INSAS को बदलने की सेना की खोज कारगिल युद्ध के बाद शुरू हुई जब सैनिकों ने राइफलों के जाम हो जाने (जैमिंग), भारी परावर्तन (झटके) और फाइबर काँच से बनी मैग्जीनों के टूटने के बारे में शिकायत दर्ज कराई थी
नई दिल्लीः आज से दो हफ्तों में मध्य प्रदेश में चंबल की घाटियों में एक बुल्लपुप का प्रचलन होगा। बुल्लपुप एक छोटी नली (बैरल) की राइफल है इसकी मैग्जीन पिस्तौल के दस्ते (पिस्टल ग्रिप) के पीछे लगती है।
उसी समय, भारतीय सेना के नौ अधिकारियों की एक टीम एक राइफल की खोज में अमेरिका से आस्ट्रेलिया तक दुनिया की यात्रा कर रही होगी।
चंबल में बनाई गई बंदूकें, 1970 से 1980 के दशक के दौरान देश में उत्पाद मचाने वाले डकैतों के लिए प्रसिद्ध थीं। उस समय कट्टा बनाए जाते थे जो अब पुरानी बात हो गई है।
फिर भी, जब ग्वालियर के पास मालनपुर में स्थित पहले निजी आयुध निर्माण कारखाने में पुंज लॉयड और इजराइल वेपन इंडस्ट्रीज (आईडब्ल्यूआई) के बीच एक संयुक्त उद्यम द्वारा पुंज लॉयड रक्षा प्रणाली के नाम से TAVOR X95 कार्बाइन का निर्माण किया गया था, यह एक ऐसी तस्वीर को फ्रेम करेगा जो एक बार एक विफलता की झलक होगी क्योंकि यह प्रतिज्ञात्मक है।
कंपनी के अध्यक्ष (विनिर्माण) अशोक वाधवान कहते हैं, भारत में राइफलों के लिए दीर्घकालिक संभावित बाजार लगभग 4 मिलियन (40 लाख) राइफलों का है जिसमें सशस्त्र बलों और गृह मंत्रालय की सेवाओं में कार्यरत लोग शामिल हैं। फिलहाल हम तत्काल ऑर्डरों की तरफ़ देख रहे हैं जिसके लिए खोजी दल इजराइल भी जा रहा है।
जब 20वीं सदीं की शुरूआत में भारत ने कलकत्ता के पास ईशापुर में हुगली के तट पर औपचारिक रूप से राइफलों का निर्माण शुरू किया था तब इजराइल इसमें अस्तित्व में नहीं था। पिछले हफ्ते खोजी दल ने किसी एक ऐसी असॉल्ट राइफल की खोज में दुनिया भर की यात्रा प्रारंभ की है जिसको इंसास 1बी1 से प्रतिस्थापित किया जा सके। इजराइल में इस खोजी दल के सामने इजराइल वेपन इंडस्ट्रीज (आईडब्ल्यूआई) द्वारा GALIL का प्रदर्शन किया जाएगा।
वाधवान की कंपनी का संचालन पिछले साल मुख्य रूप से इजराइल की इजराइल वेपन इंडस्ट्रीज (आईडब्ल्यूआई) के लिए TAVOR, GALIL और NEGEV बंदूकों के निर्माण में प्रयुक्त घटकों के निर्यातक के रूप में प्रारंभ हुआ था। उन्होंने कहा, TAVOR X95 बुल्लपुप प्रचलन में एक पूर्ण बन्दूक होगी “केवल हमारे आंतरिक प्रयोजनों के लिए।”
भारतीय सेना की नौ सदस्यों वाली टीम इजराइल के अलावा, एम सीरीज का मूल्यांकन करने के लिए अमेरिका एफ90 फैमिली के लिए आस्ट्रेलिया, CARACAL 817AR का परीक्षण करने के लिए संयुक्त अरब अमीरात और S&T MOTIV (पहले S&T DAEWOO) की जाँच करने के लिए दक्षिण कोरिया की यात्रा करेगी।
असंतोष
‘INSAS’ को बदलने की सेना की खोज कारगिल युद्ध के बाद शुरू हुई जब सैनिकों ने राइफलों के जाम हो जाने (जैमिंग), भारी परावर्तन (झटके) और फाइबर काँच से बनी मैग्जीनों के टूटने के बारे में शिकायत दर्ज कराई।
भारतीय आयुध निर्माणी सेवा बोर्ड (ओएफबी) और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा किए गए सुधारों के बावजूद, सेना संतुष्ट नहीं थी। इसने ओएफबी की नवीनतम पेशकश को खारिज कर दिया, जिसका नाम एक्सालिबुर रखा गया था।
जरूरतों के मुताबिक एक राइफल बनाने में भारतीय आयुध निर्माण उद्योग की अक्षमता का पहला कारण यह है की सेना सोचने में बहुत समय लगाती है की उनको कोन से हथियार की जरूरत है और दूसरा यह है की सरकार इसके लिए धन मुहैया कराने में कंजूसी करती है।
7 लाख असाल्ट राइफलें, 4.4 लाख कार्बाइन और 41,000 लाइट मशीन गनों की अनुमानित रूप से सेना को आवश्यकता है। इसने 2011 में लगभग 12 विदेशी विक्रेताओं की जानकारी के लिए पहला अनुरोध जारी किया था। आरएफआई के बाद भी, सेना उसी विचार पे टिकी रही की उनको ऐसी राइफल की मांग थी जो दो अलग अलग कैलिबरों की गोलियों को फायर कर सके, लाइट कैलिबर 5.56 मिमी और हैवी और ज्यादा प्राणघातक कैलिबर 7.62 मिमी, ऐसा माड्यूलर बैरल जो विनिमय करने योग्य हो।
उन्होंने फरवरी में इस विचार को अपने दिमाग़ से निकाल दिया। सेना प्रमुख जनरल बिपाइन रावत ने भी संख्या के मुद्दे को सुलझाया, और मूल प्रक्षेपण से 94,000 असाल्ट राइफल्स, 72,000 कार्बाइन और 17,000 एलएमजी तक कम कर दिया।
एक वरिष्ठ थल सेना अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “इसमें हमें थोड़ी देर लग गई, लेकिन हमने फैसला कर लिया है कि हमें क्या चाहिए।“ अब कम से कम 500 मीटर तक मार करने वाली असाल्ट राइफल और 300 मीटर की दूरी तक मार करने वाली कार्बाइन की आवश्यकता है। संख्या इस धारणा पर भी तय की गई है कि थल सेना की एक बटालियन (लगभग 800-900 सैनिकों) को केवल 60 प्रतिशत सैनिक ही प्रत्यक्ष युद्ध में शामिल होते हैं जबकि अन्य सैनिक सहायक की भूमिका निभाते हैं।
भारतीय सेना में 382 सुव्यवस्थित पैदल सेना बटालियन और 60 अन्य प्रतिरोधक बटालियन (मशीनीकृत, कवचधारी, स्काउट्स) हैं।
प्रत्येक बटालियन के प्रत्यक्ष रूप से आगे रहने वाले सैनिकों को आधुनिक आक्रमणकारी राइफलें और 500 मीटर तक की लंबी दूरी कवर करने वाली बंदूकें प्रदान की जाएंगी। अन्य लोग छोटी 300 मीटर रेंज की राइफल्स / कार्बाइन से लैस होंगे लेकिन दोनों से 7.62 मिमी की गोलियाँ चलेंगी।
परंपरागत एके
दशकों से, भारतीय सेना एके श्रृंखला का उपयोग करती आई है और कई सैनिक अब भी एके से लेकर आईएनएसएएस तक को अपेक्षाकृत अधिक पसंद करते हैं – लेकिन खोज समिति रूस नहीं जा रही है। यह आश्चर्यजनक हो सकता है क्योंकि अवटोमैट कलाशनिकोव (एके-47) और इसके प्रकार, और शीत युद्ध के प्रारंभिक वर्षों के उत्पाद, राज्य बलों और विद्रोहियों द्वारा समान रूप से सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले आग्नेयास्त्र हैं।
जनरल बिपिन रावत ने इस साल सेना दिवस (15 जनवरी) से पहले कहा, “मेरा विचार है कि वैश्विक बाजार में एक अत्याधुनिक आक्रामक राइफल के लिए 2 लाख रुपये खर्च होंगे, इसलिए हम इन्हें केवल थल सेना के सबसे आगे चलने वाले सैनिकों के लिए जारी करेंगे जो अपनी राइफलों के साथ सशस्त्र दुश्मन का सामना करते हैं”। उन्होंने कहा, “हम अन्य सैनिकों के लिए एक सस्ता स्वदेशी विकल्प प्रदान करेंगे जिनके लिए राइफल प्राथमिक हथियार नहीं है”।
तो क्या रूस का रणनीतिक साझेदार भारत उस विरासत को त्याग रहा है? अभी नहीं। सेना का मानना है कि नवीनतम संस्करण एके-103, सेना के उन सैनिकों के काम आ सक्ती है जो की सीधे दुश्मन का सामना नहीं करते हैं। सेना प्रमुख ने सुझाव दिया कि एके-103, जिसका निर्माण ऑर्डेंस फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) के लाइसेंस के तहत फिर से किया जा सकता है, “सस्ता, स्वदेशी विकल्प” हो सकता है।
चयनित विक्रेता को नाइट विजन डिवाइस से लैस हमलावर राइफलें नवीनतम रक्षा खरीद नीति की “फास्ट ट्रैक प्रक्रिया” के तहत इकरारनामा के 28 दिनों के भीतर ही उपलब्ध करानी होंगी। यह सब तभी संभव होगा जब सेना फिर से अपना मन न बदले और सरकार एक समयसीमा निश्चित कर दे।
ऐसा होने तक कट्टे की भूमि पर बुल्लपुप इस देश की सेना के लिए एक कल्पना ही बनी रहेगी जिसने एक शताब्दी से अधिक समय तक बंदूकें बनाई हैं।
Read in English : While Indian Army globetrots in search of a modern rifle, a hi-tech one is made in Chambal