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Friday, 15 November, 2024
होमएजुकेशनआख़िर क्यों मोदी सरकार भारतीय विश्वविद्यालय रैंकिंग प्रणाली एनआईआरएफ को ग्लोबल बनाने की योजना बना रही है

आख़िर क्यों मोदी सरकार भारतीय विश्वविद्यालय रैंकिंग प्रणाली एनआईआरएफ को ग्लोबल बनाने की योजना बना रही है

क्यू.एस. जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा जारी की गई रैंकिंग, में पर्सेपसन को बहुत अधिक वरीयता प्रदान की जाती है, जो कि मोदी सरकार को कतई रास नहीं आता.

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मोदी सरकार द्वारा जारी की गई नवीनतम एन.आई.आर.एफ रैंकिंग में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास (आई.आई.टी.-मद्रास) को देश के सबसे अच्छे शिक्षा संस्थान के रूप मे आंका गया है, लेकिन क्यू. एस. जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की सूची में यह स्थान आई.आई.टी.- बॉम्बे को हासिल है. एक ओर आई.आई.टी.-मद्रास इसी सप्ताह जारी की गई क्यू. एस. वर्ल्ड रैंकिंग के शीर्ष 200 में भी नहीं है, वहीं दूसरी ओर आई.आई.टी.- बॉम्बे को एन.आई.आर.एफ द्वारा जारी रैंकिंग में भारत के तीन सर्वश्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में भी जगह नहीं मिल पाई है.

आप पूछ सकते हैं कि आख़िर दो रैंकिंगों के बीच इतना अंतर क्यों? केंद्रीय मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार, इस सबके के पीछे पर्सेपशन एक प्रमुख कारण है.

क्यू. एस. द्वारा जारी की गई रैंकिंग में ‘पर्सेपशन’ – अर्थात्, किसी भी संस्था के बारे में बाहरी शिक्षाविदों और नियोक्ताओं द्वारा क्या राय रखी जाती है – को बहुत अधिक वरीयता दी जाती है. एचआरडी मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि यह भी एक प्रमुख कारण है कि क्यों भारतीय संस्थान इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में नीचे आए हैं.

दूसरी ओर, भारत सरकार की रैंकिंग प्रणाली, एन.आई.आर.एफ, में शिक्षण प्रणाली और शिक्षण के परिणामों जैसे मापदंडों को अधिक वरीयता दी जाती है.

शिक्षा संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग के मानदंडों के बारे में पनपे इसी संदेह के कारण अब सरकार एनआईआरएफ के अंतर्राष्ट्रीयकरण के बारे में बात कर रही है और अधिकारीगण अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग प्रणालियों से सहमत होने की किसी भी आवश्यकता को खारिज कर रहें हैं.


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इस बारे में नेशनल बोर्ड ऑफ एक्रेडिटेशन (एनबीए) के सदस्य सचिव अनिल नस्सा का कहना है कि ‘हम एनआईआरएफ का इसलिए भी अंतर्राष्ट्रीयकरण करना चाहते हैं क्योंकि हमने रैंकिंग की एक अत्यंत विश्वसनीय प्रणाली विकसित की है.’

एनबीए उच्च शिक्षा संस्थानों को मान्यता देने की प्रक्रिया में शामिल एक सरकारी एजेंसी हैं जो 2015 में एनआईआरएफ की शुरुआत के समय से हीं इस पर काफ़ी निकटता के साथ काम कर रही है.

एक अन्य अधिकारी, जिन्होंने एनआईआरएफ के लिए काफ़ी काम किया है, कहते हैं, ‘हमारी अपनी रैंकिंग किसी भी अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग से बहुत बेहतर है और हमें उनकी कतई आवश्यकता नहीं है. हम धारणा पर बहुत अधिक जोर नहीं देते हैं, क्योंकि यह काफ़ी आसानी से प्रभावित हो सकती है और यही तथ्य हमें दूसरों से बेहतर बनाता है.’ अपनी बात की आगे बढ़ाते हुए उनका यह भी कहना था, ‘किसी भी विदेशी (व्यक्ति या संस्था) को भारत में स्थित विश्वविद्यालय की खूबियों के बारे में क्या पता चलेगा? अनुसंधान की गुणवत्ता के बजाय धारणा पर आधारित रैंकिंग करना त्रुटिपूर्ण कार्य है.’

दुनिया भर की अग्रणी शैक्षिक रैंकिंग रूपरेखाओं में से एक क्यूएस की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, यह अकादमिक प्रतिष्ठा के लिए अपनी रैंकिंग में 40 प्रतिशत वेटेज (वरीयता) देती है.

वेबसाइट की रैंकिंग संबंधी कार्यप्रणाली के अनुभाग में कहा गया है कि ‘हमारे शैक्षणिक सर्वेक्षण के आधार पर, हम दुनिया के विश्वविद्यालयों में शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता के बारे में उनकी राय जानने के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े 100,000 से भी अधिक लोगों की विशेषज्ञ टिप्पणी इकट्ठा करते हैं,’

नियोक्ताओं के बीच प्रतिष्ठा के लिए 10 प्रतिशत का अतिरिक्त वेटेज दिया जाता है, जो क्यू.एस. कर्मचारी सर्वेक्षण से पाप्त लगभग 50,000 प्रतिक्रियाओं पर आधारित होती है. यह सर्वेक्षण नियोक्ताओं से उन संस्थानों की पहचान करने के लिए कहता है जहां से वे अपने सबसे सक्षम, अभिनव, प्रभावशाली कर्मियों का चयन करते हैं. इन दोनो को मिलाकर इस रैंकिंग में धारणा के प्रति वरीयता 50 प्रतिशत तक हो जाती है.

दूसरी तरफ, एनआईआरएफ में शिक्षाविदों और नियोक्ताओं के बीच संस्थान के प्रति धारणा को केवल 10 प्रतिशत का वेटेज दिया जाता है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार, एनआईआरएफ में शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया के लिए 30 प्रतिशत वेटेज है. इसमे शिक्षकों की संख्या, शिक्षक-छात्र अनुपात आदि शामिल होते हैं. इसके बाद अनुसंधान के लिए 30 प्रतिशत और स्नातक कक्षा के परिणामों (ग्रॅजुयेट आउट्कम्स) के लिए 20 प्रतिशत वेटेज आरक्षित रहता है. उनके अनुसार 10 प्रतिशत का अतिरिक्त वेटेज आउटरीच और समावेशिता के लिए होता है. इसमे अन्य राज्यों के छात्रों, महिलाओं तथा आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से विकलांग छात्रों का प्रतिशत शामिल होता है.

एनआईआरएफ के अंतर्राष्ट्रीयकरण की यह सुगबुगाहट उस वक्त सामने आ रही है जब भारतीय संस्थान – यहां तक कि आई. आई.टी, आई.आई.एम और आई. आई. एससी. जैसे प्रमुख संस्थान भी – लगातार वैश्विक सूचियों में अच्छी रैंक लाने में विफल हो रहें हैं. हालाँकि आई. आई.टी – बॉम्बे, 172वें रैक के साथ बुधवार को घोषित 2021 की क्यू एस रैंकिंग में सर्वश्रेष्ठ रैंक वाला भारतीय संस्थान बना हुआ है, लेकिन उसकी रैंकिंग, जो 2020 में 152 थी, में काफ़ी गिरावट आई है. आई. आई.टी – दिल्ली, जो पिछले साल 182 वें स्थान पर थी, अब 193वें स्थान पर फिसल गई है.


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दो साल पहले हीं, मोदी सरकार ने देश के 20 निजी और सार्वजनिक संस्थानों को वैश्विक ख्याति के शैक्षिक केंद्र के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से “इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस” योजना शुरू की थी. इस योजना के तहत सार्वजनिक संस्थानों को अपने अनुसंधान, बुनियादी ढांचे में सुधार, विदेशी शिक्षकों की भर्ती एवं और अधिक अंतरराष्ट्रीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए धन राशि प्रदान की जाती है, तथा निजी संस्थाओं को नियामकों से और अधिक स्वायत्तता दी जाती है.

अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग पर छिड़ी यह बहस केवल क्यू एस रैंकिंग तक ही सीमित नहीं है, बल्कि टाइम्स हायर एजुकेशन (टी.एच.ई.) द्वारा जारी की गई रैंकिग भी इसके ज़द मे है. अंतरराष्ट्रीय तौर पर क्यू एस और टी.एच.ई. सबसे व्यापक रूप से उद्धृत शैक्षणिक रैंकिंगों में से हैं, और छात्रों के साथ-साथ ये दोनों रैंकिग संभावित नियोक्ताओं का भी मार्गदर्शन करती है.

टी.एच.ई.की वेबसाइट के अनुसार, यह शोध, उद्धरण और शिक्षण में से प्रत्येक को 30 प्रतिशत वरीयता देता है. इसके अलावा ‘अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण’ – विदेशी छात्रों और कर्मचारियों की संख्या और विदेशी सहयोग पर आधारित – के लिए 7.5% और औद्योगिक आय – अर्थात अनुसंधान द्वारा उद्योग से प्राप्त आय – के लिए 2.5 प्रतिशत की वरीयता दी जाती है. हालांकि, भारत की सात प्रमुख आईआईटी ने इस वर्ष की टी.एच.ई. विश्व रैंकिंग में भाग लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उनका मापदंड ‘अस्पष्ट’ है. फिर भी वे टी.एच.ई. की एशिया रैंकिंग का हिस्सा बने रहे.

गुरुवार को एनआईआरएफ रैंकिंग की घोषणा करते हुए केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने भी “धारणा” पर अधिक जोर देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग प्रणालियों की आलोचना की थी.

मानव संसाधन विकास मंत्री का कहना था कि “टाइम्स और क्यूएस की रैंकिंग “धारणा” के आधार पर हमारे संस्थानों को काफ़ी कम कर के आंकतीं हैं. मैं इससे सहमत नहीं हूं. हमारे संस्थाओं द्वारा बहुत अच्छे शोध कार्य किए जा रहे हैं. हमें सिर्फ़ धारणा के आधार पर नहीं आंका जा सकता है.”

सरकार द्वारा उनके मानदंडों की इस आलोचना के बारे में पूछे जाने पर, क्यूएस के अनुसंधान निदेशक बेन सॉटर ने दिप्रिंट को ईमेल के ज़रिए बताया कि प्रत्येक रैंकिंग कार्यप्रणाली के अपने फायदे और नुकसान हैं, और उनमें से कोई भी पूर्णतः ‘सही’ नहीं है.

उन्होनें कहा कि किसी भी रैंकिंग विशेष के संदर्भ में धारणा और प्रतिष्ठा के बारे में वरीयता मापदंडों की वैधता की बहस के परे भी धारणा और प्रतिष्ठा का अपना महत्व होता है; ये वाणिज्यिक संगठनों के लिए मायने रखते हैं क्योंकि उन्हें अपने उत्पादों को बेचने का प्रयास करना होता है. इसी तरह शिक्षण संस्थानों के मामले मे इनका महत्व इस कारण होता है क्योंकि इसके माध्यम से वे छात्रों, शिक्षकों, भागीदारों और निवेशकों को उनके क्रियाकलापों में भाग लेने के लिए आकर्षित करने की उम्मीद करते हैं.’


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उन्होंने यह भी कहा कि, ‘एनआईआरएफ की तरह की अधिक विस्तृत बेंचमार्किंग (मानदंडीकरण) भी महत्वपूर्ण है जिसे करने में कोई राष्ट्र हीं सक्षम हो सकता है. यह हमेशा परिचालन गतिविधियों के अधिक क्षेत्रों को कवर करने और वैसे डेटा इकट्ठा करने की क्षमता रखते हैं जो हमें उपलब्ध नहीं हो सकते हैं या जिनकी भौगोलिक सीमाओं के परे तुलना नही की जा सकती. फिर भी, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क दोनों आपस में काफ़ी हद तक एक दूसरे पर निर्भर हैं, शायद एक दूसरे से स्वतंत्र होने के बजाय वे सह-निर्भर अधिक है.’

द प्रिंट ने टी.एच.ई. के मानदंडों पर टिप्पणी के लिए उनके मीडिया एवं संचार विभाग को एक ईमेल भेजा है. उनके जवाब देते हीं इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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