जाता है, क्योंकि इस रंग को शौर्य और त्याग जैसे गुणों का प्रतीक माना जाता है.

• अंग्रेजी राज के विरुद्ध सन् 1857 में भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान केसरिया झंडे के तले सारे क्रांतिकारी एकजुट हुए थे.


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वीरता और भक्ति का रंग

पालकर अपनी किताब के अंत में निष्कर्ष के तौर पर लिखा है कि भगवा ध्वज के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि इसे हिंदू समाज से अलग करना संभव नहीं है. यह ध्वज हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र का सहज स्वाभाविक प्रतीक है.

संघ की शाखा या प्रशिक्षण शिविर में जब भगवा ध्वज के महत्त्व पर बौद्धिक विमर्श होता है, तब मुख्यत: वही बातें स्वयंसेवकों को बताई जाती हैं, जिनका उल्लेख पालकर की पुस्तक में किया गया है.

इस प्रकार संघ के स्वयंसेवक हिंदू राष्ट्र, हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू जीवन-शैली और दर्शन–सबको भगवा ध्वज से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है.पालकर मानते हैं कि यह ध्वज हिंदुओं को त्याग, बलिदान, शौर्य, देशभक्ति आदि की प्रेरणा देने में सदैव सक्षम रहा है.

इस संदर्भ में भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने के पीछे संघ का दर्शन यह है कि किसी व्यक्ति को गुरु बनाने पर उसमें पहले से कुछ कमजोरियां हो सकती हैं या कालांतर में उसके सद्गुणों का क्षय भी हो सकता है; लेकिन ध्वज स्थायी रूप से श्रेष्ठ गुणों की प्रेरणा देता रह सकता है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुख्यत: तीन कारणों से भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया

• एक, ध्वज के साथ ऐतिहासिकता जुड़ी है और यह किसी संगठन को एकजुट रखते हुए उसके विकास में सहायक होता है

• दो, भगवा ध्वज में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की वह विचारधारा सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रतिबिंबित होती है, जो संघ की स्थापना का प्रबल आधार है.

• तीन, किसी व्यक्ति की जगह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रतीक भगवा ध्वज को सर्वोच्च स्थान देकर संघ यह सुनिश्चित करने में सफल रहा कि वह व्यक्ति-केंद्रित संगठन नहीं बनेगा. यह सोच बहुत सफल रही. फलस्वरूप पिछले 96 वर्षों के दौरान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन का आधार व्यापक हुआ और संघ में सर्वोच्च पद को लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ. इस तरह के संगठन में शीर्ष नेतृत्व के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष न होना आश्चर्यजनक है और बहुत हद तक इसका श्रेय भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने के डॉ. हेडगेवार के निर्णय को दिया जा सकता है.

(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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