नई दिल्ली: जिसने भी भारत में ठेलेवाले या सड़क किनारे खड़े विक्रेता से मोल-भाव किया है उन्हें पता होता है कि वो सामान की निर्धारित कीमत से ज्यादा का दाम लगाते हैं और इससे वो एक अच्छा मार्जिन कमाते हैं. इसके बावजूद, जब कमाई और व्यावसायिक क्षमता की बात आती है तो भारत में फल और सब्जियां बेचने को आम तौर पर ‘मूंगफली’ से जोड़ कर देखा जाता है.
यह समझने के लिए कि ऐसा क्यों है, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा के प्रख्यात विश्वविद्यालयों के स्कॉलर्स के सहयोग से दिल्ली में 1,500 से ज्यादा फल और सब्जी विक्रेताओं के बाजार के व्यवहार पर एक स्टडी की है.
रिसर्चर्स को पता चला कि स्थानिय विक्रेता अपनी खरीद लागत से लगभग 29 फीसदी ज्यादा कमाते हैं. जब छूट की बात आती है तो एक विक्रेता 21 प्रतिशत के मार्जिन की कमाई कर सकता है.
वहीं, कुछ ही विक्रेता हैं जो अपना कारोबार बढ़ाने की कोशिश करते हैं. हालांकि बात जब बाजार में प्रतिस्पर्धा और विस्तार की आती है तो वे जोखिम-प्रतिकूल व्यवहार दिखाते हैं.
अमेरिका स्थित गैर सरकारी संगठन नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च (एनबीईआर) के लिए अगस्त 2022 वर्किंग पेपर में लेखक ने पूछा: विक्रेता को ज्यादा सामान स्टॉक करने, कम कीमतें करने या उग्र प्रतिस्पर्धा करने से क्या रोकता है?’
अपने जवाब के लिए, उन्होंने सिर्फ दिल्ली में ही सर्वे नहीं किया बल्कि कोलकत्ता में भी एक ‘प्रयोग’ किया यह देखने के लिए कि अपने माल की सूची में विस्तार के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने के लिए क्या वो विक्रेता को प्रोत्साहित कर सकते हैं – उन्हें पता चला कि विक्रेताओं ने प्रयोग में भागीदारी के रूप में ज्यादा मुनाफा कमाया, इसके कुछ ही देर बाद वो अपने पुराने तौर-तरीकों से काम करने लगे.
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दिल्ली में फलों के बाजार का प्रचलन
लेखक ने पहले 1,179 स्ट्रीट वेंडर्स और 309 फल विक्रेता पर सर्वे किया जो दक्षिण दिल्ली में निर्धारित साप्ताहिक बाजार में आते थे.
इस सर्वे के आधार पर लेखकों को दिल्ली के फल बाजार की कुछ मुख्य विशेषताएं को देखने को मिलीं.
पहली, विक्रेताओं में बहुत प्रतिस्पर्धा है. स्टडी के मुताबिक एक फल विक्रेता को 25 मीटर के दायरे में लगभग तीन से चार प्रतियोगी मिलने की संभावना है.
रिपोर्ट कहती है कि एक और निरीक्षण यह था कि ज्यादातर फल विक्रेता दिन भर खाली बैठे रहते हैं और कुछ घंटों के लिए काम करते हैं. औसतन एक फल विक्रेता एक घंटे में 15 ग्राहकों को देखता है, जिसमें शाम और सुबह आमतौर पर सबसे व्यस्त समय होता है. टॉप 5 फीसदी फल विक्रेता एक घंटे में 42 ग्राहकों को देख सकते हैं.
आखिरी, स्टडी से पता चला है कि फल विक्रेताओं में उत्पाद भेदभाव उच्च स्तर पर है. इसलिए, भले ही 25 मीटर के दायरे में एक फल विक्रेता के लिए चार और प्रतियोगी हों लेकिन उनमें से सिर्फ एक ही उसी फल को बेचने की संभावना रखता है.
इसे देखते हुए, सर्वे में लेखक ने इसे ‘पहेली’ के रूप में बताया है. विक्रेताओं के पास अधिक ग्राहकों की सेवा करने की क्षमता है, उनमें अपने पड़ोसियों से बाजार में ज्यादा हिस्सेदारी हथियाने के लिए अपनी कीमतें कम करने और उत्पादों की अधिक किस्म का स्टॉक करने की भी क्षमता है. इसके बावजूद, वे अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए इन तरीकों को नहीं आजमाते हैं.
लेखकों ने इसके लिए कुछ स्पष्टीकरण दिए हैं: खास विक्रेताओं के लिए ‘वफादारी’ जैसे कारकों की वजह से इनइलास्टिक कस्टूमर ( यानी कीमतें बढ़ने या कम होने पर उपभोक्ताओं की खरीदारी की आदतें एक जैसी रहती हैं) मांग, विक्रेताओं की ओर से अपने उत्पादों में विविधता लाने के लिए ज्ञान/ क्षमता /पैसों की कमी, यह जानने के बावजूद कि यह फायदेमंद है या यह महसूस नहीं कर पाता है कि विस्तार उनके पक्ष में काम कर सकता है.
लेखकों के अनुसार, विक्रेताओं के बीच स्पष्ट या अस्पष्ट मिलीभगत या कई व्यवहारिक कारकों से होने वाली इनर्शियल बिजनेस प्रैक्टिक्स (संगठन की बाहरी परिवर्तनों की स्थिति में आंतरिक परिवर्तन करने की क्षमता) इस व्यवहार को लंबे समय तक बनाए रख सकती हैं.
लेकिन, यह यहीं खत्म नहीं होता है. यह समझने के लिए कि ये बाजार ‘पूर्ण प्रतिस्पर्धा’ का प्रदर्शन क्यों नहीं करते हैं, जहां विक्रेता लंबे समय तक बीमा नहीं ले सकते हैं लेखकों ने पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के सब्जी बाजारों में एक प्रयोग किया.
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अपूर्ण प्रतिस्पर्धा क्या समझाती है?
लेखकों ने कोलकाता में 20 बाजारों की स्टडी की लेकिन बजट के कारण, उन्होंने सिर्फ तीन – चारु मार्केट, सरकार बाजार और आलमबाजार में ही प्रयोग किया.
इन तीन बाजारों में, विद्वानों ने विक्रेताओं को 20 रुपए प्रति किलोग्राम पर गाजर खरीदने और बेचने के लिए नकद सब्सिडी दी – जो कि सब्सिडी से पहले उनकी औसत लागत थी.
लेखकों ने यह सब्सिडी तीनों बाजारों के उन सभी विक्रेताओं को दी जिन्होंने गाजर की खरीद की और कम मटर बेचने वालों को 30 रुपए प्रति किलो की दर से दी.
लेखकों को पता चला कि सब्सिडी अवधि के दौरान, तीन बाजारों में विक्रेताओं के गाजर बेचने की संभावना 57 प्रतिशत अधिक थी और उन बाजारों की तुलना में मटर बेचने की संभावना 39 प्रतिशत अधिक थी जहां ऐसी कोई सब्सिडी नहीं दी गई थी.
लेखकों ने पाया कि विक्रेता, सब्सिडी लेने के बाद भी, सब्जियों को बाजार मूल्य से नीचे बेचने की प्रवृत्ति नहीं रखते थे, नतीजतन, 90 प्रतिशत सब्सिडी लेने वाले विक्रेताओं ने इन दो वस्तुओं की बिक्री पर अपना मुनाफा कमाया है.
सब्सिडी हटाने के बाद, लेखकों को इन सब्जियों को बेचने के लिए प्रतिभागी विक्रेताओं में कोई महत्वपूर्ण झुकाव नहीं मिला. यह समझने के लिए कि ऐसा क्यों हुआ, लेखकों ने उन पर एक सर्वे किया.
सर्वे में, विक्रेताओं ने खुलासा किया कि बाजार में पहले से ही बहुत सारे विक्रेता मटर और गाजर का व्यापार कर रहे थे और अगर वे इन सब्जियों की खरीद करते हैं, तो यह अन्य विक्रेताओं को नाराज कर सकता है. कुछ ने एक नई सब्जी में भी अपने आत्मविश्वास को दिखाया – उन्हें सही कीमत का डर था, थोक व्यापारी द्वारा अधिक शुल्क लिया जा रहा था और गुणवत्ता की चिंता आदि.
ये प्रतिक्रियाएं ‘नुकसान से बचने’ के अनुरूप थीं – सब्सिडी अवधि के दौरान ज्यादा लाभ कमाने के बावजूद, भविष्य में छोटे नुकसान की संभावना उन्हें अपनी प्रथाओं को बदलने से रोकने के लिए पर्याप्त थी.
संक्षेप में, लाभ कमाने वालों और विस्तार के लाभों को जानने के बावजूद, विक्रेताओं का जोखिम-प्रतिकूल व्यवहार बाजारों में प्रतिस्पर्धा को कम करता प्रतीत होता है.
इन निष्कर्षों से लेखकों ने नोट किया कि विकासशील देशों में छोटे विक्रेताओं और उपभोक्ताओं को फायदा पहुंचाने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की जरूरत है.
लेखकों का निष्कर्ष हैं कि मिलीभगत और/या इनर्शियल बिजनेस प्रैक्टिक्स में आसानी के कारण हो सकते हैं कि बाजारों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के उद्देश्य से किए गए हस्तक्षेपों को अब तक की सबसे सीमित सफलता मिली है.
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