नई दिल्ली: हाथरस में 20 वर्षीय दलित महिला के साथ कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले ने उत्तर प्रदेश के ठाकुरों को स्पॉटलाइट में ले आया है, क्योंकि सभी चारों आरोपी इसी समुदाय से हैं.
यह मामला एक शक्तिशाली ठाकुर राजनीतिक नेता कुलदीप सिंह सेंगर मामले के लगभग एक साल बाद सामने आता है, जिसने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी का प्रतिनिधित्व किया और फिर एक विधायक के रूप में भाजपा का, जिसे दोषी ठहराया गया और 2017 में उन्नाव में 17 वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. उन्नाव मामले में लोगों में भारी आक्रोश था, क्योंकि अदालत ने पाया था कि लड़की के जीवन पर आ पड़ी थी, और उसके पिता को सेंगर के इशारे पर मार दिया गया था. इन दोनों मामलों में, ठाकुरों की ताकत को इन अपराधों के पीछे एक संभावित कारक के रूप में जिक्र किया गया.
यह तथ्य है कि योगी आदित्यनाथ एक ठाकुर हैं, लगभग 20 वर्षों में उत्तर प्रदेश के पहले ऊंची जाति के मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने ‘ठाकुरवाद की वापसी’ की धारणा को उभरने दिया है- इस जाति के लोगों को अनुचित प्रमुखता दी जा रही है, कुछ प्रशासन में, वर्तमान और पूर्व अधिकारी पदों पर, सत्तारूढ़ भाजपा और अन्य ने इसे जोरदार तरीके से नकारा है.
लेकिन उत्तर प्रदेश की अन्य बहुत सी बातों की तरह, जाति और सत्ता की राजनीति कोई साधारण ब्लैक एंड ह्वाइट मामला नहीं है. इसलिए, दिप्रिंट ने इस सवाल के जवाब को गहरे तक तलाशा है- अभी उत्तर प्रदेश के ठाकुर कौन हैं, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शक्ति पर उनकी पकड़ की क्या व्याख्या हैं, और वास्तव में ठाकुर होने का क्या मतलब है, एक पहचान है जो इस समुदाय से काफी संबंध रखती है जिसे वह गर्व से अपनी आस्तीन पर धारण करते हैं.
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जमीदार, राजनीतिक तौर पर ताकतवर अभिजात्य वर्ग
वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार, ब्राह्मणों का उद्भव भगवान ब्रह्मा के सिर से हुआ था, ठाकुर (क्षत्रिय) सृष्टिकर्ता की भुजा से पैदा हुए. वर्ण व्यवस्था में उनकी श्रेष्ठ स्थिति, उनकी आर्थिक हैसियत के साथ जुड़ी हुई थी, जो उन्हें एक राजनीतिक ताकत प्रदान करती है, कोई भी पार्टी उनसे अलग जाने का जोखिम नहीं उठा सकती.
उपनिवेश काल में राजपूतों के नाम से जाने जाने वाले ठाकुर उत्तर प्रदेश के पूर्ववर्ती राजा, महाराजा, जमींदार और तालुकदार रहे हैं, जिनकी जनसंख्या महज 7-8 प्रतिशत है बावजूद राज्य में 50 प्रतिशत से अधिक भूमि का स्वामित्व बना रखा है. वास्तव में ठाकुरों ने जनसंख्या के विषम अनुपात में शक्ति, धन और सामाजिक प्रतिष्ठा का हिस्सा हासिल किया है.
साफ्ताहिक इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) में प्रकाशित एक पत्र के अनुसार, 47 प्रतिशत ठाकुर उत्तर प्रदेश के शीर्ष 20 प्रतिशत धन के मालिक हैं.
आजादी के बाद कई दशकों तक ठाकुरों ने ब्राह्मणों का पक्ष लिया- आज भी उच्च जातीय मत को प्रायः एक गुट में माना जाता है. स्वतंत्र भारत के प्रथम 42 वर्षों में उत्तर प्रदेश के 14 मुख्यमंत्रियों की सूची में इस बात का संकेत है कि इस शक्ति का उपभोग उच्च जातियों ने किया जिनमें पांच ब्राह्मण, तीन ठाकुर, दो वैश्य (बनिया), एक कायस्थ, एक बंगाली ब्राह्मण महिला जिन्होंने अपने सिंधी पति के नाम का टाइटल अपनाया (सुचेता कृपलानी), एक जाट और एक यादव हैं.
1989 तक तीनों ठाकुर सीएम त्रिभुवन नारायण सिंह, वी. पी. सिंह और वीर बहादुर सिंह थे लेकिन 1989 में वी. पी. सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ठाकुरों ने एक विशिष्ट राजनीतिक समूह के रूप में अपना दावा शुरू किया.
पिछड़े वर्गों और दलित समाज वाले दलों (एसपी और बीएसपी) के बाद भी वह चुनाव जीत रहे थे, ईपीडब्ल्यू के पेपर से पता चलता है कि ठाकुर और ब्राह्मण यूपी विधानसभा में अधिक प्रतिनिधित्व करते रहे हैं.
पेपर के मुताबिक ‘उदाहरण के लिए, यह देखा गया है कि जब एसपी यूपी में चुनाव जीतती है, तो ठाकुर राज्य की विधानसभा में सबसे बड़े समूह के रूप में उभर कर आते हैं, और बीएसपी की जीत में ब्राह्मणों के अलावा और कोई भी सीटों की अधिकतम नंबर पर कब्जा नहीं करता है. ये दोनों जातियां मिलकर राज्य की जनसंख्या का 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन प्रत्येक चुनाव में वे विधानसभा में 25 प्रतिशत से अधिक सीटों पर कब्जा करती हैं.’
पत्र में इस प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए कहा गया है, ‘पार्टियों और जातियों के बीच समझौते में शक्तिशाली गुट अपने आर्थिक दम पर सौदेबाजी की क्षमता बढ़ाता दिखाई देता है. राजनीतिक दल इन समूहों को अनुचित महत्व देते हैं जो कि मतदाताओं के एक छोटे हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं.’
‘जीतने की क्षमता’
सेंगर, जिसे उन्नाव बलात्कार मामले में दोषी ठहराया गया था, ठाकुरों की इस राजनीतिक शक्ति का उदाहरण था. वह एसपी से बीएसपी, फिर भाजपा में गया और हर जगह टिकट हासिल किया, अपनी सीट से कभी चुनाव नहीं हारा और जिले के अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदान को प्रभावित किया. पर्यवेक्षकों का कहना है कि ऐसे नेता प्रायः जो बाहुबली होते हैं, अत्यधिक कीमती राजनीतिक गुणवत्ता वाले- जीतने की क्षमता वाले लोग होते हैं.
प्रतापगढ़ के पूर्व राजा के पुत्र अजय सिंह कहते हैं, ‘एक ठाकुर अपने बल (शाब्दिक रूप से ताकत) पर चुनाव जीत सकता है. यही बात है जो कि कोई भी पार्टी उनके बिना नहीं कर सकती.’ ‘उनके पास जमीन के कारण पैसा है, पर उनका सामाजिक स्तर भी है… सबसे गरीब व्यक्ति चाहता है कि उसके सिर पर ठाकुर का हाथ हो.’
सिंह कहते हैं, ‘जब सभी ग्राम प्रधान ठाकुर के अंगूठे के नीचे होते हैं तो कोई भी राजनीतिक दल उनकी उपेक्षा कैसे कर सकता है.’
फिर, वित्तीय दबदबे का सवाल है. ‘प्रत्येक पार्टी को अगुआ की जरूरत होती है… जब वे सत्ता खोते हैं, तो उनके लिए 500 पुरुषों को इकट्ठा कौन करेगा? तब आपके आईएएस, आईपीएस अधिकारी गायब हो जाएंगे, और ये ठाकुर बने रहेंगे’.’
एस.पी. सिंह, जो 30 साल से भी अधिक समय तक यूपी सरकार में सेवारत रहे, अजय सिंह से सहमत हैं, ‘वे एक प्रकार के बाहुबल और धन शक्ति को चलाते हैं जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. वह कहते हैं, ‘हर गांव में उनके पास छोटे सूक्ष्म वित्त समूह हैं जिनके माध्यम से वे उच्च ब्याज दर पर पैसा उधार देते हैं… जब कोई चुका नहीं पाता तो वे उनकी जमीन ले लेते हैं.’
EPW पेपर का कहना है कि ठाकुरों ने न्यूनतम अंतर-पीढ़ीय व्यावसायिक गतिशीलता (एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में जाना) का अनुभव किया है, जबकि अधिकांश अन्य जाति समूहों ने कृषि से अन्य व्यवसायों में एक बदलाव देखा है, यह बदलाव ठाकुरों, भूमि-आधारित अभिजात वर्ग के बीच सबसे कम रहा है.
एसपी सिंह पूछते हैं, ‘वे अन्य व्यवसायों में क्यों जाएंगे? ‘वे गांव के भीतर ही अपनी सभी ताकत का मौज उड़ाते हैं. वे गांव के सभी लोगों को पैसे, अनाज, खेत में नौकरियां देते हैं. उन्हें और क्या चाहिए?’
उनका राजनीतिक महत्व ऐसा है कि चूंकि कांग्रेस जैसे विपक्षी दल भी दलित महिला पर अत्याचार की निंदा तो करते हैं जिसका हाथरस में सामूहिक बलात्कार किया गया और हत्या की गई, पर कोई भी पार्टी यह कहने की हिम्मत नहीं करेगी कि ठाकुरों ने इसे किया.’ वह आगे कहते हैं, ‘मायावती भी ठाकुरों को नाराज नहीं कर सकती, अकेले कांग्रेस को छोड़ के.’
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ठाकुर होने का ‘घमंड’
उत्तर प्रदेश पर नज़र रखने वाले लोगों का मानना है कि पारंपरिक तौर पर प्रदेश के ठाकुरों में ‘ठाकुर होने का घमंड’ है जिसे वे इस तरह देखते हैं- ‘ठाकुर होने का मैं’. सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के फेलो राहुल वर्मा कहते हैं कि वास्तव में पिछले कुछ दशकों में दलितों के सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेप ने ठाकुरों में एक प्रतिशोध पैदा किया है.
वर्मा कहते हैं, ‘यह ऐसी भावना है जिससे उन्हें लगता है कि ‘ये लोग तो पहले हमारे पीछे रहते थे लेकिन आज वही दबा रहे हैं’. ये कहना गलत नहीं होगा कि इस प्रतिक्रिया का बोझ और गुस्सा सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है.’
वर्मा के बात से और हाथरस गैंगरेप मामले के बीच जो एक थ्यौरी फिट बैठती है वो ये है कि- दलित परिवार का, आरोपी ठाकुरों के साथ दो दशक पुराना विवाद था.
ये बात दर्ज है कि आरोपी के दादा पर पीड़िता के दादा को कथित तौर पर पीटने के आरोप में एससी/एसटी एक्ट के तहत 3 महीने जेल में रहना पड़ा था. पीड़िता की मां ने कहा था कि वो ‘अपनी ‘हैसियत’ के बारे में जानते हुए बड़ी हुई हैं इसलिए ऊंची जातियों से कभी टकराए नहीं.’
हालांकि योगी आदित्यनाथ की बायोग्राफी ‘द मांक हू बिकेम चीफ मिनिस्टर’ लिखने वाले शांतनु गुप्ता इस बात से असहमति रखते हैं. वो कहते हैं कि हाथरस का मामला दिल्ली के पत्रकारों की ‘डोरस्टेप रिपोर्टिंग’ की भेंट चढ़ गया है. ये मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में नहीं आता अगर पीड़िता भी ठाकुर होती.
वो कहते हैं, ‘हमेशा जाति पर चर्चा कर लोग इसे जिंदा रखते हैं…यहां तक कि सेंगर भी ठाकुर था लेकिन उस मामले में किसी ने भी जाति पर बात नहीं कि क्योंकि लड़की भी ठाकुर थी.’
‘आधुनिकता के शिकार’
विशेषज्ञों का कहना है कि जिस ‘बदले की सनक’ का जिक्र एसपी सिंह करते हैं उसे इस तरह समझा जा सकता है कि एक समुदाय और जातिगत समूह के तौर पर आजादी से पहले और यहां तक ब्रिटिश राज से भी पहले से ही ठाकुरों के सबसे ज्यादा रजवाड़े हुआ करते थे. सत्ता से बेदखली इस सनक का कारण माना जा सकता है. भारत के लोकतांत्रिक होने के साथ ही ज्यादातर राजा केवल प्रतीकात्मक ही रह गए जिसे काफी सारे जानकार उन समुदायों के बीच रोष का कारण मानते हैं.
केंद्रीय रक्षामंत्री और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह को अपवाद मानते हुए इसके इतर देखें तो राजनीति में ज्यादातर ठाकुर नेता चाहे वो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह हो या बाहुबली नेता रघुराज प्रताप सिंह ‘राजा भैय्या’- ये सभी राज परिवार से ही संबंधित रहे हैं.
ठाकुरों की इस नाराज़गी को हाल ही के एक वायरल वीडियो से समझा जा सकता है जिसमें तिलक लगाया एक व्यक्ति दलित नेता चंद्रशेखर आजाद को धमकी देता हुआ नज़र आ रहा है. वीडियो में दो व्यक्ति नज़र आते हैं जो अपने आप को आजाद का ‘बड़ा भाई’ बताते हैं, साथ ही उन दोनों के पीछे पुलिस भी खड़ी दिखती है.
Thakur men, who have been staging the "Savarn Jago" protest outside the Victim's village, call out @BhimArmyChief who has reached Hathras to meet the victim's family. pic.twitter.com/sam5n8t86L
— sadhika tiwari (@sadhika_tiwari) October 4, 2020
विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसी उदासीनता के बीच इन समुदायों के बीच एकजुटता करने की जरूरत बढ़ जाती है और यही ट्रेंड हाथरस मामले में भी दिखा. चारों आरोपियों के खिलाफ मामला बढ़ता देख गांव से दो किलोमीटर दूर ठाकुर महापंचायत का आयोजन कराया जाता है और उसमें आरोपियों की रिहाई की मांग की जाती है. इस महापंचायत में ब्राह्मण भी शामिल हुए थे.
वर्मा इशारा करते हैं कि हिंसा की तरफ इनका पारंपरिक झुकाव रहता है- जैसा कि ठाकुर/ राजपूत/ क्षत्रिय को ‘वॉरियर कास्ट’ बताया जाता है. वर्मा कहते हैं, ये पारंपरिक जमींदार रहे हैं और उस समय हिंसा के सहारे अपनी सत्ता काबिज रखी जाती थी और वही प्रवृत्ति जारी है.’ हालांकि वो चेताते हुए कहते हैं कि प्रदेश भर में ब्राह्मण और यादव जैसी प्रभावशाली जातियां भी राजनीतिक और सामाजिक दबदबे के लिए हिंसा का सहारा लेती हैं.
योगी आदित्यनाथ के राज में ‘ठाकुरवाद’
2017 में प्रदेश में भाजपा की जीत के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के बाद ये समझा जाने लगा कि उत्तर प्रदेश में ठाकुर जाति प्रभावशाली हो गई है क्योंकि योगी खुद उस जाति से आते हैं.
साधु से नेता बने योगी आदित्यनाथ के समर्थक और विरोधी एक बात पर सहमत होते हैं कि- जमीनी तौर पर ये प्रभाव बहुत ही कम दिखता है.
योगी आदित्यनाथ के बायोग्राफर शांतनु गुप्ता कहते हैं, ‘बतौर एसपी, डीएम और न जाने क्या-क्या- लगातार ठाकुरों की नियुक्ति को लेकर बहुत कुछ कहा जाता है.’ उन्होंने कहा, ‘मैंने घंटों बैठकर ठाकुर एसपी और डीएम के नामों की तलाश की लेकिन 2017 के बाद मुझे इस दिशा में कोई ज्यादा प्रतिनिधित्व की बात नज़र नहीं आई.’
गुप्ता ने कहा, ‘जो लोग भी ऐसी बात कहते हैं वो ये नहीं सोचते कि योगी ठाकुरों की राजनीति करके नहीं जीते हैं बल्कि उन्होंने हिंदू की राजनीति कर जीत हासिल की है.’
हालांकि कानपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एके वर्मा का कहना है कि आज़ादी के सात दशकों के बाद भी ठाकुरों के प्रभुत्व ने भारतीय लोकतंत्र के भीतर के अंतर्विरोधों को सामने लाकर रख दिया है.
उन्होंने कहा, ‘आज तक ठाकुर या तो राजा, महाराजा, जमींदार या तालुकदार रहे हैं…वो सामंती प्रभुत्व रखते आए थे.’ उनका प्रभुत्व भारतीय लोकतंत्र के भीतर के अनसुलझे अंतर्विरोधों का हासिल है जो राजनीतिक तौर से तो लोकतांत्रिक हो गया लेकिन सामाजिक तौर पर सामंती बना रहा.’
वर्मा का कहना है कि इस मानसिकता ने ठाकुरों के भीतर उस समझ को पैदा किया जिसमें वो खुद को कानून से भी ऊपर मानने लगे लेकिन साथ ही वो ये भी कहते हैं कि हर किसी प्रभुत्वशाली जाति की भी यही सच्चाई है. वो कहते हैं, ‘ये समझ बनी हुई है कि आप प्रशासन की नाक के नीचे से हमेशा बचते चले जाएंगे, सिर्फ इसलिए कि आपने सामाजिक और राजनीतिक तौर पर अपनी सत्ता को बरकरार रखा है.’
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जो ठाकुरों के विषय में जो बाते लिखी गई है वो आधारहीन है ये तो दूसरों की मदद करने वाली जाति है
द प्रिंट हम चाहे तो तेरी एक दिन में द प्रिंट का नामोनिशान खत्म कर सकते है कियोकि किसी एक समुदाय जाति विशेष को तूने टारगेट किया है
Bsdk kuch aacha kaam bhi kr lo…….sale jatiyo ko lda rhe ho