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Sunday, 22 December, 2024
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क्यों बाढ़ की त्रासदी झेलने वाली बिहार की जनता की नियति में और अधिक डूबना ही लिखा है

बिहार के 38 में से 16 जिलों के करीब 29 लाख लोग बाढ़ पीड़ित हैं, लेकिन इनके लिए केवल चार राहत शिविर और 161 सामुदायिक रसोई चलाई जा रही है.

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नई दिल्ली: अभी हम सितंबर के पहले हफ्ते में हैं, लेकिन अभी भी करीब आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. बिहार आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक राज्य के 38 में से 16 जिलों में बाढ़ की स्थिति है. इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या करीब 29 लाख है. वहीं अपना बसा-बसाया घर छोड़ने को मजबूर लोगों की संख्या 2,17,355 है. सरकार की मानें तो पूरे राज्य में बाढ़ के चलते अब तक 53 लोगों की मौतें हुई हैं.

बिहार के लिए बाढ़ कोई नई आपदा नहीं है. दिल्ली से लेकर पटना तक की सरकारें इसे प्राकृतिक आपदा मानती रही हैं और इसके लिए नेपाल से पानी छोड़े जाने को वजह बताती हैं. लेकिन देश के अन्य राज्यों सहित बिहार में भी बाढ़ से होने वाली तबाही में जो बढ़ोतरी हो रही है, उसकी वजह प्राकृतिक के साथ- साथ सरकारी और मानवीय आपदा के रूप में सामने आ रही है.

बाढ़ नियंत्रण व बाढ़ की भविष्यवाणी (फोरकास्टिंग) को लेकर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट सार्वजनिक की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम-2006 न केवल लेटलतीफी का शिकार है बल्कि, इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार भी है. सीएजी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2007 से 2017 के बीच छह राज्यों ने 183 करोड़ का हिसाब केंद्र को नहीं दिया है. इन राज्यों में बिहार के साथ असम, ओडिशा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल है. बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम के मुताबिक परियोजनाओं पर खर्च की गई रकम की ऑडिट स्टेटमेंट रिपोर्ट सौंपने पर ही राज्यों को केंद्र से फंड मिलता है. सीएजी रिपोर्ट की मानें तो 2007 से 2017 के दौरान बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम के तहत राज्यों को 18,000 करोड़ का आवंटन होना था. लेकिन इस अवधि में केवल 4,723 करोड़ रुपये जारी किए.

बिहार के सुपौल स्थित कोसी नवनिर्माण संगठन के महेंद्र यादव कहते हैं कि बाढ़ से पहले बाढ़ के पूर्वानुमान की बात की जाती है. लेकिन जमीन पर इसके लिए कोई व्यवस्था नहीं है. वहीं, वे बाढ़ को लेकर राज्य सरकार की मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) को लेकर भी सवाल उठाते हैं. महेंद्र यादव कहते हैं, ‘सरकार की एसओपी के तहत ये निर्धारित किया गया है कि बाढ़ से पहले क्या करना है, बाढ़ के दौरान क्या करना है और बाढ़ के बाद क्या करना है, लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता है. अभी बाढ़ प्रभावित इलाकों में रिलीफ कैंप लगाया जाना चाहिए. लेकिन अधिकांश जगह ये नहीं चल रहा है. बाढ़ सहायता राशि 6,000 रुपये मिलने में भी देरी होती है और नुकसान को देखते हुए यह रकम काफी कम है.’

महेंद्र यादव की इन बातों की पुष्टि आपदा प्रबंधन विभाग की प्रेस रिलीज से भी होती है. इसके मुताबिक 16 जिलों में केवल चार राहत शिविर चलाए जा रहे हैं और इनमें रहने वालों की संख्या 496 है. यानी चार जिलों पर एक राहत शिविर है. वहीं इन 16 जिलों के बाढ़ प्रभावित गांवों की संख्या 1975 है, लेकिन इन गांवों में रहने वाले 29 लाख पीड़ितों के लिए केवल 161 सामुदायिक रसोई चलाई जा रही है.

वहीं, अगर हम बाढ़ पूर्व तैयारियों की बात करें तो इसके तहत संभावित क्षेत्र में ऊंचे स्थानों का निर्धारण भी होता है, जिससे बाढ़ आने की स्थिति में प्रभावित लोगों को रहने का ठिकाना मिल सके. लेकिन ये बातें भी कागजों पर ही दिखाई देती हैं. सीमांचल और कोसी के जिलों में बाढ़ प्रभावित इलाकों की रिपोर्टिंग के दौरान हमने बाढ़ प्रभावित गांवों के भीतर इस तरह की कोई जगह दिखाई नहीं दी. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांश पीड़ित ऊंचे तटबंध सहित रेलवे पटरी और सड़कों के किनारे अपने बुरे दिनों को काट रह रहे हैं.


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बेढ़ंगा विकास और बाढ़ की त्रासदी

बिहार में बाढ़ की स्थिति पीड़ितों के लिए पहले से अधिक मारक साबित हो रही है. नदी का स्तर कम होने के बाद भी लोगों को जलजमाव की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. भागलपुर स्थित रंगरा के बाढ़ पीड़ित मुहम्मद औरंगजेब बाढ़ का पानी कम होने के बाद भी जलजमाव की ओर इशारा करते हुए प्रखण्ड कार्यालय और एनएच-31 को जोड़ने वाली सड़क के किनारे हमें बताते हैं, ‘यहां सड़क पर जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं की गई. अब देखिए…..यहां का पानी ठहर गया है और इसके कम होने में कई हफ्ते का समय लगेगा और अगर फिर बारिश हो गई तो और भी मुसीबत है.
वहीं, अररिया के सिकटी में बकरा नदी किनारे हर साल बाढ़ की त्रासदी झेलने वाले बाढ़ पीड़ितों की शिकायत है कि यहां सड़क, पुल आदि बनाने का जो भी विकासात्मक कार्य किया जाता है, उसमें स्थानीय लोगों से सलाह-मशविरा नहीं किया जाता है. इसका परिणाम यह होता है कि सरकार के जिन कार्यों से यहां की जनता को फायदा होना चाहिए, उनसे इन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है.

इस बारे में महेंद्र यादव कहते हैं, ‘विकास संबंधी योजनाओं का सही से कार्यान्वयन नहीं किया गया है, जिसके चलते इसके बुरे नतीजे धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं. इसी का नतीजा है कि हमारे लिए बाढ़ पहले से अधिक मारक साबित हो रही है.’ इसके अलावा वे तटबंधों के निर्माण को लेकर भी सवाल उठाते हैं.

महेंद्र यादव कहते हैं, ‘नदी के विज्ञान को समझे बिना तटबंधों का निर्माण बाढ़ से तबाही की एक बड़ी वजह है. यह देखा गया है कि कोसी तटबंधों की लंबाई जितनी बढ़ती जा रही है, बाढ़ की त्रासदी भी उसी अनुपात में बढ़ रही है.’ वे नदियों पर बनने वाले तटबंधों की समीक्षा किए जाने पर जोर देते हैं.

जलवायु परिवर्तन का असर

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अगस्त, 2021 में एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में वैश्विक तापमान के बढ़ने का भारत पर भी बुरा असर होने की बात कही गई है. इसमें बारिश में बढ़ोतरी की संभावना जाहिर की गई है.

दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के डिपार्टमेंट ऑफ रीजनल वाटर स्टडीज में लेक्चरर रंजना चौधरी हमें बताती हैं, ‘बिहार में जो मानसून क्लाउड बनते हैं, वे बंगाल की खाड़ी से संबंधित है. बंगाल की खाड़ी में क्लाउड कैसे बन रहे हैं, उस पर काफी कुछ निर्भर करता है. हम ये देख रहे हैं कि मानसून में देरी हो रही है. इसके अलावा बारिश लगातार नहीं होती है, वे कई चरणों में हो रही है. इसके चलते अत्यधिक वर्षा और सूखे की एक अवधि जैसी परिस्थिति पैदा हो जाती है.’

वहीं आईपीसीसी की इस रिपोर्ट में समुद्र तल के तापमान और इसके परिणामस्वरूप साइक्लोन की संख्या में भी बढ़ोतरी की संभावना बताई गई है. रंजना चौधरी आगे कहती हैं, ‘साइक्लोन अब अधिक होंगे. तटीय इलाकों में साइक्लोन अधिक आ रहे हैं और भीतरी इलाकों में मानसून अधिक समय तक रह रहा है.’ हम रंजना चौधरी की इन बातों को बिहार से जोड़कर देख सकते हैं क्योंकि नेपाल और उत्तर बिहार में अगस्त के आखिरी हफ्ते में भी भारी बारिश देखी गई है.

जलवायु परिवर्तन के अलावा रंजना चौधरी बिहार में बाढ़ की एक वजह नेपाल के पहाड़ी इलाकों में विकास परियोजनाओं को भी मानती हैं. वे कहती हैं, ‘बिहार में जो बाढ़ की स्थिति पैदा हो रही है, उसकी वजह विकास परियोजनाओं के चलते नेपाल के पहाड़ी इलाकों में जंगलों को खत्म करना भी है. इसकी वजह से जो सॉयल है, वह लूज हो जाता है और वह पानी के साथ बहकर आ जाता है. बिहार में पहले इसे अच्छा माना था, लेकिन बाढ़ की फ्रीक्वेंसी अधिक होने पर इसका अच्छा असर होने की जगह बुरा असर होता है.’ इस सिल्ट (गाद) की समस्या से सबसे अधिक बिहार की शोक कही जाने वाली कोसी नदी के किनारे रहने वाले जूझ रहे हैं.

इस तरह हम देखते हैं कि बिहार के लिए बाढ़ पहले से एक त्रासदी रही है. लेकिन अब इससे भारी तबाही हो रही है. इसकी वजह जलवायु परिवर्तन के साथ सरकार के प्राथमिकता में बाढ़ नियंत्रण व पीड़ितों का न होना भी है. आम तौर पर ये माना जाता है कि बाढ़ की समस्या केवल तीन-चार महीनों की है. लेकिन हर साल बाढ़ की त्रासदी का सामना करने वाले इसके चक्र में आजीवन पीसते रहते हैं.

कोसी-सीमांचल क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति को लेकर इस इलाके के ही विख्यात साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘डायन कोसी’ नामक रिपोर्टाज लिखा था. इसमें उन्होंने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के जीवन का वर्णन इन शब्दों में किया था, ‘साल में छह महीने बाढ़, महामारी, बीमारी और मौत से लड़ने के बाद बाकी छह महीनों में दर्जनों पर्व और उत्सव मनाते हैं. पर्व, मेले, नाच, तमाशे! सांप पूजा से लेकर सामां-चकेवा, पक्षियों की पूजा, दर्द-भरे गीतों से भरे हुए उत्सव! जी खोल कर गा लो, न जाने अगले साल क्या हो! इलाके का मशहूर गोपाल अपनी बची हुई अकेली बुढ़िया गाय को बेच कर सपरिवार नौटंकी देख रहा है.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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