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Friday, 3 May, 2024
होमदेश‘कौने होंगे लाभार्थी, कहां से आएगा राजस्व’- पार्टियों से क्या जानने की कोशिश है EC का प्रस्ताव

‘कौने होंगे लाभार्थी, कहां से आएगा राजस्व’- पार्टियों से क्या जानने की कोशिश है EC का प्रस्ताव

चुनाव आयोग की प्रस्तावित नीति के तहत यह ब्योरा मांगा जाना है कि कोई पार्टी खर्चों को युक्तिसंगत कैसे बनाएगी और पर्याप्त धन न होने की स्थिति में उधार लेने की क्या योजना होगी.

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नई दिल्ली: भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने चुनावी वादों के वित्तीय प्रभाव पर राजनीतिक दलों से ब्यौरा मांगने संबंधी जो नीति प्रस्तावित की है, उसके तहत राजनीतिक दलों को चुनाव से पूर्व इसका पूरा लेखा-जोखा तैयार करना होगा कि उनके प्रत्येक वादे पर कुल कितना खर्च आने वाला है और उसकी पूर्ति कहां से की जाएगी.

प्रस्तावित नीति—जिसका मसौदा चुनाव आयोग ने तैयार किया है और जो डाउनलोड करने के लिए उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध है—के तहत सभी राजनीतिक दलों को इस बारे में विस्तृत ब्यौरा पेश करने की जरूरत होगी कि राजस्व प्राप्तियां बढ़ाने के लिए उनकी क्या योजना है, वे अपना खर्च किस तरह युक्तिसंगत बनाएंगे और यदि संबंधित राज्य या केंद्र सरकार के पास अपने वादों को पूरा करने लिए पर्याप्त धन न हुआ तो उसे कहां से उधार लेंगे.

प्रस्ताव के मुताबिक, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (विधानसभा चुनावों के दौरान) और केंद्र सरकार (आम चुनावों के दौरान) को चुनाव तिथियों की घोषणा के बाद एक निर्धारित समयसीमा के भीतर ईसीआई को कुछ अन्य वित्तीय विवरणों के साथ-साथ राजस्व प्राप्ति, व्यय और उधार लेने संबंधी पूरा ब्यौरा उपलब्ध कराना होगा.

4 अक्टूबर को राजनीतिक दलों को लिखे गए एक पत्र में चुनाव आयोग ने इस प्रस्ताव पर सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों से जवाब मांगा है और और उन्हें 19 अक्टूबर तक आयोग को अपने विचार बताने को कहा है.

यह कदम ऐसे समय उठाया गया है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से गत 16 जुलाई को एक पब्लिक मीटिंग में ‘रेवड़ी संस्कृति’ को लेकर की गई टिप्पणी के बाद इस मसले पर बहस ने जोर पकड़ा है, और साथ ही राजनीतिक दलों की तरफ ‘मुफ्त सुविधाओं वाले असंभव वादे’ किए जाने को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच के समक्ष याचिका दायर करके चुनौती दी जा चुकी है.

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मोदी की टिप्पणी को लेकर विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी जिनका आरोप है कि भारतीय जनता पार्टी की कई योजनाएं इसी श्रेणी में आती हैं.

ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल—जो गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भाजपा को कड़ी टक्कर देने की कोशिश में जुटे हैं—ने मुफ्तखोरी बनाम कल्याणकारी कार्यों के संदर्भ में पीएम की टिप्पणी के मुकाबले के लिए विशेष रूप से आक्रामक रणनीति अपना ली है.

वहीं, चुनाव आयोग की प्रस्तावित नीति पर दिप्रिंट से बातचीत करते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों (सीईसी) एन. गोपालस्वामी और एस.वाई. कुरैशी ने अलग-अलग राय जाहिर की.

गोपालस्वामी ने कहा कि इससे राजनीतिक दल ‘अधिक जिम्मेदार’ बनेंगे और ‘मतदाताओं में भी जागरूकता बढ़ाने’ में मदद मिलेगी. वहीं, कुरैशी का मानना है कि चुनाव आयोग को घोषणापत्र पर सवाल नहीं उठाना चाहिए और अगर किसी पार्टी के वादे ‘बेतुके या वास्तविकता से परे’ हैं तो उन्हें बेनकाब करने का काम उनके राजनीतिक विरोधियों या मीडिया का होना चाहिए.


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क्या है चुनाव आयोग का एक्शन प्लान

प्रस्तावित मसौदे को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटा गया है. दिप्रिंट ने यह पता लगाने की कोशिश की, आखिर इसमें कहा क्या गया है.

पहले खंड के तहत राजनीतिक दलों को अपने प्रत्येक चुनावी वादे के बारे में विस्तार से बताना होगा. उन्हें जानकारी देनी होगी कि इसका कवरेज क्षेत्र कितना होगा, क्या यह व्यक्तियों, परिवारों पर केंद्रित है या फिर पूरे घर पर, किस आबादी को ध्यान में रखकर वादा किया गया है और इसके लाभार्थियों की अनुमानित संख्या कितनी होगी.

फिर उनसे प्रति लाभार्थी अनुमानित व्यय और संबंधित वादे को पूरा करने के लिए संभावित कुल व्यय का विवरण पेश करने की अपेक्षा की जाती है.

दूसरा खंड राजनीतिक दलों के एक वित्तीय कार्ययोजना का विवरण साझा करने पर केंद्रित है, जिसमें उनसे यह जानने की कोशिश की जाएगी कि अपने वादों को पूरा करने के लिए आवश्यक कुल व्यय को वित्तपोषित कैसे करेंगे, खासकर यदि राज्य में घाटे का बजट हो तो.

ऐसे मामले में उन्हें इसकी पूरी योजना बतानी होगी कि राजस्व प्राप्तियां कैसे बढ़ाना चाहेंगे—उदाहरण के तौर पर, वे मौजूदा करों को बढ़ाने, नए कर लाने, या विनिवेश और परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण जैसे कठोर बजट उपाय अपनाने की योजना बना रहे हैं.

उन्हें ब्यौरा देना होगा कि क्या वे वर्तमान व्यय को युक्तिसंगत बनाने की योजना बना रहे हैं, या फिर अतिरिक्त उधार लेने की योजना बना रहे हैं, और उनकी प्रस्तावित कार्ययोजना राज्य की राजकोषीय स्थिरता जैसे ऋण-से-जीडीपी को कैसे प्रभावित करेगी.

तीसरे खंड में केंद्र सरकार और संबंधित राज्यों को राजस्व प्राप्तियों, व्यय, शुद्ध उधार, बकाया देनदारियों, सकल राज्य घरेलू उत्पाद का ब्रेक-अप और वित्तीय स्थिरता अनुपात जैसे विवरण देने की जरूरत बताई गई है.

‘चुनाव आयोग को घोषणापत्र पर सवाल नहीं उठाना चाहिए’

पूर्व सीईसी गोपालस्वामी ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं इसी (ईसीआई की प्रस्तावित नीति) को व्यापक स्तर पर दो संदर्भों में देखता हूं… पहला, यह राजनीतिक दलों को और अधिक जिम्मेदार बनाने का एक प्रयास है. जब वे चुनावी वादे करें तो मतदाताओं के प्रति अधिक जवाबदेह हों. दूसरा, यह कदम मतदाताओं को जागरूक करने और राजनीतिक दलों के किए वादों के आकलन में उनकी मदद करने की दिशा में कारगर साबित होगा. जहां तक ईसीआई की तरफ से ऐसी नीति पर प्रभावी ढंग से और पूरी कुशलता के साथ अमल करने की संभावनाओं की बात है तो मुझे लगता है कि इस पर टिप्पणी करना अभी थोड़ी जल्दबाजी होगी.’

हालांकि, कुरैशी का कहना है कि राजनीतिक दलों के चुनावी वादों पर कैसे अमल होगा और इसके क्या निहितार्थ है, यह मसला संसद और राज्य विधानसभाओं पर छोड़ दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से ऐसे दिशा-निर्देश तैयार करने को कहा था जिनसे चुनावी घोषणापत्र की सामग्री को नियंत्रित किया जा सके. राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग का हालिया पत्र इसी दिशा में एक कदम है. लेकिन मेरी राय यही है कि राजनीतिक दलों के वादों, उनके कार्यान्वयन और निहितार्थ पर बहस संसद और विधानसभाओं में होनी चाहिए.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे लगता है कि चुनाव आयोग को घोषणापत्र पर सवाल नहीं उठाना चाहिए. यदि किसी राजनीतिक दल के वादे बेतुके या वास्तविकता से परे हैं तो उन्हें बेनकाब करना उनके राजनीतिक विरोधियों और मीडिया का काम है. और मतदाता भी वादे याद रखते हैं. वे हमेशा अच्छा प्रदर्शन करने वालों का साथ देते हैं और झूठे वादे करने वालों को दंडित करना भी जानते हैं.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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