नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि उसे कार्यवाही में कोई गड़बड़ी या कानून में कोई स्पष्ट त्रुटि नहीं दिखी, इसलिए उसने कार्यकर्ता मेधा पाटकर की मानहानि मामले में दोषसिद्धि को रद्द करने से इनकार कर दिया. यह मामला दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा दायर किया गया था.
कोर्ट ने कहा कि जिन आदेशों को चुनौती दी गई थी, वे “रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों और लागू कानून पर उचित विचार के बाद” दिए गए थे, और 70 वर्षीय पाटकर यह दिखाने में असमर्थ रहीं कि इसमें कोई “गंभीर दोष” या “स्पष्ट अन्याय” हुआ है जिससे हस्तक्षेप किया जाए.
यह मामला करीब 25 साल पहले की घटनाओं से जुड़ा है. 2000 में सक्सेना ने मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के खिलाफ एक सार्वजनिक विज्ञापन प्रकाशित कराया था, जिसके जवाब में पाटकर ने एक प्रेस नोट जारी किया था. उसी को लेकर यह मानहानि का केस दायर किया गया.
जस्टिस शालिंदर कौर ने मंगलवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट और सेशंस कोर्ट के फैसलों में कोई अन्याय नहीं हुआ है, जिनके खिलाफ पाटकर ने चुनौती दी थी. हालांकि, कोर्ट ने पाटकर को थोड़ी राहत दी है और उनके प्रोबेशन की एक शर्त में बदलाव किया.
कोर्ट ने फैसला दिया कि अब पाटकर को हर तीन महीने में व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में पेश नहीं होना पड़ेगा. इसके बजाय वे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेश हो सकती हैं या उनके वकील उनकी ओर से पेश हो सकते हैं. उनके प्रोबेशन की बाकी सभी शर्तें जस की तस रहेंगी.
कोर्ट ने मामले में एक अतिरिक्त गवाह पेश करने की पाटकर की अर्जी को भी खारिज कर दिया और उनकी याचिका को “तुच्छ और भ्रामक” बताया.
यह लंबी कानूनी लड़ाई पाटकर और सक्सेना के लंबे समय से चले आ रहे राजनीतिक और वैचारिक विरोध को उजागर करती है. सक्सेना ने पाटकर के खिलाफ एक और मानहानि का मुकदमा भी दायर किया है, जो एक टीवी इंटरव्यू में दिए गए उनके बयानों पर आधारित है.
केस की शुरुआत और कोर्ट की कार्यवाही
साल 2000 में, अहमदाबाद की एनजीओ ‘नेशनल काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज’ के अध्यक्ष रहे सक्सेना ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था – ‘सच्चा चेहरा मिस मेधा पाटकर और उनका नर्मदा बचाओ आंदोलन.’ यह विज्ञापन NBA यानी नर्मदा बचाओ आंदोलन की आलोचना करता था. यह आंदोलन मेधा पाटकर ने नर्मदा नदी पर बड़े बांधों के निर्माण के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों के खिलाफ शुरू किया था.
इसके जवाब में, पाटकर ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसका शीर्षक था – ‘एक देशभक्त की सच्ची बातें – एक विज्ञापन के जवाब में’. इसमें उन्होंने दावा किया कि सक्सेना पहले NBA के समर्थक थे. उन्होंने कहा कि सक्सेना ने मालेगांव का दौरा किया था, आंदोलन की तारीफ की थी और लालभाई ग्रुप की ओर से लोक समिति (NBA से जुड़ा संगठन) को 40,000 रुपये का चेक दान किया था.
उन्होंने आगे कहा कि वह चेक बाउंस हो गया था और यह सवाल उठाया कि सक्सेना और लालभाई ग्रुप के बीच क्या संबंध हैं. प्रेस नोट का अंत इस सवाल से हुआ: “इनमें से कौन ज़्यादा देशभक्त है?”
सक्सेना ने इस प्रेस नोट को मानहानिकर बताते हुए पाटकर के खिलाफ 2001 में अहमदाबाद की एक अदालत में आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद 2003 में यह केस दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया.
20 से अधिक वर्षों की कानूनी कार्यवाही के बाद, 24 मई 2024 को दिल्ली की एक मजिस्ट्रेट अदालत ने पाटकर को भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के तहत आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराया.
इसके बाद, पाटकर को पांच महीने की साधारण कैद और सक्सेना को मुआवज़े के तौर पर 10 लाख रुपये का जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई. ट्रायल कोर्ट ने माना कि पाटकर ने जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण बयान दिए, जिनका उद्देश्य सक्सेना की छवि को नुकसान पहुंचाना था, जैसे कि उन पर “गुजरात की जनता और उनके संसाधनों को बिल गेट्स और वोल्फेन्सन के सामने गिरवी रखने” और “गुजरात सरकार के एजेंट” के तौर पर काम करने का आरोप लगाया गया.
पाटकर ने इस सज़ा को साकेत सेशंस कोर्ट में चुनौती दी, जिसने 2 अप्रैल 2024 को ट्रायल कोर्ट का फैसला बरकरार रखा. हालांकि, 8 अप्रैल को सेशंस कोर्ट ने उन्हें प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट, 1958 के तहत प्रोबेशन (परिहार) का लाभ दिया. उनकी जेल की सज़ा निलंबित कर दी गई और उन्हें 25,000 रुपये का प्रोबेशन बॉन्ड भरने और सक्सेना को 1 लाख रुपये मुआवज़े के तौर पर जमा करने का निर्देश दिया गया, जो पहले 10 लाख रुपये था.
हालांकि इस राहत के बावजूद, पाटकर ने प्रोबेशन बॉन्ड भरने और मुआवज़ा जमा करने के निर्देशों का पालन नहीं किया. नतीजतन, 23 अप्रैल को साकेत कोर्ट ने उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया. कोर्ट ने माना कि पाटकर ने सज़ा के आदेश की जानबूझकर अवहेलना की और न तो कोर्ट में पेश हुईं और न ही प्रोबेशन की शर्तें मानीं.
गैर-जमानती वारंट आमतौर पर तब जारी होता है जब आरोपी के कानूनी प्रक्रिया से भागने की आशंका हो. इसके तहत तत्काल गिरफ्तारी संभव होती है. पाटकर को दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिया, लेकिन उसी दिन उन्हें छोड़ दिया गया जब उन्होंने बॉन्ड और मुआवज़े की शर्तें पूरी कर दीं. उनके वकील ने कोर्ट को बताया कि वह कोर्ट के आदेश का पालन करने जा रही थीं तभी उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
इस बीच, पाटकर ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी सज़ा और सेशंस कोर्ट द्वारा ट्रायल कोर्ट में समय-समय पर पेश होने के आदेश को चुनौती दी. हाई कोर्ट ने अंतरिम राहत देते हुए उनकी सज़ा को निलंबित किया और 25,000 रुपये का निजी मुचलका भरने पर ज़मानत दे दी.
मेधा पाटकर पर्यावरण और मानवाधिकार के मुद्दों पर अपने काम के लिए जानी जाती हैं, खासकर NBA के ज़रिए. उन्होंने महाराष्ट्र की लवासा हिल सिटी जैसी परियोजनाओं और मुंबई में झुग्गियों को हटाने के खिलाफ जनहित याचिकाओं में भी हिस्सा लिया है.
रुचि भट्टार दिप्रिंट स्कूल ऑफ जर्नलिज्म की पूर्व छात्रा हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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